आदिवासी इलाकों के साथ दूसरे क्षेत्रों में जल, जंगल और जमीन बचाने का सरकारों का नजरिया कितना सकारात्मक है यह कहना मुश्किल है। विकास और पर्यावरण संरक्षण पर सरकारों की चिंता सार्वभौमिक नहीं है। पर्यावरण संरक्षण का मसला सिर्फ मंचीय बन कर रह गया है। इस पर जुमलेबाजी होती है। विकास की आड़ में आदिवासीहितों की अनदेखी की जाती है। जल, जंगल और जमीन के संरक्षण पर घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। अगर ऐसा न होता तो महाराष्ट्र के आरे कालोनी में हजारों पेड़ धराशायी न किए जाते। आरे कालोनी हरित क्षेत्र है। यहां का पूरा इलाका हरे भरे जंगलों से आच्छादित है। कभी यह क्षेत्र दुग्ध उत्पादन केंद्र के रुप में विकसित किया गया था। लेकिन मेट्रो रेल परियोजना के लिए यहां की हरियाली को निगला जा रहा है।
सुप्रीमकोर्ट की तरफ से जंगलों के कटान पर प्रतिबंध लगने से पहले हजारों पेड़ों को धराशायी कर दिया गया। जबकि आरे को जंगल मानने से ही इनकार कर दिया गया। लेकिन उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कटान पर पतिबंध लगाना पड़ा। अदालत ने एक पत्र को ही जनहित याचिका का आधार बना कर पेड़ों की कटान पर प्रतिबंध लगाया। अहम सवाल है जब वहां के स्थानीय लोग मेट्रो स्टेशन के कारशेड के लिए तैयार नहीं हैं तो, इसकी क्या आवश्यकता है। विकास को आगे कर कैसा तर्क गढ़ा जा रहा है। कहा गया है कि मेट्रो रेल से जोड़ने पर मुंबई की दूरी काफी कम हो जाएगी। मुंबइ जैसे शहर के लिए दूरी कोई मायने नहीं रखती है। 70 सालों तक लोग कैसे आते-जाते रहे हैं। क्या सिर्फ आदिवासी इलाकों को उजाड़ कर ही विकास संभव है।
सत्ता में आने के बाद सरकारों का नजरिया बदल जाता है। महाराष्ट्र सरकार में सत्ता की भागीदार शिवसेना पेड़ों की कटान पर विरोध कर रही है। लेकिन क्या उसका विरोध जायज है। जबकि महानगर पालिका की कमान शिवसेना के हाथ में है। मनपा की स्वीकृति के बाद ही मेट्रो रेल परियोजना का विकास किया जा रहा है। शिवसेना फिर विकास पर दोहरा नजरिया क्यों रखती है। सेना अगर इस पर संवेदनशील है तो उसे खुल कर सामने आना चाहिए और फड़नवीस सरकार के विरोध में मोर्चा खोलना चाहिए। लेकिन जमीनी सच्चाई है कि राज्य में चुनाव का मौसम है। जिसकी वजह से शिवसेना राजनीति का दोहरा अभिनय कर रही है। पर्यावरण को लेकर सरकारें खूब ढ़ोंग रचती हैं, लेकिन आरे की विकासवादी नीति यह साबित करती है कि यह सब दिखावा है।
मुंबई हाइकोर्ट को इसे गंभीरता से लेना चाहिए था, लेकिन अदालत की तरफ से निर्दोष पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। अगर समय पर रोक लगा दी जाती तो हजारों पेड़ों की सरकारी हत्या न होती। जबकि मामला एनजीटी और सुप्रीमकोर्ट में विचाराधानी था। जब तक संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से संवेदनशील मसले पर फैसला नहीं आ जाता तब तक पेड़ों की कटाई नहीं होनी चाहिए थी। पेड़ों की कटाई क्यों की गई इसका जबाब फड़नवीस सरकार के पास नहीं है। सरकार चाहती है कि किसी तरह कानूनी संरक्षण का लाभ उठा कर जंगलों को साफ कर दिया जाय। क्योंकि इस समय राज्य में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं सरकार को डर है कि विरोधी इसका लाभ उठा सकते हैं। जिसकी वजह से सरकार आरे को चुनावी मसला नहीं बनने देना चाहती।
राज्य और केंद्र सरकारें कानून बनाती हैं और उसे ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। आम लोगों से जल, जंगल और जमीन बचाने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन सरकारें और प्रशासनिक तंत्र खुद कितना गंभीर है यह बड़ा सवाल है। सरकारों की नीति में पर्यावरण गौंण मसला बन गया है जबकि विकास आगे है। जिसकी वजह से जंगलों का सफाया किया जा रहा है। आदिवासी इलाकों में आम लोगों की पहुंच उनकी शांति को भंग करती है। पहाड़ों में लंबी चौड़ी सड़कों की वजह से बरसात में हर साल उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
