जिस तरह एक आदमी के लिए रोटी, कपड़ा और मकान मूलभूत जरूरतें हैं। उसी तरह किसी इंसान को उसकी प्रतिभा का विकास करने और सभ्य बनने के लिए समुचित शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है।
भारत जैसे देश में जहां की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है वहां हम शिक्षा को पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले नहीं कर सकते और ना ही उसे इतना महंगा होने दे सकते हैं कि एक गरीब परिवार का योग्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा हासिल ना कर सके। आजादी के बाद के पिछले 73 वर्षों में हम बहुत कम ऐसे शिक्षण संस्थान विकसित कर पाएं हैं जो गुणवत्ता में विश्व के अन्य संस्थानों से मुकाबला कर सकें।
विश्व के टॉप संस्थानों में मुश्किल से चंद संस्थान शामिल हो पाते हैं। यह उस देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जहां नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे विश्वविख्यात संस्थान आज से दो हजार साल पहले से रहे हों। हम अच्छे शिक्षण संस्थानों में भारतीय विज्ञान संस्थान और आईआईटी और चंद आईआईएम को ही गिना सकते हैं।
अमेरिका में भी निशुल्क है स्कूली शिक्षा – अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे अधिक संपन्न और पूंजीवादी विचारधारा के सबसे बड़े पैरोकार देश में जब स्कूली शिक्षा मुफ्त है तो भारत जैसे देश में तो पूरी शिक्षा मुफ्त और स्तरीय होनी ही चाहिए क्योंकि शिक्षा कोई लक्जरी नहीं है वो मूलभूत जरूरत है।
मेरा यह शिद्दत से मानना रहा कि शिक्षा, चिकित्सा और न्याय की सुविधाएं निशुल्क ही मिलनी चाहिए। इन तीनों का ही आज के दौर में निजीकरण तेजी से हो रहा है। सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य के अपने दायित्व से धीरे-धीरे किनारा करना चाह है।
पूरी जिम्मेदारी ले सरकार – देश में निजी और सरकारी शिक्षण संस्थानों के साथ साथ चलने से समाज में बच्चों में भी वर्ग भेद बढ़ रहा है। कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति बेहद दयनीय है।
सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी – सबसे बड़ी समस्या शिक्षकों की संख्या कम होने की है। कई स्कूलों में तो दो-तीन शिक्षकों के ऊपर पांच – सात कक्षाओं का बोझ रहता है तो ऐसे में वो क्या खाक पढ़ा पाएंगे।
आधारभूत संसाधनों की कमी व बदहाली – इसके अलावा कई स्कूलों के लिए भवनों की स्थिति बदहाल है। कई स्कूलों में कक्षाओं की कमी के कारण दो-तीन कक्षा के विद्यार्थियों को एक ही रूम में बैठाकर पढ़ाया जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चे क्या समझेंगे इसका भगवान ही मालिक है। स्कूल व कॉलेजों में पीने का स्वच्छ पानी का इंतजाम ना होना और टॉयलेट आदि की कमी आम बात है। सरकारी स्कूलों में सारा फोकस बस मध्याह्न भोजन (टऊट) के वितरण पर ही है। वहां पढ़ाई प्राथमिकता में नहीं है बल्कि दोयम दर्जे का विषय है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की स्थिति भी ठीक नहीं है खासकर जो ईमानदार हैं और जो पढ़ाना अपनी पहली जिम्मेदारी मानते हैं। सरकार इन शिक्षकों से जनगणना, पशु व अन्य गणना तथा टऊट की निगरानी करने सहित कई गैर शैक्षणिक कामों में उलझाए रखती है। इसलिए सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बस नाम के लिए होती है। यहां आप नेतरहाट, नवोदय तथा कुछ इंदिरा गांधी आवासीय विद्यालयों को अपवाद मान सकते हैं।
पूरी तरह सरकारी होने पर शिक्षा का स्तर उन्नत होगा – अगर हम देश में शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह सरकारी कर दें तो शिक्षा का स्तर खुद ब खुद ऊंचा उठ जाएगा। देश के सभी लोगों चाहे वो अंबानी हो, बड़ा नेता हो या आईएएस या आईपीएस जैसे बड़े अधिकारी सभी के बच्चे एक ही तरह के स्कूलों में पढ़ेंगे तो इन स्कूलों की व्यवस्था ठीक होनी तय है।
अभी जो भी सक्षम लोग हैं वो अपनी हैसियत के हिसाब से निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाते हैं। उन्हें सरकारी स्कूलों व कॉलेजों की बदहाली की तनिक भी चिंता नहीं है। जिन सरकारी स्कूलों की व्यवस्था दुरूस्त करने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की है वो बड़े मजे से अपने बच्चों को सुविधासम्पन्न निजी स्कूलों में भेज कर सरकारी स्कूलों की बदहाली की तरफ से आंख मूंद लेते हैं। अगर इनके बच्चे भी सरकारी स्कूलों में जाएंगे तो झख मारकर इन अधिकारियों को इनकी व्यवस्था ठीक करनी होगी। निजी संस्थानों की बेलगाम बढ़ती फीस की वजह से सरकारी संस्थानों में भी शुल्क लगातार बढ़ाया जा रहा है। लेकिन असली लड़ाई तो केंद्र और राज्य सरकारों को शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उनके दायित्वों से मुंह ना मोड़ने देना है। शिक्षा पर बजट का अधिक पैसा खर्च करने के लिए दबाव बनाना चाहिए। शिक्षा पर किया गया निवेश ही सबसे बेहतरीन रिटर्न देनेवाला है।
यही देश के चहुंमुखी विकास को गति दे सकता है और भारत को सशक्त और संपन्न राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मुझे लगता है कि सिविल सोसाइटी को इसको लेकर आंदोलन चलाना चाहिए।
नवीन शर्मा
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)