Discussion – Conflict with farmers and government in Delhi: विमर्श – दिल्ली में किसान और सरकार से घमासान 

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NEW DELHI, OCT 2 (UNI):- Police using water canon to disperse agitating farmers blocking Delhi-Uttar Pradesh border in support of their various demands on Tuesday. UNI PHOTO-AK30U
तीनो कृषि कानूनो के विरुद्ध पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान, हज़ारो की संख्या में दिल्ली सीमा पर आ गए हैं। उन्हें दिल्ली तक न आने दिया जाय, इसलिए हरियाणा सरकार ने जीटी रोड को जगह जगह खोद कर खाई बनाने से लेकर, भारी बैरिकेडिंग, वाटर कैनन की बौछार और आंसूगैस के गोलों के साथ, रोकने की हर कोशिश की। पर वे दिल्ली सीमा पर पहुंच गए हैं और उनकी संख्या में, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के भी किसान लगातार आ रहे हैं। यह संख्या बढ़ रही है। किसानों का कहना है कि, उन्हे गृहमंत्री का एक सशर्त आफर मिला है कि वे सभी दिल्ली सीमा पर बुराड़ी स्थित निरंकारी मैदान में आ जांय औऱ उनसे 3 दिसंबर को सरकार बात करेगी।
किसानों ने गृहमंत्री का यह सशर्त ऑफ़र ठुकरा दिया, और कहा कि वे चार महीनों का राशन लेकर आये हैं और वे बुराड़ी, जिसे वे एक खुली जेल मानते हैं, नही जाएंगे और केंद्र सरकार का शर्तो के साथ बात करने का प्रस्ताव रखना किसानों का अपमाम करना है। पहले भी जब यह आंदोलन शुरू ही हुआ था तब भी केंद्रीय कृषिमंत्री ने इन किसानों के प्रतिनिमंडल को वार्ता के लिये बुलाया था, पर जब किसान वार्ता के लिये पहुंचे तो कृषिमंत्री मध्यप्रदेश चले गए थे और बातचीत का जिम्मा अधिकारियों पर छोड़ दिया था। अब स्थिति यह है कि, इन कृषि कानूनो में संशोधन करने का निर्णय बिना प्रधानमंत्री हस्तक्षेप के संभव नही है। जिस तरह  बिना किसी मांग, आवश्यकता, और संसद में बगैर बहस, या प्रवर समिति से इस कानून का परीक्षण कराये, यह तीनों कृषि विधेयक पारित किए गए हैं, उनसे यही धारणा उपजती है कि, यह कानून किसानों के हित को नहीं बल्कि कॉरपोरेट लॉबी को भारत के कृषि क्षेत्र में नीतिगत दखलंदाजी करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लाये गये थे।
सरकारो का झुकाव कॉरपोरेट या पूंजीपतियों की तरफ स्वाभाविक रूप से हमारे अर्थव्यवस्था के मॉडल में है। यह मॉडल 2014 के पहले से ही है और इस मॉडल के कारण, देश मे जो भी आर्थिक नीति बनाई गई उसके केंद्र में औद्योगिक विकास को कृषि की तुलना में अधिक महत्व दिया गया। जबकि कृषि और औद्योगिक विकास को एक दूसरे का पूरक समझा जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा न हो सका और कृषि को धीरे धीरे हतोत्साहित किया जाने लगा। आज किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के आंकड़ो और किसान के पक्ष में उठी मांगो के बारे में सरकार की उपेक्षा भरी प्रतिक्रिया से इसे स्वतः समझा जा सकता है।
