Dreadful phase of economic depression: आर्थिक महामंदी का भयावह दौर

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थॉमस जेफसरसन कहते थे- हमारा ताजा इतिहास हमें सिर्फ इतना बताता है कि कौन सी सरकार कितनी बुरी थी। विश्व ने अपने ताजा इतिहास में इतनी भयानक मंदी कभी नहीं देखी। क्रिसिल के मुताबिक यह मंदी भारत की स्वतंत्रता के बाद चौथी, उदारीकरण के बाद पहली और शायद अब तक की सबसे भयानक मंदी है। जिस अर्थव्यवस्था की विकास दर शून्य से नीचे जा रही हो उसे 20 क्या 40 लाख करोड़ रुपए का सरकारी पैकेज भी स्टार्ट नहीं कर सकता। हां लोग आंकड़ों पर फिदा जरूर हो सकते हैं।
अमेरिका और यूरोप मंदी से बेहतर लड़ पा रहे हैं क्योंकि वहां सरकारें- कंपनियों को नौकरी बनाए रखने के लिए सीधी मदद करती हैं। लेकिन भारतीय कंपनियां कर्ज माफी और टैक्स रियायत मांगती हैं। रियायतें मुनाफे का हिस्सा हो जाती हैं। कुछ मुनाफा राजनैतिक चंदा बन जाता है। इस वक्त जब ध्यान जीविका बचाने पर होना चाहिए था तब रोजगार गंवाने वालों को आत्मनिर्भरता का ज्ञान दे दिया गया। इसके अलावा मध्य वर्ग जिसके खर्च पर भारत के जीडीपी का 60 प्रतिशत हिस्सा आश्रित है, उसकी 2019-20 में खर्च बढ़ने की गति बुरी तरह गिरकर 5.3 प्रतिशत पर आ गई, जो 2018 में 7.4 प्रतिशत थी। मोतीलाल ओसवाल का शोध और बैंकिंग आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2019 के बीच परिवारों पर कुल कर्ज उनकी खर्च योग्य आय के 30 प्रतिशत से बढ़कर 44 प्रतिशत हो गया।
लॉकडाउन के बाद भारत के 84 प्रतिशत परिवारों की आय में कमी आई है। भारतीय अर्थव्यवस्था की एक समस्या बाजार में एकाधिकार भी है जिससे प्रतिस्पर्धा खत्म होती है और गुणवक्ता प्रभावित होती है। अन्य देशों में 15 प्रतिशत बाजार हिस्से वाली कंपनी लीडर हो जाती है, भारत में तो कई कंपनियों के पास बाजार में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा है। कुछ क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार है।
टेलीकॉम बाजार तीन कंपनियों पर आश्रित है और जेट एयरवेज के बाद एविएशन सेक्टर दो निजी कंपनियों के हवाले है। चॉकलेट, मोबाइल से लेकर टैक्सी, ईकॉमर्स, वाहन और कूरियर तक कई उत्पादों और सेवाओं में पूरा बाजार चंद कंपनियों में सिमटा हुआ है। डिजिटल सेवाओं में तो एकाधिकार चरम पर है। 2016 के बाद से कंपनियों के अधिग्रहण और कर्ज में डूबी कंपनियों के बंद होने से बाजार में प्रतिस्पर्धा खेत रही है। 1990 के बाद मिस्र और मेक्सिको में भारत की तरह ही उदारीकरण हुआ लेकिन एक ही दशक में दोनों ही देशों में आर्थिक संकट (मेक्सिको- टकीला संकट और इजिप्ट- विदेशी मुद्रा संकट) का फायदा उठाकर प्रमुख कारोबारों पर सत्ता तंत्र की करीबी निजी कंपनियों ने एकाधिकार कर लिया, परिणामस्वरूप आज दोनों ही देश गरीब हैं।
दूसरी तरफ अमेरिका में नब्बे के दशक के अंत में बबल संकट के बीच अमेरिकी न्याय तंत्र ने माइक्रोसॉफ्ट को इंटरनेट ब्राउजर बाजार में एकाधिकार बनाने से रोक दिया। इससे गूगल क्रोम जैसे ब्राउजर्स के लिए रास्ता खुला और प्रतिस्पर्धा बढ़ने से बाजार ने तरक्की करी। महा-संकट रोजगार पर भी है- एनएसएसओ के मुताबिक 2017-18 में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ज्यादा 6.1 प्रतिशत थी। सीएमआइई के अनुसार फरवरी 2019 में बेरोजगारी दर 8.75 प्रतिशत के रिकॉर्ड ऊंचाई पर आ गई। बीते पांच सालों में, उदारीकरण के बाद पहली बार संगठित और असंगठित क्षेत्रों में एक साथ इतने बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए।
यह जानना हमारे लिए जरूरी है कि भारत में 95.5 प्रतिशत प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की संख्या 5 से कम है। भारत में बेरोजगारी दर देश की औसत विकास दर (7.6 प्रतिशत) के करीब पहुंच गई है। 2014 से पहले के दशक में बेरोजगारी दर 2 प्रतिशत थी जबकि विकास दर 6.1 प्रतिशत। भारत में करीब 44 प्रतिशत लोग खेती में, 39 प्रतिशत छोटे उद्योगों में और 17 प्रतिशत बड़ी कंपनियों या सरकारी रोजगार करते हैं। खेती में मजदूरी कम है। ऐसे में लॉकडाउन के बाद जो रोजगार लौटे वो ज्यादातार श्रम-प्रधान क्षेत्रों (जैसे मनरेगा) से जुड़े हैं, लेकिन उच्च वेतन कि नौकरियों पर गहरा संकट है। निवेश और मांग में बढ़त के चलते 2007 से 2012 के बीच हर साल करीब 75 लाख नए रोजगार बने जो 2012-18 के बीच घटकर 25 लाख सालाना रह गए। किसी भी हालत में 2012 की रोजगार और पगार वृद्धि दर पाने में 5-6 साल लगने की उम्मीद है। इसके अलावा एसबीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का कर्ज जीडीपी के अनुपात में मौजूदा वित्त-वर्ष के अंत में पिछले वित्त-वर्ष के 72.2 प्रतिशत से बढ़कर 87.6 प्रतिशत हो जाएगा। ऐसे हालातों में भी राजनैतिक दल वर्चुअल सम्मलेन कर मस्त हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)