चंद दिन पहले हम अपने एक संपादक मित्र से मिले। उन्होंने हमसे सत्ता के कुछ फैसलों को लेकर चर्चा करते हुए कहा कि 70 साल में इस तरह हिम्मत कोई नहीं दिखा सका। हमने उनकी पूरी बात सुनी। हमारे साथ सत्ता की विचारधारा वाले दो मित्र भी थे, वे उनकी बातों से बेहद खुश हुए। बाद में, मित्र संपादक ने हमें फोन पर कहा कि आपने चुपचाप सब सुन लिया, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हमने कहा, आपके विचार और भावनाओं को सुनना और समझना भी जरूरी था। प्रतिक्रिया गुणदोष के आधार पर दी जाती है, न कि दूसरे की आवाज को दबाने के लिए। बिल्कुल यही तो लोकतंत्र स्थापित करने वालों ने भी सोचा था। उन्होंने दूसरों या विरोधी विचारधारा के लोगों का गला घोटकर, अपनी आवाज बुलंद करना नहीं सिखाया था। बुधवार को बिहार विधानसभा में जो हुआ, वह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक घटना है। विश्व में जहां भी लोकतंत्र है, उसमें नागरिकों के प्रतिनिधि इसी कारण चुनकर विधानसभा और संसद में भेजे जाते हैं, जिससे वे सदन में अपने क्षेत्र के नागरिकों की आवाज बन सकें। अगर कोई व्यवस्था, उन्हें ऐसा करने से रोकती है, तो स्पष्ट है कि वहां लोकतंत्र की आत्मा को मारा जा रहा है। हम विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य होने का दम भरते हैं मगर जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।

आपको याद होगा, हाल ही में अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भानू प्रताप मेहता ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। वजह, उनका सार्वजनिक लेखन स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों और सभी नागरिकों के लिए भले ही समान सम्मान का प्रयास हो मगर सत्ता के लिए मुफीद नहीं था। उच्च शैक्षिक संस्थान सिर्फ किताबी ज्ञान के लिए नहीं होते हैं बल्कि वे विचारों, वाद-विवाद और तमाम अनछुये पहलुओं पर चर्चा के लिए भी होते हैं। जिससे हम समाज को श्रेष्ठ भावी पीढ़ी दे सकें। हालात यह हो गये हैं कि तमाम बड़े शैक्षिक संस्थानों में स्वतंत्र चर्चाएं बंद हो गई हैं। समस्या पर मंथन नहीं बल्कि एक विचारधारा को मन-मस्तिष्क में ठूंसकर भर देना ही शिक्षा संस्कार बन गया है। ऐसा होना, विश्वगुरू बनने की सोच रखने वाले देश का भविष्य का संक्रीण होना है। ऐसे लोग राममंदिर बनाने की राह आसान करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत इसलिए नहीं करता कि इससे एक सांप्रदायिक विवाद खत्म हुआ, बल्कि इसलिए करता है कि उसमें उसे अपने धर्म की जीत नजर आती है। वह जम्मू-कश्मीर के विशेषाधिकार के अनुच्छेद 370 को खत्म करके, दो केंद्र शासित सूबे बना देने का इसलिए समर्थन करता है, क्योंकि उसे इसमें धार्मिक वर्चस्व दिखता है। लोकतंत्र के साथ हुए बलात्कार को वह नहीं देखता है। धार्मिक गुंडे जब ट्रेन से सेवा करने वाली ननों को उतारकर प्रताड़ित करते हैं, तो पुलिस भी उनकी सहयोगी बन जाती है, मगर इस घिनौनी घटना पर देश नहीं उबलता है, क्योंकि संक्रीण विचारधारा ने लोगों ने मन-मस्तिष्क में जहर भर दिया है।

हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था “मैं आपका प्रधानमंत्री हूं, इसका मतलब यह कभी नहीं कि मैं आपका राजा या शासक हूं। वास्तव में मैं आपका सेवक हूं। जब आप मुझे मेरे कर्तव्यों में असफल होते देखते हैं, तो यह आपका कर्तव्य होगा कि आप मेरा कान पकड़ो और मुझे कुर्सी से उतार दो”। यही लोकतंत्र की आत्मा है। पंडित नेहरू न तो भारी सुरक्षा घेरे में रहते थे और न ही आमजन के बीच पहुंचने में घबराते थे। उनके दरवाजे आम लोगों के लिए खुले रहते थे। वह विरोधी स्वरों का स्वागत करते थे, जिससे तमाम युवाओं को भी नेता बनने का मौका मिला। आपको पता होगा, जब यूरोप में समाजवाद और रूसी क्रांति का दौर था। उस वक्त दो विचारधाराएं काम कर रही थीं, एक रूढ़िवादी, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ थी और दूसरी उदारवादी, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहती थी। उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे, जिसमें सभी धर्मों और लिंगों को बराबरी के साथ सम्मान और स्थान मिले। वे चाहते थे कि शासकों और अफसरशाही से मुक्त स्वतंत्र न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका बने। सभी संस्थायें बेखौफ अपने कार्य लोकहित और न्याय के लिए करें। फ्रांस की क्रांति के बाद रूढ़िवादियों को भी समझ में आया था कि सिर्फ बहुमत को ही सभी अधिकार देना समाज को जहरीला बनाना होगा, इसलिए सत्ता सर्वजन हिताय की होनी चाहिए। अल्पसंख्यकों के अधिकारों से किसी को भी खेलने का हक नहीं दिया जा सकता। इसी में लोकतंत्र की आत्मा है।

हम ऐसे वक्त में हैं, जहां सत्ता के लिए हर तिकड़म अपनाई जाती हैं। ऐसा करने वाले को चाणक्य कहकर महिमामंडित किया जाता है। यह सच है कि चाणक्य की कूटनीति और कुटिलता से एक बड़ी सत्ता स्थापित हुई थी, मगर उन्होंने सत्ता के लिए अनैतिक अथवा जन अहित करने वाले तरीके नहीं अपनाये थे। समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है, उसी तरह आचार्य चाणक्य को यूरोपीय विद्वान भारत का मैकियावेली कहते हैं। कुछ लोग मानते है कि पंडित नेहरू भी इन्हीं विद्वानों से प्रभावित थे। हालांकि, उन्होंने मैकियावेली का मजाक उड़ाते हुए लिखा था, कि वह ऐनकेन प्रकारेण किसी भी कीमत पर सत्ता पाने वाला, धूर्त राजा का समर्थक है। इस समय हम देख रहे हैं कि सत्ता के लिए वही सब हो रहा है, जो अनैतिक और अहितकर है। हम पिछले कुछ चुनावों में देख चुके हैं कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग, किस तरह जहरीली और स्तरहीन शब्दावली का प्रयोग चुनाव जीतने के लिए करते हैं। जीतने का नशा इस हद तक चढ़ा है कि संसद हो या विधानसभा अथवा चुनाव का मैदान, सभी स्थानों पर ऐनकेन प्रकारेण जीत हासिल करने के लिए सभी अनैतिक तरीके अपनाये जा रहे हैं। दूसरे दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले खुद सत्ता हासिल करने के लिए परिवारवाद को चरम तक प्राश्रय दे रहे हैं। लोकतंत्र की आत्मा को मारने की इस सियासत ने देशवासियों में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी है।

हमें याद है, जब कानूनी पेंचीदगियों और सत्ता का लाभ उठाकर जम्मू कश्मीर के विशेषाधाकिरा वाला अनुच्छेद 370 हटाया गया, तब अरविंद केजरीवाल नीत आम आदमी पार्टी ने तालियां बजाईं थीं। सीएए-एनआरसी के वक्त वह केंद्र की मोदी सरकार की हां में हां मिला रहे थे। जब दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए, तब वह वोट बैंक के तुष्टीकरण के लिए खामोश तमाशाई बने रहे। जब केंद्र सरकार ने कृषि कानून पास किये तो दिल्ली सरकार ने उन्हें तत्काल लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी थी, मगर जब दिल्ली सरकार के अधिकार उपराज्यपाल में निहित करने का विधेयक लाया गया, तब वह छाती पीटने लगे। यही सत्ता की भूख है। जब तक दूसरों को दर्द देकर भी केजरीवाल को फायदा हो रहा था, तो वह खुश थे, मगर जब उन्हें अपना वजूद खतरे में लगा, तब उनके लोकतंत्र की आत्मा जाग उठी। 

हमें समझना होगा कि लोकतंत्र की आत्मा एक संत की तरह होती है, जो हर किसी को समान रूप से न सिर्फ अधिकार बल्कि सभी को सुख देने के लिए सोचता है। जब ऐसा नहीं होता है, या अकेले ही सत्ता का सुख भोगने की प्रवृत्ति पैदा होती है, तो लोकतंत्र रूपी संत की आत्मा दृवित होती है। धीरे-धीरे वह मरने लगती है। हमें इस पर गंभीरता से सोचना होगा और उस संत को बचाना होगा।

जय हिंद!

(लेखक प्रधान संपादक हैं।)

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