लखीमपुर निवासी रघुराज प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं। दस साल पहले रघुराज पर घर वालों का जबर्दस्त दबाव था। सब चाहते थे कि दो बेटियों के बाद वह तीसरा बच्चा जरूर पैदा करें। उन्होंने परिवार नियोजन को अंगीकार किया और दो बच्चों के बाद विराम की नीति अपनाई। चार साल पहले वे चालीस के हुए तो सरकार ने उनके इस फैसले का सम्मान किया और उन्हें स्वैच्छिक परिवार कल्याण प्रोत्साहन भत्ते के रूप में 450 रुपए प्रति माह देना शुरू किया।
इस महीने एक सुबह वे सो कर उठे तो सरकार उनसे यह भत्ता छीन चुकी थी। रघुराज ने अपनी व्यथा आर्डनेंस फैक्ट्री में काम करने वाले सहयोगी अजीत को बताई तो वे बोले, आपका तो बस भत्ता छिना है, हमारी तो नौकरी जाने की नौबत आ गई है। रक्षा प्रतिष्ठानों के निजीकरण के भय से वहां के कर्मचारियों को नौकरी जाने की चिंता सता रही है। अब वे लोग यही गुहार कर रहे हैं कि मंदी के इस दौर में लगी-लगाई नौकरी तो न छीनिये हुजूर!
आर्थिक मंदी के इस दौर में वित्त मंत्री की कोशिशों व शेयर-बाजार के घटते-बढ़ते रूप के बावजूद आम आदमी अपने रोजगार को लेकर सबसे ज्यादा परेशान है। कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने से खुश देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की गलबहियां देखकर कुछ पल के लिए उत्साहित तो हो जाता है किन्तु अंत में उसे अपने बच्चे की फीस के साथ सप्ताह में एक दिन भी पनीर न खा पाने का दर्द याद आता है। इस समय सरकारें नौकरियों के साथ वेतन-भत्तों में कटौती की राह भी निकाल रही हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य कर्मचारियों को दिए जाने वाले छह भत्ते एकाएक बंद कर दिए। इनमें परिवार कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिए दिया जाने वाला स्वैच्छिक परिवार कल्याण प्रोत्साहन भत्ता भी शामिल है।
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से परिवार कल्याण पर जोर देते हैं, दूसरी ओर सरकारें ऐसे भत्ते बंद कर कर्मचारियों का मनोबल गिराने का काम करती हैं। इन स्थितियों में उनमें असंतोष होना स्वाभाविक है। कर्मचारी राजनेताओं व कर्मचारियों के बीच समभाव न होने की बात भी उठा रहे हैं। सरकारों में शामिल सांसद-विधायक खुद के लिए पुरानी पेंशन बहाल किए हुए हैं, किन्तु कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन रोक दी गई है। जब सरकारें विधानसभा से लोकसभा तक नई पेंशन की खूबियां गिनाती हैं तो कर्मचारियों की यह मांग स्वाभाविक है कि विधायक-सांसद अपने लिए इस नई पेंशन को स्वीकार क्यो नहीं करते? दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि कर्मचारियों की ये मांगें किसी राजनीतिक दल के लिए मुद्दा नहीं बन पा रही हैं।
पिछले कुछ महीनों से बेरोजगारी का संकट तो बढ़ता नजर ही आ रहा है, उससे बड़ी समस्या पुराने रोजगार समाप्त होने के रूप में सामने आ रही है। दुनिया का सबसे युवा देश होने का दंभ भरने वाले भारत के सामने इस समय बेरोजगार युवा ही सबसे बड़ी चुनौती है। दरअसल भारत में 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम आयु वर्ग की है। इन्हें रोजगार की सर्वाधिक आवश्यकता है। इनके लिए रोजगार के अवसर सृजित न होने के मतलब है इस ऊर्जावान आबादी का खाली बैठना, दिग्भ्रमित होना और परिणाम स्वरूप नशे व अपराध में वृद्धि होना। इस समय की सबसे बड़ी चिंता व चुनौती भी यही है।
इसके अलावा चालीस से अधिक आयु वर्ग के वे लोग भी बेरोजगारी की जद में आ रहे हैं, जिनके बच्चे अभी पढ़ाई-लिखाई की दौड़ में हैं और उनके लिए रोजगार सांस लेने जैसी जरूरत है। आटो सेक्टर में लाखों नौकरियां जा चुकी हैं, एफएमसीजी सेक्टर में लाखों नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों का निजीकरण कर उन कर्मचारियों की नौकरी खतरे में है। हाल ही में टेक्सटाइल सेक्टर ने भी 25 लाख तक रोजगार कम होने का दावा किया गया है। रोजगार के अवसर कम होने के साथ ही उच्च शिक्षा के प्रति रुझान भी कम हो रहा है।
कुछ वर्ष पूर्व पूरे देश में तेजी के साथ खुले इंजीनियिरंग व प्रबंधन कॉलेज उतनी ही तेजी से बंद हो रहे हैं। दरअसल इन कॉलेजों से उत्तीर्ण होकर निकलने वाले विद्यार्थियों को अपेक्षित रोजगार के अवसर ही नहीं उपलब्ध हो रहे हैं। अवसरों का यह चतुर्दिक संकट देश के लिए किसी भी तरह से सकारात्मक नहीं है। लोग डर रहे हैं। अब तो नई नौकरी मिलने की जगह पुरानी बची रहने का ही संकट सामने है। ऐसे में सरकारों को भी सकारात्मक ब्लूप्रिंट के साथ जनता के सामने आना होगा।
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