इस दुष्प्रचार से भी आंदोलन नहीं थमा, तब इसको खालिस्तानी और शहरी नक्सली तक बता दिया गया। पंजाब के बाद, हरियाणा, यूपी, एमपी, राजस्थान, महाराष्ट्र से लेकर तमाम राज्यों के किसान जुड़ते जा रहे हैं। दो दर्जन किसान इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं। सरकार प्रायोजित मीडिया हो या भाजपा नेता, सभी एक सुर में इसे बदनाम करने के लिए पाकिस्तानी-चीनी समर्थक आंदोलन बताने से नहीं चूकते। मोदी सरकार के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद जैसे मंत्रियों और नेताओं के जहरबुझे बयान आग में घी का काम करते हैं। प्रसाद ने ट्वीट किया, “आज अगर किसानों के आंदोलन की आड़ में बारत को तोड़ने वाले टुकड़े-टुकड़े लोग पीछे होकर आंदोलन के कंधे से गोली चलाएंगे तो उनके खिलाफ बहुत सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसपर हम कोई समझौता नहीं करेंगे”। यूपी के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ ने टिप्पणी की, “किसानों के कंधों पर बंदूक रखकर भारत की एकता और अखंडता को चुनौती दी जा रही है। योगी सरकार के मंत्री अनिल शर्मा ने कहा, “ये प्रदर्शन करने वाले किसान नहीं, बल्कि गुंडे हैं”। हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर बोले, “केंद्र सरकार के कृषि कानूनों का विरोध राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित हैं और इनका लिंक खालिस्तान से भी है”। एमपी के कृषि मंत्री कमल पटेल ने कहा, “किसान संगठन कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। ये किसान नहीं हैं, बल्कि व्हीलर डीलर और एंटी नेशनल हैं.”। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि यह आंदोलन अब किसानों का नहीं रहा क्योंकि इसमें ‘‘वामपंथी और माओवादी शामिल हो गए हैं’’। केंद्रीय मंत्री रावसाहब दानवे ने किसान आंदोलन के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ बताया है। जब ये जहरबुझी संज्ञायें भी काम नहीं आईं तो कठपुतली किसान नेता और संगठनों से रोज यह दावा होने लगा है कि किसानों में फूट पड़ गई है। किसानों ने इन कानूनों के समर्थन में आंदोलन वापस ले लिया है।
आपको याद होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के जन्मदिन पर कई भाजपा नेताओं उन पर अभद्र टिप्पणी करते हुए उन्हें बार बाला तक कह दिया था। झूठ साबित करने के लिए फोटोशॉप से बनाई एक फोटो वायरल कर दी थी। यह सच है कि सोनिया गांधी के परिवार का एक रेस्टोरेंट कम बार था मगर उनका उसमें कोई सक्रिय संबंध नहीं था। आपको राहुल गांधी को पप्पू बनाने के लिए चलाई गई मुहिम भी याद होगी, कि कैसे उनके बयानों को काट-छांटकर उन्हें अपरिपक्य-अज्ञानी साबित किया जाता रहा है। कैंब्रिज और हार्वर्ड जैसे दुनिया के श्रेष्ठतम संस्थानों के इस मेधावी छात्र को जब दुष्प्रचार ने पप्पू बना दिया तो किसान आंदोलन क्या चीज है। मोदी सरकार के इन तीन कानूनों को जबरन पास करवाये जाने से सरकार और कारपोरेट के भारी मुनाफे के संबंध उजागर हो चुके हैं। विरोधी दल के नेताओं के चरित्र और संबंधों को विभिन्न तरीके से विकृत किये जाने का क्रम चल रहा है। किसी को पाकिस्तानी तो किसी को चीनी एजेंट बता दिया जाता है। यही खेल किसानों के आंदोलन में भी खेला जा रहा है। सच और झूठ के बीच सजगता से फ़र्क़ करना, तथ्यों के प्रति इंसान की संवेदनशीलता को दर्शाता है। समस्या यह है कि अगर व्यक्ति पूर्वग्रह, नफ़रत और कट्टरपंथी विचारधारा से ग्रस्त हो, तो उसके लिए सच और झूठ दोनों ही कोई मायने नहीं रखते। उसके लिए तो वो सच है, जो उसे लगता है और वो झूठ है जो उसे लगता है कि ये झूठ है।
हमारा देश इस वक्त गंभीर संकटों से गुजर रहा है। पहली बार न जनता की सुनी जा रही है और न संवैधानिक तरीके से चुने गये विपक्षी नेताओं की। सरकारी नौकर लोकतंत्र को कुछ ज्यादा बताकर उसे बोझ सिद्ध कर रहे हैं। व्यापार-व्यवसाय चौपट होने से आत्महत्यायें तेजी से बढ़ी हैं। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। अर्थव्यवस्था बुरे दौर में है। सिर्फ सरकार के करीबी ही मुनाफा कमा रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां कबाड़ की तरह बेची जा रही हैं। जांच एजेंसियां से लेकर अदालत तक सभी सरकार की ढाल बनकर खड़े हैं, किसी को संविधान और कानून से कोई वास्ता नहीं। इस सुशासन के दौर में सिर्फ कृषि क्षेत्र ही है, जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभा रहा है। इन कानूनों को लादकर बदहाली से समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ रहे किसान को गुलाम बनाने की तैयारी कर ली गई है। दुष्प्रचार को हथियार बनाया जा रहा है। किसान को भ्रमित बताकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा रही है। वजह, अनाज भंडारण और निर्यात के धंधे में एक हजार फीसदी से अधिक का मुनाफा जो है। लोकतंत्र में जनता अपने मत के जरिए किसी को सत्ता इसलिए सौंपती है कि वह उनके अनुकूल और उनके हित में फैसले लेगा। अगर वही उनका ही नाश करने लगे, तो फिर लोकतांत्रिक सरकार का अस्तित्व खत्म समझिये। कहावत है “जब बाड़ ही खेत खाने लगे तो फसल बेचारी कहां जाये”। आज वही होता दिख रहा है। सरकार में बैठे हमारे नुमाइंदे समस्या का समाधान करने के बजाय जिद पर अड़े हैं। वह अंग्रेजी हुकूमत की तरह फूट डालो राज करो की नीति अपना रहे हैं।
सरकार ने संवैधानिक व्यवस्था के तहत होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र को भी कोविड महामारी का बहाना लेकर रद्द कर दिया, जबकि स्वस्थ मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि अब कोविड सिर्फ 9 फीसदी बचा है। जब कोविड चरम पर था, तब सत्र भी हुए और चुनाव भी, मगर सवालों से बचने के लिए संसद सत्र से डर रहे हैं। जनता जवाबदेही के साथ समस्याओं का समाधान खोजने के लिए ही सत्ता सौंपती है, न कि झूठ, नफरत और बंटवारे के लिए। अगर सद्हृदय से ये कानून बनाये गये हैं, तो किसानों की मांग के अनुरूप सत्र बुलाकर उसमें बदलाव किया जाये। लिखित या मौखिक आश्वासन की बात बेमानी है। समाधान कानूनी होना चाहिए, न कि सिर्फ बातों का। सत्तानशीं अगर यूं ही जिद पर अड़े रहे तो तय है कि यह आंदोलन भारत की एकता-अखंडता के लिए खतरा बन जाएगा। इसका भुगतान हम सभी को करना पड़ेगा।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)
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