चौंकिए नहीं! आश्चर्यान्वित होने या दुविधा में पड़ने की कोई बात नहीं बिलकुल स्पष्ट है। अज्ञानता के प्रभाव एवं विवेक के प्रभाव एवं विवेक के अभाव ने ही इसे एक रहस्य बनाया हुआ है। जिस रहस्य को अब विवेकपूर्ण विचारों के आश्रय से खोलना है। बिना किसी झिझक, दुविधा अथवा आश्चर्य के इस बात को मन में गहरा उतर जाने दीजिए कि संसार का प्रत्येक प्राणी-पदार्थ सुख रहित है। जो सुख किसी वस्तु की प्राप्ति और कामनापूर्ति से आपको मिला प्रतीत होता है, वह सुख भी वास्तव में आपको उस वस्तु से नहीं बल्कि अपने भीतर से ही प्राप्त हुआ है। यह बात वहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने योग्य है। कुछ क्षण चारों ओर से विस्मृत होकर किसी एकांत स्थान में बैठकर अपने को इसी विचार में डूब जाने दीजिए। यह ध्यान रहे कि इस जीवनोपयोगी विचार की गहराई में उतरते समय मन क्षण भर के लिए भी इधर-उधर न जाने पाए बत्कि इसी विचार में गहरा और गहरा उतर जाने दीजिए-जितना गहरा जाता है, क्योंकि इसी गहराई में इसके यथार्थ जीवन की थाह है।
कामना ही भटकाती है!
जितना गहरा मन अपने को इस विचार में ले जाएगा, उतनी ही शीघ्रता से जीवन की उलझी हुई ग्रंथियां सुलझती जाएंगी, अज्ञानता का दबाव कम होता जाएगा। सुख का यथार्थ स्रोत अपने ही भीतर है, कहीं अन्यत्र नहीं। इसकी अन्यत्र कल्पना करना ही वास्तव में सुख से अपने को दूर ले जाना है। अब आइए, उसी केंद्र बिंदु पर। किसी वस्तु की कामना करने से पूर्व मन शांत था। लेकिन जब उसे सुख रूप समझकर उसका चिंतन और कामना की तो वही शांत मन अशांत हो गया, विक्षेपता में आ गया या भटक सा गया। देखते जाइए और पिछले किसी भी ऐसे अनुभव पर दृष्टिपात कीजिए। साथ ही साथ इस विचार क्रम को भी आगे विकसित होने दीजिए। अभिप्राय यह है कि कामना करके आपने स्वयं ही अपने शांत मन को अशांत कर दिया। जब तक वह कामना पूरी नहीं हो गई तब तक मन को यह अशांति-बेचैनी बनी रही। अब जब कि उस कामना की पूर्ति हो गई और आपको अभीष्ट वस्तु मिल गई तब वास्तव में हुआ यह कि स्वयं द्वारा विक्षिप्त मन अब पुन: स्थिर हो गया। उस वस्तु का चिंतन कर-करके आपने अपने मन को जिस भटकन को स्थिति में डाल दिया था, वह वस्तु आपके पास होने के कारण अब वह भटकन की स्थिति में डाल दिया था, वह वस्तु आपके पास होने के कारण अब वह भटकन समाप्त हो गईं। इस भाव पर रुकिए और सोचिए!