economic revolution thirty years ago: तीस साल पहले की आर्थिक क्रांति

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भारत को आजादी 1947 में मिल गई थी लेकिन उसके काफी सालों बाद तक भारत में मुक्त अर्थव्यवस्था की बात करने वालों की आवाज को गंभीरता से नही लिया गया। हालांकि ऐसा नही था कि उस वक्त मुक्त अर्थव्यवस्था की बात किसी ने नही की थी। सन् 1954 में बंबई के एक अर्थशास्त्री ए.डी. श्रॉफ ने ह्लफ्री इंटरप्राईजेजह्व नाम के एक मंच की स्थापना की। आर्थिक विकास पर इस संस्था के विचार उस जमाने में भारत सरकार के योजना आयोग के विचारों से बिल्कुल उलट थे। यह संस्था मुक्त उद्यमों के पक्ष में थी। इस संस्था ने भारत सरकार की उद्यमियों के प्रति भेदभाव भरी नीति की आलोचना की। श्रॉफ के अलावा पत्रकार फिलिप स्प्रैट भी मुक्त उद्यमों के पक्ष में लेख लिखते आ रहे थे। एक सत्य यह भी है कि नेहरु के वक्त में देश ने शिक्षा, विज्ञान और स्वास्थ जैसे क्षेत्रों में भरसक कामयाबी हासिल की थी लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था जैसी बातों को उस वक्त गंभीरता से नही लिया गया।

जब सन् 1966 में रूपए का अवमूल्यन किया गया तो ऐसा लगा की सरकार व्यापारिक नियमों में ढील देने की तरफ बढ़ेगी और लाइसेंस देने की प्रक्रिया में भी कुछ उदारता अपनाई जाएगी। लेकिन जब सन् 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में विभाजन करा दिया तो उनकी सरकार ने वाम झुकाव का प्रदर्शन करते हुए नए उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और आर्थिक तानाशाही की तरफ बढ़ गई। फिर सन् 1970 के दशक के आखिर में जनता सरकार के समाजवादियों ने भारत की आर्थिक स्वतंत्रता को बचाए रखने की नियत से आईबीएम और कोकाकोला जैसी विदेशी कंपनियों को धमाकेदार तरीके से भारत से निकाल बाहर कर दिया।

हालांकि अस्सी के दशक में भारत सरकार ने मुक्त अर्थव्यवस्था के प्रति जरूर अपना विरोधभाव कुछ कम किया लेकिन भारतीय राजतंत्र उस दिशा में आगे तभी बढ़ पाया जब एक आर्थिक संकट देश के सामने आ खड़ा हुआ। यह संकट विदेशी कर्ज से संबंधित था। सन् 1991 की गर्मियों में देश का कर्ज 70 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें करीब 30 फीसदी हिस्सा निजी कर्जदाताओं का था। एक ऐसा भी वक्त आया जब देश का विदेशी मुद्रा भंडार महज इतना ही रह गया, जिससे सिर्फ दो सप्ताह तक के लिए आयात किया जा सके।

ऐसी विकट स्थिति में जब पी.वी. नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेते हुए पूर्व आरबीआई गवर्नर और पूर्व वित्त सचिव डॉ मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया। यहां से भारत एक मुक्त अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ा। मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया गया, आयात पर से कोटा हटा लिया गया, निर्यात को बढ़ावा दिया गया और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का स्वागत किया गया। घरेलू बाजार को भी मुक्त किया गया, लाइसेंसे-परमिट-कोटा राज को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया गया और सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को हतोत्साहित किया गया। कुल मिलाकर आर्थिक सुधारों ने सरकारी तंत्र के भीमकाय आकार को सीमित करने का प्रयास किया। तमाम क्षेत्र जिन पर पहले राज्य का पूर्ण नियंत्रण होता था उन्हें निजी निवेश के लिए खोल दिया गया।

अस्सी के दशक में अपनाई गईं व्यापार समर्थक आर्थिक नीति ने विकास दर में तेजी लाई और नब्बे के दशक में बाजार समर्थक नीतियों ने इसे और भी बढ़ावा दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन को हम इससे समझ सकते हैं कि 1972 से 1982 के बीच जो सकल घरेलू उत्पाद 3.5 फीसदी था वह 1982 से 1992 के बीच 5.2 फीसदी और 1992 से 2002 के बीच बढ़कर 6.0 फीसदी तक चला गया।

स्वाभाविक रूप से विकास की प्रक्रिया असमान थी। अर्थव्यवस्था के कुछ नए क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे थे। सबसे महत्वपूर्ण विकास सेवा क्षेत्र का हुआ जिसमें पूरे नब्बे के दशक में 8.1 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें सबसे ज्यादा योगदान सॉफ्टवेयर क्षेत्र का रहा जिसका राजस्व सन् 1990 में महज 19 करोड़ 70 लाख डॉलर से साल 2000 तक जाते-जाते 8 अरब डॉलर तक पहुंच गया। कई साल तो ऐसे बीते जिसमें इसने पचास फीसदी से भी ज्यादा की दर से तरक्की की। इसका सबसे ज्यादा विस्तार विदेशी बाजारों में हुआ। जहां सन् 1990 में भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग का निर्यात महज 10 करोड़ डॉलर था वहीं सदी के अंत तक यह आंकड़ा 6 अरब 30 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। साल 2000 में भारत में 3,40,000 सॉफ्टवेयर पेशेवर थे जबकि प्रतिवर्ष 50,000 नए इंजीनियरिंग स्नातकों की नियुक्ति की जा रही थी। यह क्षेत्र का सबसे बड़ा गड़ भारत का सिलिकॉन वैली कहा जाने वाला शहर बंगलौर है। एक समय पर पूरे बंगलौर शहर में सिलिकॉन वैली से भी ज्यादा इंजिनियर कार्यरत थे, जो अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे थे। भारत में जब भी आर्थिक सुधारों की बात की जाएगी, तो इस क्षेत्र का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।

इस क्षेत्र के अलावा भी कई क्षेत्र जैसे मेडिकल, संचार, बीमा, विमानन ने आर्थिक सुधारों के बाद से काफी तरक्की की है। एक और क्षेत्र जिसने दर्ज करने योग्य तरक्की की है, वह है कॉल सेंटर का क्षेत्र जिसने 2000 के दशक में एक वक्त पर 71 फीसदी सालाना की आश्चर्यजनक दर से तरक्की की।

भारत में आर्थिक तरक्की का यह सफर बदस्तूर जारी रहा। भारत में आर्थिक उदारीकरण लाने का सबसे बड़ा श्रेय डॉ मनमोहन सिंह को दिया जाता है। उस संकट की घड़ी उनके द्वारा पेश किये गए बजट को ह्लद एपोखल बजटह्व कहा जाता है ह्लएपोखलह्व का मतलब होता है ह्लमहत्वपूर्णह्व। यह बजट महत्वपूर्ण के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में क्रांति लाने वाला भी था। जरूरी है कि वर्तमान समय में हम अपनी इतिहास की गलतियों से सबक लें और इतिहास के क्रांतिकारी फैसलों को अपना आदर्श मान के आगे बढ़ें।