कॉरपोरेट का हित अकेले इसी बिल में नही देखा गया है, बल्कि 2014 के बाद सरकार की हर आर्थिक नीति का एक ही उद्देश्य है कि, कॉरपोरेट को येनकेन प्रकारेण लाभ पहुंचे। 2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद जो पहला महत्वपूर्ण किसान विरोधी और कॉरपोरेट हितैषी विधेयक लाया गया था, वह भूमि अधिग्रहण विधेयक का। उक्त विधेयक में सरकार को किसी की भी भूमि अधिग्रहण करने के अनियंत्रित अधिकार दिए गए थे। उक्त बिल का जबरदस्त विरोध हुआ और वह बिल वापस हुआ और फिर उसे संशोधित रूप से लाया गया। उक्त बिल से लेकर अब तक, हाल ही में बैंकों में निजी क्षेत्र के स्वामित्व के सम्बंध में आने वाला प्रस्तावित कानून, कॉरपोरेट के हित मे है।
यह न तो पहला किसान आंदोलन है और न अंतिम। बल्कि किसान समय समय पर अपनी समस्याओं को लेकर देशभर में आंदोलित होते रहे हैं। किसानों का ही एक लौंग मार्च कुछ सालों पहले मुंबई में हुआ था। नासिक से पैदल चल कर किसानों का हुजूम अपनी बात कहने मुम्बई शहर में आया था। सरकार तब देवेंद्र फडणवीस की थी। जब यह मार्च मुम्बई की सीमा में पहुंचा तो मुम्बई ने उनका स्वागत किया। उन्हें खाना पीना उपलब्ध कराए। उन्हें देशद्रोही नही कहा। सरकार ने भी उनकी बात सुनी। उन बातों पर गौर करने के आश्वासन दिए। यह बात अलग है कि जब तक यह हुजूम रहा, सरकार आश्वासन देती रही। हम सबने पैदल चले हुए कटे फटे तलवो की फ़ोटो देखी है। यह आंदोलन किसी कृषि कानून के खिलाफ नही था। यह आंदोलन था, किसानों की अनेक समस्याओं के बारे में, जिसमे, एमएसपी की बात थी, बिचौलियों से मुक्ति की बात थी, बिजली की बात थी, किसानों को दिए गए ऋण माफी की बात थी और बात थी, फसल बीमा में व्याप्त विसंगतियों की।
सरकार ने इन समस्याओं के बारे में बहुत कुछ नही किया। लेकिन सरकार ने जन आंदोलन की उपेक्षा नहीं की। पर आज जब तीनो कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसान लामबंद हैं तो कहा जा रहा है कि वे भटकाये हुए लोग है। भड़काया गया है उन्हें। कुछ तो खालिस्तानी और देशद्रोही के खिताब से भी उन्हें नवाज़ रहे हैं। सरकार एक तरफ तो कह रही है कि यह सभी कृषि कानून किसानों के हित में हैं, पर इनसे किस प्रकार से किसानों का हित होगा, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। सरकारी खरीद कम करते जाने, मंडी में कॉरपोरेट को घुसपैठ करा देने, जमाखोरों को जमाखोरी की छूट दे देने, बिजली सेक्टर में जनविरोधी कानून बना देने से, किसानों का कौन सा हित होगा, कम से कम यही सरकार बना दे !
आज जब किसानों के जत्थे दर जत्थे, दिल्ली सरकार को अपनी बात सुनाने के लिये शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे हैं तो, उन को बैरिकेडिंग लगा कर रोका जा रहा है, पानी की तोपें चलाई जा रही है, सड़के बंद कर दी जा रही है, और सरकार न तो उनकी बात सुन रही है और न सुना रही है। छह साल से लगातार मन की बात सुनाने वाली सरकार,  कम से कम एक बार किसानों, मजदूरों, बेरोजगार युवाओं, और शोषित वंचितों की तो बात सुने। सरकार अपनी भी मुश्किलें बताएं, उनकी भी दिक्कतें समझे, और एक राह तो निकाले। पर यहां तो एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि, जो अपनी बात कहने के लिये खड़ा होगा, उसे देशद्रोही कहा जायेगा। अगर यही स्थिति रही तो सरकार की नज़र मे, लगभग सभी मुखर नागरिक देशद्रोही और जन आंदोलन देशद्रोह समझ लिए जाएंगे।
