काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए महामना मदन मोहन मालवीय जब हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान की प्रभावी आर्थिक मदद स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि सौ साल बाद इसी विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति पर बवाल होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय के संस्थापक सरसैयद अहमद खान व जामिया मिलिया इस्लामिया अली ब्रदर्स ने भी धर्म को आधार बनाकर इन संस्थानों में चल रहे हिंसक आंदोलनों की कल्पना नहीं की होगी। किसी भी देश व समाज के लिए सौ वर्ष सकारात्मक परिवर्तन के साक्षी बनने चाहिए, किन्तु जिस तरह इन संस्थानों को धर्म के आधार पर बांटा जा रहा है, उससे सर्वाधिक निराश इनके संस्थापक होंगे। वे कभी नहीं चाहते होंगे कि इन शिक्षण संस्थानों को धर्म का अखाड़ा बनाया जाए।
देश इस समय धर्म की आग में जल रहा है। इस आग को जलाने वाले कौन हैं इसको लेकर तो सड़क से संसद तक चर्चा हो चुकी है, किन्तु संसद से भड़की आग सड़कों पर तेजी से फैलती जरूर नजर आ रही है। इस समय समस्या सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहा बवाल नहीं है। असल समस्या वैचारिक धरातल पर हिन्दू बनाम मुसलमान के भाव का व्यापक जागरण है। बहुत वर्षों तक राम जन्म भूमि के मसले पर हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई चौड़ी करने वाले सभी पक्ष इस मसले का सुप्रीम समाधान हो जाने के बाद एक बार फिर कभी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति की आड़ में तो कभी नागरिकता संशोधन कानून की आड़ में अपने एजेंडे पर काम करने ही लग जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इस बार देश के शीर्ष शिक्षण संस्थान इन विभाजनकारी तत्वों के षडयंत्र का हिस्सा बन चुके हैं। इन शिक्षण संस्थान में हिन्दू, मुस्लिम या इस्लाम जुड़े होने मात्र से वे किसी धर्म विशेष का पर्याय नहीं बनने चाहिए, किन्तु इस समय ऐसा होता ही दिख रहा है। यह स्थिति निराशाजनक है और इन संस्थानों के संस्थापकों के मूल विचार से पूर्णतया भिन्न भी है।
महामना मदन मोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय इस स्वरूप की कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन चयन के पश्चात परिसर की सड़कों पर महज इसलिए किसी शिक्षक की नियुक्ति का विरोध होगा क्योंकि वह मुसलमान है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में उन्होंने न सिर्फ एनी बेसेंट का सहयोग स्वीकारा था, बल्कि हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान से दस लाख रुपए का दान भी स्वीकार किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सर संघ चालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर गुरुजीद्ध ने पढ़ाई कीए तो प्रसिद्ध इतिहासकार व पुरातत्वविद अहमद हसन दानी भी यहीं से निकले। इन सबके बावजूद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दू-मुसलमान बहस के ग्वापा सर्वधर्म सद्भाव के पैरोकार महामना के स्वप्न के साथ हुआ खिलवाड़ मूलत: हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ यूं तो देश के कई हिस्सों में आंदोलन चल रहा है किन्तु जिस तरह जामिया मिलिया इस्लामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय शैक्षिक क्षेत्र में इस आंदोलन के चेहरे बनकर उभरे हैं, यह स्थिति चिंताजनक है। जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक अली ब्रदर्स यानी मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली ने जिस तरह से इस संस्थान के विकास का स्वप्न देखा थाए उसमें महज इस्लामपरस्ती की बात तो नहीं थी। जामिया में उग्र आंदोलन के बाद पुलिस का तौर-तरीका किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता, किन्तु जामिया के छात्रों द्वारा जिस तरह इस्लाम के नाम पर नारेबाजी हुई वह भी ठीक नहीं है। अपने पूर्व छात्रों की फेहरिश्त में शाहरुख खान से लेकर वीरेंद्र सहवाग तक के नाम सहेजे जामिया को महज इस्लाम का पैरोकार साबित करने की कोशिशें दुखी करने वाली हैं। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान ने अंग्रेजों द्वारा रियासत संभालने के लालच को ठुकराकर शिक्षा की अलख जगाई थी किन्तु अब उनके सपनों की इमारत बार-बार हिन्दू बनाम मुस्लिम विचार का केंद्र बन जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़े रहे लोगों में भारत रत्न डॉ. जाकिर हुसैन व खान अब्दुल गफ्फार खान के नाम लिये जाते हैं तो पद्मभूषण डॉ. अशोक सेठ व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस आरपी सेठी भी यहीं की देन हैं। जिस विश्वविद्यालय को हिन्दू मुस्लिम एकता की पहचान बनना चाहिएए वह मुस्लिमों के नाम पर आंदोलन के लिए चर्चा में रहता है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हो या जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इन सभी के नाम में धर्म जुड़े होने मात्र से ये किसी धर्म विशेष के परिचायक नहीं हो जाते। इन पर सभी धर्मों का समान अधिकार है। ऐसे में बुद्धिजीवियों विशेषकर छात्र-छात्राओं को उन छद्म धार्मिक ठेकेदारों से सावधान रहना चाहिए जो इन विश्वविद्यालयों के नाम में जुड़े धर्म के आधार पर उन्हें बांटने की कोशिश कर रहे हैं। इन सभी विश्वविद्यालयों की अपनी अलग राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान है। धर्म के नाम पर बंटवारा हुआ तो ये अपनी मूल पहचान खो देंगे। इससे टूट जाएगा इनके संस्थापकों का सपना। जिसे बचाने की जिम्मेदारी सबसे अधिक इन विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं की है कि वे किसी के छलावे में न आएं। शिक्षा के ये धर्मस्थल बचेंगेए तभी असली विकास हो सकेगा। ऐसा न हुआ तो समाज व देश का पूरा ताना-बाना ही बिखर जाएगा।
डॉ. संजीव मिश्र
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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