देश में इस वक्त लोकतंत्र के चोले में भीड़ तंत्र हावी हो रहा है। तमाम फैसले भीड़ के लिए हो रहे हैं, लोक के लिए नहीं। भीड़ में जो घटित हो रहा है वह वैश्विक जगत में देश की बदनामी का कारक बन रहा है। गुरुवार को लंदन में संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए खत्म करने का विरोध हो रहा था। भारतीय उच्चायोग के सामने भीड़ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो पर कालिख पोतकर नारेबाजी कर रही थी। असल में यह विरोध एक तरह से भारत विरोधी मोर्चा था। कश्मीरियों के साथ पाकिस्तानी, खालिस्तानी समर्थक भी शामिल थे।
विरोध के हालात तब पैदा हुए, जब कुछ अतिवादियों की भीड़ ने कश्मीर पर सरकार के फैसले को लेकर विजय जुलूस निकालने की कोशिश की। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता है। कश्मीर के हित में फैसले लेने का अधिकार भी सिर्फ भारत को ही है। पाकिस्तान की शिकायत पर शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर के विखंडन पर चर्चा हुई, तो भारत का तर्क था कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। कश्मीर भारत की जिम्मेदारी है, न कि अंतरराष्ट्रीय। कश्मीर को लेकर हुए संवैधानिक संशोधन पर कुछ सवालिया निशान हैं, जिन्हें लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ माना जा रहा है मगर इसका कतई यह मतलब नहीं है कि फैसला गलत है। अगर यह फैसला जम्मू-कश्मीर की आवाम से संवाद स्थापित करके किया जाता तो शायद वहां की जनता और उनके नेताओं को कैद न करना पड़ता। कश्मीरी भी भारत के नागरिक होने का जश्न मनाते मगर ऐसा नहीं हो सका। भीड़तंत्र ने इस फैसले को ऐसे प्रस्तुत किया जैसे कश्मीर को पाकिस्तान से जीत लिया गया हो।
पुलवामा में ग्रेटर कश्मीर अखबार के पत्रकार इरफान अमीन मलिक को उनके घर से हिरासत में ले लिया गया। उन पर आरोप लगा कि वह केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ लिख रहे हैं। भारतीय संविधान में हमने जितना पढ़ा है, उसके मुताबिक किसी भी नागरिक को अभिव्यक्तिका पूर्ण अधिकार है। लोकतंत्र की यह सबसे पवित्र व्यवस्था है। आवाम का जिस मुद्दे पर विरोध हो, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही कारण है कि व्यवस्था बदलाव बंदूकों के साये में लोगों को घरों में कैद करना पड़ा। 15 अगस्त 1947 को हमें राजतंत्र और ब्रितानी हुकूमत से भी आजादी दिलाने वाली थी। यह आजादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों के तहत हमें स्वयं पर सत्ता दिलाने को मिली थी मगर कश्मीर में जो हुआ, वह भीड़तंत्र के लिए लोक लुभावनी घटना अधिक बन गई है।
नतीजतन पड़ोसी देश हमें विश्व भर में बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि वो सफल नहीं हो पा रहे मगर उनकी नियत हमारी समृद्धि को नष्ट करने जैसी लगती है। उसको तब अपने अभियान में बल मिलता है, जब हमारे देश की भीड़ किसी वर्ग और क्षेत्र विशेष के लोगों के प्रति घृणा का आचरण दिखती है। यह आचरण बदनामी के साथ ही संकट पैदा करता है।चार साल पहले राजस्थान की सीमा पर अल्पसंख्यक समुदाय के पहलू खान की बेवजह पीट-पीट कर भीड़ ने हत्या कर दी थी। भीड़ को यह कहकर उकसाया गया था कि पहलू खान काटने के लिए गाय ले जा रहा है जबकि वह पालने के लिए गाय खरीदकर ले जा रहा था। इस मामले में तमाम सबूतों के होते हुए भी भीड़ की मर्जी के मुताबिक अदालत से आरोपी बरी हो गए। भीड़ ने इस जीत पर विजय जुलूस निकाला। अदालत ने अपने आदेश में लिखा कि पर्याप्त सबूत उनके समक्ष नहीं लाए गए।
