तकरीबन पूरा देश आर्थिक मंदी की चपेट में है। कारोबार, धंधे चौपट हो रहे हैं। नौकरियां खत्म हो रही हैं। बढ़ती समस्याओं को लेकर आम नागरिकों में सरकार के प्रति आक्रोश पनप रहा है। पर, अफसोस कि सरकार जनसमस्याओं को दूर करने के बजाय अनाप-शनाप मुद्दों में उलझी पड़ी है। देश के अग्रणी मीडिया संस्थान भी जनता की आवाज बनने की बजाय सरकार का भोंपू बने पड़े हैं। अब सवाल यह उठ रहा है कि आखिर सरकार मूलभूत मुद्दों से दूर क्यों भाग रही है? गैरजरूरी मुद्दों पर को लेकर वक्त जाया क्यों किया जा रहा है? न तो इस तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं और न ही सरकार की तरफ से कोई जवाब देने को तैयार है। ऊपर-ऊपर सब अच्छा दिख रहा है। अनाज के भंडार भरे पड़े हैं। प्याज जैसे कुछ तात्कालिक अपवाद छोड़ दें, तो मुद्रास्फीति काबू में है। विदेशी मुद्रा भंडार गले तक भरा है। यूपीए सरकार के आखिरी पांच वर्षों में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 5.4 प्रतिशत हुआ करता था। लेकिन मोदी सरकार के पहले पांच वर्षों में इसका औसत घटकर 3.7 प्रतिशत पर आ चुका है। साथ ही देश में जबरदस्त राजनीतिक और आर्थिक स्थायित्व है। फिर भी हमारी आर्थिक विकास दर लगातार सात तिमाहियों से घटते-घटते सितंबर 2019 की तिमाही में 4.5 प्रतिशत पर आ गई। यह तब हुआ, जब सरकार ने इस दौरान सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा और अन्य सेवाओं पर 11.6 प्रतिशत ज्यादा खर्च किया। इसके बिना विकास दर मात्र 3.2 प्रतिशत रह जाती। इससे कम 4.3 प्रतिशत की विकास दर साढ़े छह साल पहले वित्त वर्ष 2012-13 की जनवरी-मार्च तिमाही में रही थी। यह दुखद है कि भारत अब दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था नहीं रहा।
आपको बता दें कि जिस भरोसे पर व्यापार से लेकर सारा उद्योग-धंधा टिका होता है, आज वही लड़खड़ा चुका है। यह छोटे और मझोले उद्योगों के साथ ही नहीं, बड़े कॉरपोरेट क्षेत्र तक के साथ भी हुआ है। बजाज समूह के चेयरमैन राहुल बजाज ने 30 नवंबर को एक समारोह में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में यूं ही नहीं कहा कि कॉरपोरेट क्षेत्र को भरोसा नहीं है कि वह केंद्र सरकार की खुलकर आलोचना करे तो उसे समझा जाएगा। असल में समूचे अर्थ तंत्र में अंदर ही अंदर भय छाया हुआ है। अजीब-सी सिहरन है। कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। सिस्टम में नकदी की कोई कमी नहीं। बैंकों के पास पिछले कई महीनों से हर दिन औसतन दो लाख करोड़ रुपए की नकदी बची रहती है। फिर भी वे उद्योग-धंधों को ऋण देने के बजाय सरकारी बॉन्डों में एसएलआर की 18.5 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा धन लगा रहे हैं। एसबीआई का निवेश तो इन बॉन्डों में 5 प्रतिशत से बढ़कर 23.5 प्रतिशत हो चुका है। बैंकों की ज्यादा मांग से सरकारी बॉन्डों के दाम बढ़ गए तो उन पर प्रभावी ब्याज की दर या यील्ड घट गई। बीते हफ्ते हुई नीलामी में 364 दिनों के ट्रेजरी बिलों की यील्ड 5.15 प्रतिशत की रेपो दर से भी नीचे 5.1389 प्रतिशत पर पहुंच गई। यह बहुत अशुभ संकेत है। दिक्कत यह है कि ऐसा करीब ढाई साल पहले अप्रैल 2017 में भी हो चुका है। यूं कहें कि अर्थव्यवस्था चरमरा रही है और इस तरफ गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