गोदी मीडिया द्वारा पूरे आंदोलन को किसी के द्वारा भड़काने की साज़िश बताने, किसान आंदोलन में भिंडरावाले की तस्वीर पर यूरेका भाव से उछल कर सोशल मीडिया पर पसर जाने वाले आईटी सेल के कारनामों के बाद सरकार ने 3 दिसम्बर की तारीख बातचीत के लिये तय कर दी है। सरकार यही काम, आंदोलन शुरू होने और किसानों के दिल्ली कूच करने के पहले भी तो कर सकती थी। अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि 3 दिसम्बर को सरकार कम से कम किसानों की सबसे बडी मांग कि एमएसपी से कम कीमत पर फसल खरीदना दंडनीय अपराध होगा, को कानूनी  प्राविधान बनाने पर सहमत हो जाएगी। वैसे तो मांगे और भी है। पर सबका एक ही बैठक में समाधान हो यह सम्भव नही है तो कम से कम इस एक मांग से तो इस समस्या की एक गांठ खुले।
अब सरकार को चाहिए कि अब अगर उसने किसानों के साथ बातचीत करने पर सहमति दे ही दी है तो, अब उक्त कानून में, किसान हित में कुछ संशोधन करने की भी सोचे। किसानों की मांगों को देखते हुए बातचीत में निम्न विन्दुओ को शामिल किया जा सकता है।
● भाजपा ने एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार एमएसपी देने का वादा किया है। सरकार इस वादे को पूरा करे और यदि यह लगता है कि यह वादा अव्यवहारिक है तो इसके अव्यवहारिक पक्ष को भी सबके सामने रखे।
● सरकार कह रही है कि, वह एमएसपी खत्म नही करने जा रही है। पर कृषिकानून लागू होने के बाद धान की खरीद के जो अनुभव किसान बता रहे हैं उससे यह संकेत स्पष्ट रूप से मिलता है धीरे धीरे एमएसपी खत्म ही हो जाएगी।
● सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी से कम खरीद को दंडनीय अपराध बनाये ताकि किसानों का शोषण, पूंजीपति और बिचौलिए न कर सके। अगर एमएसपी का कानून में कोई प्राविधान नही  किया जाता है तो, यह वादा भी एक जुमला बन कर रह जायेगा।
● जमाखोरी रोकने के लिये सख्त कानून पुनः बनाये जांय। फिलहाल जमाखोरी को अपराध से हटा दिया गया है क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम ईसी एक्ट रद्द हो गया है।
● हाल ही में जो महंगाई, खाद्य वस्तुओ और सब्ज़ियों में आयी है, इसका एक कारण जमाखोरी और मूल्य निर्धारण का काम बाजार पर छोड़ देना है। इस महंगाई से कृषि उपज की कीमतें तो बढ़ी हैं, पर उन बढ़ी कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। उसका लाभ उन बिचौलियों और मुनाफाखोरों को मिला है जिनसे किसानों को मुक्त कराने का दावा अक्सर सरकार करती रहती है।
● कृषि पर सब्सिडी देने पर सरकार फिर विचार करे। सब्सिडी दुनियाभर में सरकारे किसानों को देती है। यहां तक कि अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था भी, जो हमारी सरकारों का आदर्श बनी हुयी है, वह भी सब्सिडी देती है।
● भारत मे कृषि एक उद्योग नही बल्कि एक समृद्ध ग्रामीण संस्कृति है। सरकार जब बजट बनाने और अन्य नीतिगत वित्तीय फ़ैसले लेने के पहले, फिक्की, एसोचैम,जैसे उद्योगपतियों के संगठनों से बात कर सकती है, और इंडस्ट्री फ्रेंडली बजट बना सकती है तो सरकार फिर किसान संगठनों के साथ बात कर के फार्मर्स फ्रेंडली बजट क्यों नहीं बना सकती है ?
