रेख्ता या आज की दखनी हिंदी मूलत: हिंदी का ही पूर्व रूप है जिसका विकास ईसा की 14वीं शती से 18वीं शती तक दक्खिन के बहमनी, कुतुब शाही और आदिल शाही आदि राज्यों के सुल्तानों के संरक्षण में हुआ था। वह मूलत: दिल्ली के आस पास की हरियाणी एवं खड़ी बोली ही थी जिस पर ब्रजभाषा, अवधी और पंजाबी के साथ-साथ मराठी, गुजराती तथा दक्षिण की सहवर्ती भाषाओं तेलुगु तथा कन्नड़ आदि का भी प्रभाव पड़ा था और इसने अरबी फारसी तथा तुर्की आदि के भी शब्द ग्रहण किए थे। आज भी हजारों शब्द हरियाणवी मौजूद हैं जो आज भी मेरठ मुजफ्फरनगर फरीदाबाद रोहतक सोनीपत के देहात में बोले जाते हैं। इस तथ्य का उल्लेख प्रसिद्ध विद्वान राहुल सांकृतायन व श्री परमानन्द पांचाल ने अपने पीएचडी शोध ग्रन्थ में किया है। रेख्ता को साहित्यिक पहचान दी प्रसिद्ध शायर जनाब वली दखनी ने वे मुगल शासक शाह जफर उर्फ शाह आलम के दरबार में 1700 ई में दक्खिन से चलकर दिल्ली आये और उन्हें रेख्ता में पहला दीवान लिखने का श्रेय भी दिया जाता है। वली से पहले दक्षिण एशियाई गजल फारसी में रचित थे, वली ने न केवल एक भारतीय भाषा का उपयोग किया, बल्कि अपने गजलों में भारतीय विषयों, मुहावरे और इमेजरी का उपयोग किया। ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली की उनकी यात्रा के साथ उदूर्या हिन्दवी गजलों से उत्तर भारत की साहित्यिक मंडलियों में एक लहर पैदा हुई। हालांकि वली से पहले प्रमुख कवि अमीर खुसरो थे, जिन्होंने दोहों, लोकगीतों, पहेलियों व मुकरियों की रचना इस नवनिर्मित भाषा लश्करी में की थी जिसे वे हिन्दवी कहते थे। मध्यकाल तक इस मिश्रित भाषा को हिन्दवी, जबान.ए.हिन्द, हिन्दी, जबान.ए.दिल्ली, रेख्ता, गुजरी, दक्खनी, जबान.ए.उर्दू.ए. मुअल्ला, जबान.ए.उर्दू या सिर्फ़ उर्दू कहा जाता था, जो वस्तुत: सैनिक छावनी की भाषा थी। इस बात के प्रमाण हैं कि इसे 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दुस्तानी भी कहा गया, जो बाद में उर्दू का समानार्थी बन गया, फिर भी प्रमुख उर्दू लेखक इसे 19वीं शताब्दी के आरम्भ तक हिन्दी या हिन्दवी कहते रहे। उर्दू भाषा हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप मानी जाती है। उर्दू में संस्कृत के तत्सम शब्द न्यून हैं और अरबी-फारसी और संस्कृत से तद्भव शब्द अधिक हैं। अंग्रेजो के समय ग्रियसन के कहने पर लल्लू लाल ने प्रेमसागर नाम के ग्रन्थ की रचना इसी खड़ी बोली में की थी उन्ही के समकालीन इब्ने इंशा ने रानी केतकी की कहानी गल्प लिखी उसक अंश देखें। वही झूलेवाली लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नांह-नूह की और कहा- इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा- इतनी रूखाइयां न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छांह में ओस का बचाव करके पड़ा रहूंगा। बड़े तड़के धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पड़ेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई घोड़ा उसको पा सकता था। जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढकर यहां चला आया हूं। कुछ रोक टोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रूका रहता। सिर उठाए हांपता चला आया। क्या जानता था। वहाँ पद्मिनियां पड़ी झूलती पेगै चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा।
नानुकर की जगह नाह-नूह, दिल हृदय की जगह जी सहारे की जगह आसरा हांफता की जगह हांपता शब्द, झूलूंगा ली जगह झूल करूंगा जैसे वाक्य अंश, एक और हैदराबादी हिन्दी तो दूसरी और दिल्ली के चारों तरफ मेरठ सहारनपुर मुजफरनगर सोनीपत रोहतक हिसार सिरसा फरीदाबाद गुडगांव के गांव में आज भी प्रचलन में हैं बोले जाते हैं यहां दो और बातें कहना जरुरी है।
1 उर्दू या आधुनिक हिन्दी का व्याकरण अपभ्रंश कौरवी एशूरसेनी या जिसे आजकल हरियाणवी कहते हैं का व्याकरण है। और यह बोली या भाषा पृथ्वीराज चौहान के दिल्ली राज्य की थी इसी भाषा में महाकवि चन्द्रबरदाई ने प्रिथिविराज रासो की रचना की थी। उन्होंने इसे षड भाषा या खड़ी बोली लिखा है रासो में। दिल्ली राज मुस्लिम शासको के राज में दिल्ली सूबा कहलाने लगा था।
2 मुस्लिम शासकों के समय प्रशासकीय भाषा व लिपि फारसी थी अत: उर्दू भी इसी लिपि में लिखी जाने लगी थी। तो दोस्तों हिन्दी व उर्दू दोनों एक भाषा के दो रूप हैं अगर देवनागरी में लिखी जा, व संस्कृत के शब्द बहुतायत में हों तो हिंदी अगर फारसी लिपि में लिखी हो और फारसी अरबी तुर्की के शब्द जयादा हों तो उर्दू।
डॉ श्याम सखा श्याम
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