भौगोलिक परिस्थतियों की वजह से पारिस्थितिकी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है। बरसात में पहाड़ों की दरकने से लाखों पेड़ स्वाहा हो रहे हैं। सड़क, बांध निर्माण के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ किया जार रहा है। जिसका नतीजा है कि पूरा भारत बाढ़ और सूखे से परेशान हैं जबकि सरकारें चैन की बंशी बजा रही हैं। बिहार के साथ केरल, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और पहाड़ी राज्यों उत्तरांचल, हिमाचल की तस्वीर देखी जा सकती है। सैकड़ों सालों से आदिवासी जल, जंगल और जमींन सुरक्षित रखने की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकारें कानून की मोटी-मोटी किताबें सिरहाने रख सो रही हैं। यूपी के सोनभद्र की घटना भी आदिवासी इलाकों में दखल की बड़ी वजह थीं। सरकारें ही कानून बनाती हैं और उससे जुड़ी संस्थााएं उसका गला घोंटती हैं। इसकी जवाबदेह केवल भाजपा नहीँ बल्कि पूर्व की सरकारें भी हैं, जिनकी खोदी नींव आज इमारत की शक्ल ले रही है यानी दूरदर्शी नीति न अपनाने की वजह से समस्याएं बढ़ रहीं हैं। आदिवासी इलाकों को संरक्षित करने के लिए बने कड़े कानून बेमतलब साबित हो रहे हैं। आज भी हजारों एकड़ आदिवासी इलाकों की जमींनों को बड़ी-बड़ी कंपनियों को कौड़ियों के भाव दिया गया है, लेकिन वहां आज तक न कंपनिया लग पायी और न आदिवासी लोगों को मुआवजा मिल पाया।
महाराष्ट्र के आरे कालोनी लोगों की जुबान पर रची-बसी है। खूबसूरत जंगलों से घिरा यह इलाका लोगों के आकर्षण का केंद्र भी है। हजारों आदिवासियों की जिंदगी उन्हीं जंगलों पर निर्भर है। आदिवासी लोग वहां से लकड़ियां, जड़ी बूटियां और दूसरे फल निकाल कर शहर में लेकर अपनी आजिविका चलाते हैं। दुग्ध उत्पादन को लेकर आरे कालोनी का मुुुंबई में अपना नाम है। लेकिन सरकारों की तानाशाही की वजह से स्थिति बिगड़ रही है। विकास के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण उससे कहीं अधिक आवश्यक है। पेड़ों से हमें भरपूर आक्सीजन के साथ फल, जड़ी-बूटियां और दूसरी वस्तुएं उपलब्ध होती हैं। मिट्टी कटान रुकती है। स्वच्छ और अच्छी वायु मिलती है। एक नहीं अनगिनत लाभ हैं। लेकिन एक कहावत भी है कि जो सीधा होता है वहीं कटता है।
हमारे यहां आज भी वृक्षों के पूजने की परंपरा है। गांवों में नीम और पीपल पूजा कि हजारों साल पुरानी पंरपराएं कायम है। गांवों में तो बड़े बुजुर्ग नीम की दातून तक तोड़ने पर मना करते थे। लेकिन अब वक्त बदल गया है। हमारी सोच मर चुकी है। पेड़ निर्जीव नहीं है। जब हम उन पर आरा चलाते और काटते हैं तो उनकी चीख निकलती है। उन्हें भी पीड़ा होती है। उनके भी आंसू गिरते हैं और कहते हैं मुझे मत काटो। लेकिन हमारी अंधी आंखे और बहरे कान उस आवाज को नहीं सुन पाते हैं। जिसका नतीजा है कि धरती का ताप बढ़ रहा है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। समुद्री तूफान से शहरों का विनाश हो रहा है। हम सत्ता की मदहोशी में जल, जंगल और जमींन को निगल रहे हैं। अब वक्त आ गया है जब सरकारों को चाहिए कि वह विकास और प्रकृति संरक्षण के बीच सांमजस्य तय करें। पर्यावरण संरक्षण के लिए बनी संस्थाओं का सम्मान किया जाए। भविष्य के बढ़ते संकट पर गंभीरता से गौर किया जाए। वरना वह दिन दूर नहीं जब हम इस विकासवादी सोच में खुद झुलस कर रह जाएंगे और इंसान, सरकारें और संस्थाएं बेमतल साबित होंगी। देश और समाज के सुखद भविष्य के लिए जल, जंगल और जमीन को बचाना बेहद आवश्यक है।
यह लेखक के निजी विचार हैं।
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