भारत में जाति व्यवस्था को लेकर तमाम सारे मिथ हैं। एक तो भारत में बहुमान्य चार जातियों की उत्पत्ति को लेकर ही है कि ये ब्रह्मा के द्वारा अपने शरीर के विभिन्न अंगों द्वारा उत्पन्न की गईं मगर जब वास्तविक जगत मे इन्हें समझने की कोशिश करते हैं तो तथ्य इसके उलट पाते हैं। कोई भी पेशा किसी जातिविशेष के लिए रूढ़ कभी नहीं रहा। न ब्राह्मण सिर्फ पूजा-पुजापा या शिक्षण-प्रशिक्षण से ही जुड़े रहे हैं न क्षत्रिय सदैव राजा ही रहे हैं। इसी तरह वैश्य हरदम बनिज-व्यापार तक सिमटे रहे और न ही शूद्रों का काम सिर्फ वे काम रहे जिन्हे कथित ऊंची जातियां गर्हित समझती रहीं। सत्य तो यह है कि सभी जातियों ने यहां सभी काम किए। राजकाज में कथित शूद्र जातियों का दखल अति प्राचीन काल से ही रहा है। भारतीय इतिहास में जो पहला साम्राज्य मिलता है वह शूद्रों का ही था नंदवंश। और आचार्य चाणक्य ने नंदवंश का पराभव कर जिस मौर्य वंश की नींव रखी थी वह भी शूद्र वंश ही था। इसलिए यह मान लेना कि राजकाज सिर्फ क्षत्रियों के पास ही रहा कहना गलत होगा। इसी तरह ज्ञान-विज्ञान में नए-नए आविष्कार से लेकर उनकी खोज में सभी जातियों के ज्ञानी लोगों का दखल रहा है। उपनिषद काल में ही दर्शनों पर अन्य जातियों का भी दखल खूब रहा है। आत्मा-परमात्मा का दर्शन सबसे पहले क्षत्रियों ने ही निकाला और पुर्नजन्म का भी। ऋषि सत्यकाम जाबालि किसी भी कथित ऊंची जाति के कुलवीर नहीं थे और न ही ऋषि अरुण उद्दालक। इसी तरह स्त्रियों की भी दर्शन के क्षेत्र में खूब प्रतिष्ठा रही है। अपाला से लेकर गार्गी तक। मगर बाद के लोगों ने राजनीतिप्रेरित होकर समाज को बाटने की खातिर जातियों का रूढ़ किया। स्वयं महाभारत में कितनी ही जगह साफ-साफ कहा गया है कि जातियां मनुष्य के कर्म के आधार पर ही तय होती है। जन्म से जाति नहीं तय होती। बुद्घ ने तो इसमें खूब जोर दिया है और समस्त बौद्घ जातकों में क्षत्रिय को सर्वोच्च मनुष्य माना है क्योंकि समाज को बांधे रखने का और उसे चलाने का काम उसके पास है। बौद्घ जातक तो कहते हैं कि जो भी राजकाज करता है वह क्षत्रिय है। जैन दर्शन में भी इसी तरह बराबरी और जातिविहीन समाज की प्रतिष्ठा है। हिदू दर्शन के तहत वैष्णव और शैव मतों के तमाम सेक्ट तो जाति मानते ही नहीं हैं। बंगाल और पूर्व में वैष्णव मत के अधिष्ठाता चैतन्य महाप्रभु ने हिंदू दर्शन के तहत ही जाति पर चोट की और उनके मत के अनुयायी सब वैष्णव कृष्ण के उपासक होते हैं और बगैर किसी जाड़क्षत को ऊंची या नीची समझे सब साथ मिलकर खाते हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर इसका प्रमाण है। यही नहीं उनके मत को जो आचार्य शंकर देव असम और बाकी के उत्तरपूर्व ले गए उनके महापुरुषीय मत में भी जाति नहीं है। पूरा का पूरा मणिपुरी समाज वैष्णव है पर उसके यहां जाति नहीं है। वहां के वैष्णव मतानुयायी लोग अपने मंदिरों में जाते हैं और पूजा-अचर्ना करते हैं तथा साथ मिलकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। उनके यहां शादी-विवाह और अन्य सामाजिक व धार्मिक कार्यों में किसी की भी जाति नहीं पूछी जाती। किसी भी मणिपुरी से पूछिए तो वह अपनी जाति क्षत्रिय ही बताता है क्योंकि उनके समाज में सिर्फ एक ही पहचान है वह है क्षत्रिय। इसी तरह दक्षिण भारत में बारहवीं शती में जिस वीर शैव आंदोलन शुरू हुआ उसने अपने समाज को जातिमुक्त बनाया। यही नहीं उनके