भारत आंदोलनों का देश रहा है। आंदोलन का अर्थ, केवल ज़िंदाबाद मुर्दाबाद ही नहीं है, बल्कि आंदोलन का अर्थ बदलाव की एक सतत इच्छा। यह इच्छा, भारतीय परंपरा में जड़ता के विरुद्ध चेतनता की चाह रही है। चरैवेति चरैवेति का मूल ही हमारी चेतना में बसा हुआ है। मन मे व्याप्त एक अहर्निश प्रश्नाकुलता, हमें परिवर्तन की ओर सदैव ले जाती है। परिवर्तन, कुछ बेहतर पाने की उम्मीद में तो होती ही है साथ ही जो फिलहाल चल रहा है उससे हुयी एक ऊब से मुक्त होना भी एक उद्देश्य होता है। बदलाव का यही भाव, कभी हमे आज़ाद होने के लिये आंदोलित करता है, तो कभी बेहतर जीवन के लिये सड़क पर ला देता है, तो कभी अन्याय के खिलाफ आक्रोशित करता रहता है। जब परिवर्तनकामी मनोवृति उफनती है तो, बदलाव के विभिन्न तऱीके भी मन मे उपजते हैं, और तब जो स्वरूप बनता है वह अपने सामर्थ्य और आकार के अनुसार, किसी बड़े या छोटे आंदोलन का रूप ले लेता है। कभी कभी एक छोटा सा प्रतिरोध भी ऐसे व्यापक जन आंदोलन में बदल जाता है, कि सत्ता हांफने लगती है और कभी कभी तो पलट भी जाती है। कभी कभी ये आंदोलन हिंसक हो जाते हैं और इससे जो अशांति और अराजकता फैलती है वह आंदोलन के उद्देश्य को भटका भी देती है औऱ आंदोलन के धीरे धीरे हिंसक गिरोहों में बदल जाने का खतरा भी हो जाता है।
यह तो स्पष्ट है कि, सरकार देश के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में चल रही है। इसी क्रम में उन सरकारी कंपनियों का भी निजीकरण किया जा रहा है जो देश की नवरत्न कम्पनियों में शुमार हैं। कृषि सुधार के नाम पर जो तीन नए कृषि कानून और वर्तमान आर्थिक मॉडल से भविष्य का जो संकेत मैं, समझ पा रहा हूँ, वे निम्न प्रकार से होंगे,
● सैकड़ों एकड़ खेत विभिन्न किसानों से इकट्ठे कर एक कंपनी खड़ी कर के उन्हें कॉरपोरेट में बदल कर खेती की जाय।
● उन खेतो के स्वामित्व अभी जिन किसानों के पास हैं, उन्ही के पास रहेगा, और उनसे ही आपस मे कुछ धनराशि तय कर खेतो को लीज पर ले लिया जाय और सामूहिक खेती की जाय।
● उन खेतो में क्या बोया जाय, और क्या न बोया जाय, यह कॉरपोरेट तय करेगा। इसमे स्थानीय कृषि की आवश्यकताएं, लोगों की जरूरतें, आसपास के लोगो की मांग से कोई बहुत सरोकार नही  रहेगा बल्कि वही फसल बोई जाएगी जो कॉर्पोरेट या उस कम्पनी को मुनाफा देगी। मुनाफा निर्यातोन्मुखी हो सकता है।
● जब कृषि सेक्टर में कॉरपोरेट लॉबी महत्वपूर्ण हो जाएगी और एक एग्रो इंडस्ट्री लॉबी के दबाव ग्रुप की तरह सरकार के सामने उभर कर आ जायेगी तो, फिर यही लॉबी, अन्य एकाधिकार सम्पन्न कॉरपोरेट लॉबी की तरह, सरकार से कृषि और किसानों से नुकसान दिखा कर सब्सिडी और अन्य राहत लेने के लिये दबाव बनाएगी। जो राहत और सब्सिडी तो खेती और किसानों के नाम पर सरकार से लेगी, लेकिन उसका लाभ किसानों को कम मिलेगा या नही मिलेगा।
● शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, रेल, सड़क, हवाई यातायात, सब के सब, जितना हो सकते हैं, निजी क्षेत्रों को बेचे जा रहे हैं। इन सब क्षेत्रो के साथ साथ अब बैंकों के भी निजीकरण की योजना बन रही है। इससे सरकार की जिम्मेदारी कम होती जाएगी।
● जमाखोरी को कानूनन मान्यता दे दी गयी है। आज सरकार के पास ईसी एक्ट के समान जमाखोरी रोकने के लिये कोई भी प्रभावी कानून नहीं है।
● किसान धीरे धीरे खेती से विमुख होता जाएगा और अपने ही खेत, जो बाद में कॉरपोरेट के खेत बन जाएंगे, में खेत मज़दूर बन कर रह जायेगा। इसे एक नए प्रकार के जमींदारवाद का उदय होगा।