पिछले कुछ महीने से देश की राजधानी सहित कई हिस्सों में प्रदर्शनों और विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं। पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्यों में तो जैसे विरोध की आग धधक रही है। कुछ-कुछ वही नजारा है, जो कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार के अंतिम दौर में दिखा था। गौरतलब है कि इन सभी आंदोलनों, धरने-प्रदर्शनों के पीछे सरकार के फैसले और एक साथ कई मोर्चों पर बढ़ती नाकामी है। भारी बहुमत से सत्ता में लौटी एनडीए की दूसरी सरकार साल भर से भी पहले इस तरह के विरोध और आंदोलनों का सामना करेगी, इसकी संभावना चुनाव नतीजों के बाद बहुत अधिक नहीं थी। लेकिन सरकार ने एक के बाद एक ताबड़तोड़ फैसले लेने की जो रणनीति अपनाई, उससे स्थिरता को चुनौती मिल रही है। लगभग दो महीने से जेएनयू के छात्र आंदोलन कर रहे हैं क्योंकि सरकार ने वहां तमाम तरह के शुल्क और फीस कई गुना बढ़ा दी है। सरकार लगातार बैकफुट पर है लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकला है। अर्थव्यवस्था नीचे की ओर गोता लगा रही है और थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद नए आंकड़े उसकी बदहाली की तसवीर पेश कर रहे हैं। लेकिन सरकार है कि उसके पास इस संकट से निपटने की कोई पुख्ता नीति नहीं दिखती है। चालू साल के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट पिछले कई दशकों का सबसे नाकाम बजट साबित होने जा रहा है। एक तो, वित्त मंत्री और देश का शीर्ष नेतृत्व अर्थव्यवस्था में कमजोरी को स्वीकार ही नहीं कर रहा था। दूसरे, गिरती विकास दर के बीच पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का जुमला गढ़ा जा रहा था। फिर, मौजूदा हालात सरकार की नीति-निर्माण क्षमता पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं। जो कदम उठाए गए, वे या तो नाकाफी हैं या फिर उनके पीछे कोई पुख्ता सोच नहीं है।
देश की अर्थव्यवस्था जब आम लोगों की घटती आमदनी के चलते मांग में गिरावट की समस्या से जूझ रही है, वित्त मंत्री ने कॉरपोरेट कर में कटौती का तोहफा कंपनियों को दिया। इसका कोई फायदा होने वाला नहीं है क्योंकि मांग घटने से अधिकांश कंपनियों के मुनाफे घट रहे हैं। नौकरी के बड़े मौके देने वाले टेलीकॉम, रियल एस्टेट और वित्तीय क्षेत्र खुद वजूद बचाने के लिए जूझ रहे हैं और इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर नौकरियां जा रही हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था दशकों के सबसे बदतर दौर से गुजर रही है। ऐसे में जिस डेमोग्राफिक डिविडेंड को लेकर बड़े-बड़े भाषण दिए जा रहे थे, वह बढ़ती बेरोजगारी के चलते डेमोग्राफिक डिजास्टर की ओर जाता दिख रहा है। इसी के साथ पिछले दिनों महिलाओं से जुड़े अपराधों में जैसी वीभत्सता देखी गई, उसके चलते देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। हैदराबाद में एक महिला पशुचिकित्सक की बलात्कार के बाद नृशंस हत्या के सिलसिले में पकड़े गए चार आरोपियों को पुलिस ने कथित तौर पर एन्काउंटर में मार गिराया। इसको लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आईं, वह चिंताजनक और कानून-व्यवस्था पर भरोसा कमजोर होने का संकेत हैं। ये सारे मसले लोगों की बेचैनी बढ़ा रहे हैं और लोगों को आंदोलन के लिए सड़कों पर ला सकते हैं। दुनिया के कई देशों में हाल ही में ऐसा हो चुका है। हाल के सबसे विवादास्पद नागरिकता कानून में संशोधन के फैसले ने तो विरोध प्रदर्शनों को तेज ही किया है। इसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से दिसंबर 2014 तक आए धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है, लेकिन मुस्लिमों को इससे बाहर रखा गया है। सरकार के इस कदम को धर्म के आधार पर भेदभाव के रूप में देखा जा रहा है।
सवाल यह भी है कि अचानक देश में बाहरी लोगों या शरणार्थियों की कोई बाढ़ नहीं आई है, तो सरकार को इतनी जल्दबाजी क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आर्थिक मोर्चे पर तमाम तरह की चुनौतियों से जूझती सरकार लोगों का ध्यान बंटाना चाहती है। बहरहाल, देखना यह है कि सरकार की ओर से कौन से कदम उठाए जाते हैं, जिससे व्यवस्था दुरुस्त हो सके।
– राजीव रंजन तिवारी