यहां एक शिवलिंग गले में धारण करने की परंपरा शुरू की गई। यह एक तरह से ब्राह्मणों के जनेऊ के समतुल्य थी। उनके यहां कोई जाति नहीं है और समस्त वीरशैव समाज में परस्पर रोटी-बेटी के रिश्ते हैं। यही कारण है कि वहां पर वीर शैवों का लिंगायत समाज बहुत ताकतवर है। उनके यहां तो अपने शव को जलाने की बजाय उसे दफनाने की परंपरा है। वीर शैव आंदोलन के प्रणेता शिवमूर्ति नाम का एक ब्राह्मण मंत्री था और वह एक ऐसा समाज बनाना चाहता था जिसमें व्यक्ति की नहीं समाज की प्रतिष्ठा हो और वह समाज इतना मजबूत हो कि परस्पर अलग-अलग करने वाले तत्व स्वत बाहर हो जाएं। इसलिए उसने अपने समाज को नशामुक्त करने और दृढ़ निश्चयी बनाने के लिए काफी कठोर कानून बनाए और वह वीरशैव समाज दक्षिण भारत में सर्वाधिक ताकतवर समाज है। यूं तो दक्षिण भारत में कारीगर जातियों की इतनी प्रतिष्ठा रही है कि ब्राह्मणों के वर्चस्व वाला हिंदूधर्म वहां जातीय मामले में काफी उदार रहा है। वहां के चोल-पांड्य अथवा राष्टÑकूट शासकों ने न तो जातीयता को बढ़ावा दिया न समाज को संकीर्ण बनाने वाले किसी एक दर्शन को ही सर्वोपरि माना। वहां पर ब्राहमणी परंपरा वाले हिंदू धर्म व जैन धर्म की बराबर की प्रतिष्ठा रही है। और राजाओं ने सबके चैत्य व मंदिरों के लिए बराबर दान दिए। इसीलिए वहां पर समाज को जाति के खाने में बहुत बटा हुआ नहीं पाते हैं। उत्तर भारत में जिस जाति व्यवस्था को बहुत रूढ़ रूप में देखते हैं उसके विरुद्घ समय-समय पर आंदोलन हुए और समाज सुधारकों ने उसे तोड़ने के प्रयास भी किए। पंजाब का सिख आंदोलन भी समाज को जोड़ने की पहल था। गुरु नानक ने हिंदू समाज की जातीय जकड़न को तोड़ा और अपने उपदेशों में हर धार्मिक संत के वचनों को प्रतिष्ठा दी। इसी तरह वहां पर गुरु नानक के बेटे श्रीचंद महाराज द्वारा चलाया उदासीन आंदोलन भी था जिसमें हर जाति के साधुओं की समान प्रतिष्ठा है और उदासीन संप्रदाय किसी तरह की जाति व्यवस्था को नहीं मानता। शायद इसकी वजह यह भी रही हो कि वृहत्तर पंजाब का कृषक समाज अपने अंदर जाति के आधार पर बटवारा किए जाने के खिलाफ रहा हो। वैसे भी पंजाब भारत का वह इलाका है जिसने विदेशियों के हमले को सबसे ज्यादा बर्दाश्त किया है। इसलिए भी उसके अंदर किसी तरह के जातीय बंधनों को तोड़ देने की आकुलता सर्वाधिक रही हो। मगर सत्य यही है कि पंजाब और हरियाणा के इलाके में जातीय बंधन सबसे पहले टूटे। हालांकि इसमें आर्य समाज आंदोलन का बड़ा असर रहा और शायद इसीलिए पंजाब वह पहला प्रांत था जिसमें स्त्री शिक्षा को सबसे ज्यादा बढ़ावा मिला और समतामूलक समाज बनाने की प्रेरणा भी यहीं से मिली। इसलिए जातीयता को रूढ़ बनाने की कोशिश समाज को जड़ बनाना है। समाज स्वयं चलायमान होता है और वह अपने अंदर किसी की भी सुप्रीमेसी बर्दाश्त नहीं कर पाता है। चाहे वह सुप्रीमेसी व्यक्ति की हो अथवा किसी जाति की। समतामूलक समाज से ही प्रगति होती है और प्रगति के लिए जातिबंधन टूटते ही रहते हैं। इसी तरह व्यक्ति अपना पेशा अपनी सुविधा से ही चुनता है न कि किसी परंपरा से या किसी जातिविशेष में जन्म लेने से। यह कोई आज से नहीं बल्कि वर्षों से होता आया है इसलिए यह मान लेना कि अमुक जाति ही श्रेष्ठ रही है एक मिथ ही है।
शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं। यह इनके निजी विचार हैं। )
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