देश की सर्वोच्च अदालत भी हिंसक होती भीड़ को लेकर सवाल खड़े कर चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार सहित सभी राज्यों को इस बारे में कानून बनाने का निर्देश दिया, बावजूद इसके कोई गंभीर नहीं दिखा राजस्थान सरकार ने अपने राज्य में भीड़ की हिंसा पर सजा का प्रावधान करते हुए कानून बनाया है। बीते कुछ सालों में घृणा और हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। यह सब एक समुदाय को टारगेट करके किया गया, जिससे भीड़ और भी अराजक हुई। सत्ता प्रतिष्ठान भीड़ के दबाव में दिखे। इन घटनाओं को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने काफी गंभीरता से लिया। जो हमारे देश की क्षवि को आघात साबित हो रहा है। हमारी संस्कृति, सहिष्णुता और सद्भाव की रही है। हमारे बुजुर्गों ने सबको साथ लेकर चलने की नियत से ही अपने मूल वैदिक धर्म को सनातन धर्म बना दिया था। कालांतर उन्होंने पूरे हिंदुस्तान को जोड़ने की मंशा से इसे हिंदू धर्म का नाम दे दिया।
हमारी यही सोच हमें विश्व गुरु बनाती थी। हमारी धर्म-संस्कृति पर हजारों हमले हुए मगर हमको कोई तोड़ नहीं पाया। धर्म का लचीलापन और भीड़ के दबाव में न आने की नीति ने हमें सबसे ऊपर खड़ा कर दिया। निश्चित रूप से लोकतंत्र का स्वरूप बिगड़े तो उसको भीड़तंत्र बनने से नहीं बचाया जा सकता है। सरकार को भीड़ की मनोभावना से नहीं बल्कि सद्भाव की नियत से फैसले लेने चाहिए। अच्छी बात यह रही कि पहलू खान की हत्या के मामले में अपर जिला जज की अदालत के फैसले के बाद राजस्थान सरकार ने विशेष जांच टीम (एसआईटी) बनाकर मामले की तह तक जांच करने का आदेश दिया है। शायद इस निर्णय से उन लोगों को राहत मिले जो पीड़ित हैं और भीड़ के आगे शिकार की तरह खड़े हैं। यह भी देखने को मिल रहा है कि लोकतंत्र एक विचारधारा की सोच और सदन में उसके बहुमत के आधार पर चल रहा है। उनकी सोच के अनुसार संविधान में रातोंरात बदलाव हो जाता है और कानून बना दिए जाते हैं। वे लोग एक भीड़तंत्र हैं, जो उनकी विचारधारा का विरोध करने वालों का गला घोटने पर यकीन रखते हैं। आजादी के 72 साल पूरे होने पर अगर हमारी उपलब्धि लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी होना है, तो यह दुखद है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता और फैसले तर्क, तथ्यों और संविधान की स्थापित परंपराओं के आधार पर होने चाहिए न कि भीड़ के दबाव में। हम लोकतांत्रिक देश मात्र नहीं हैं बल्कि गणराज्य हैं। हमारे गणराज्य में शामिल सभी राज्यों की अपनी खूबियां और प्राकृतिक-सांस्कृतिक धरोहरे हैं। हमें उनको संरक्षण देते हुए सभी के हित में फैसले लेने चाहिए। जिस राज्य के बारे में फैसले किए जाएं, वहां की जनता से उसकी सहमति लेना भी जरूरी है। सिर्फ कहने से न राष्ट्र बनता है और न राष्ट्र की भावना। इसी तरह लोकतंत्र भी तभी स्थापित होता है, जब सबकी खुशियां उसमें शामिल हों। वैसे भी हिंदुत्व का मूल मंत्र सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय है। जब हम सबकी राय लेते हैं, तो विरोध के स्वर कम होते जाते हैं। किसी भी मुद्दे या फैसले पर चर्चा समीक्षा होनी चाहिए न कि सिर्फ विरोध। सभी अपनी बात रख सकें और तथ्यों तर्कों पर फैसले लिए जाएं, जो लोकहित में हों, न की भीड़ हित में, क्योंकि भीड़ में जाहिल, गंवार अधिक होते हैं, समझदार-विद्वान कम।
जयहिंद
ajay.shukla@itvnetwork.com
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)
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