● जो किसान खेत मज़दूर नहीं बन पाएंगे, वे शहरों की तरफ पलायन करेंगे और वे या तो दिहाड़ी मजदूर बन जाएंगे या उद्योगों में 8 घन्टे के बजाय 12 घँटे का काम करेंगे।
मेरी इस धारणा का आधार यह है,
● 2016 में देश के कुछ पूंजीपतियों और राजनीतिक एकाधिकार स्थापित करने के लिये, कालाधन, आतंकवाद नियंत्रण और नकली मुद्रा को खत्म करने के लिये नोटबन्दी की गयी। पर न तो कालाधन मिला, न आतंकवाद पर नियंत्रण हुआ और न नक़ली मुद्रा का जखीरा पकड़ा गया। लेकिन, इससे देश के कुछ पूंजीपति घरानों की आय बेतहाशा बढ़ी है जब कि देश की आर्थिक स्थिति में इतनी अधिक गिरावट आयी क़ि हम, मंदी की स्थिति में पहुंच गए हैं। अनौपचारिक क्षेत्र और उद्योग तबाह हो गए। 2016 – 17 से लेकर 2020 तक जीडीपी गिरती रही। अब तो कोरोना ही आ गया है।
● नोटबन्दी के बाद लागू होने वाली, जीएसटी की जटिल प्रक्रिया से व्यापार तबाह हो गया। पर उसकी प्रक्रियागत जटिलता को दूर करने का कोई प्रयास नही किया गया।
● एक भी बड़ा शिक्षा संस्थान जिंसमे प्रतिभावान पर विपन्न तबके के बच्चे पढ़ सकें नहीं बना। इसके विपरीत सरकारी शिक्षा संस्थानों में फीस और बढ़ा दी गयी। यदि भविष्य में यही शिक्षा संस्थान अगर कॉरपोरेट को मय ज़मीनों के सौंपने का निर्णय सरकार कर ले तो, इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
● निजी अस्पताल, कोरोना में अनाप शनाप फीस वसूलते रहे। सरकार ने उन पर केवल कोरोना से पीड़ित लोगों के लिये फीस की दरें कम करने के लिये महामारी एक्ट में कोई प्राविधान क्यों नहीं बनाया ? लोगो ने लाखों रुपए फीस के देकर या तो इलाज कराये हैं या उनके परिजन अस्पताल में ही मर गए हैं।
● यह कानून देश की खेती को ही नही दुनिया की सबसे बेमिसाल, कृषि और ग्रामीण संस्कृति के लिये एक बहुत बड़ा आघात होगा। यह मेरी राय है। आप की राय अलग हो सकती है।
आज़ादी के बाद कृषि को प्राथमिकता दी गयी। भूमि सुधार कार्यक्रम लागू हुए। बड़ी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं लागू की गई। नहर, ट्यूबवेल, आदि का संजाल बिछाया गया। किसानो को जाग्रत करने के लिये कृषि शिक्षा के कार्यक्रम चलाए गए। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विज्ञान केंद्रों की जगह जगह स्थापना की गयी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर की स्थापना के साथ अलग अलग फसलों पर शोध करने और उन्हें किसानों तक पहुंचाने के लिये शोध संस्थान बनाये गए। 1966 में भारत को जिस अन्न के अभाव से गुजरना पड़ा था, उसे देखते हुए हरित क्रांति की शुरुआत की गयी। दुग्ध उत्पादन के लिये हुये श्वेत क्रांति ने डेयरी उद्योग की तस्वीर बदल दी।
इसका लाभ भी हुआ कि देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। पर खेती के प्रति सरकारी नीतियों की जो प्राथमिकता थी, वह 1991 के बाद आर्थिक सुधार के युग मे, धीरे धीरे कम होती गयी।औद्योगिकरण, उन सुधारों के केंद्र में आ गए। मुक्त व्यापार और खुलेपन ने देश का विकास तो किया, लोगों को नौकरियां भी मिली, रहन सहन में गुणात्मक बदलाव आया, और देश की आर्थिक तरक़्की भी हुयी, लेकिन इससे एक कॉरपोरेट वर्ग का उदय हुआ जो खेती किसानी को उतनी प्राथमिकता नहीं देता था, जो पहले मिल रही थी। इसका असर सरकारोँ पर भी पड़ा। जनप्रतिनिधिगण भले ही ‘मैं किसान का बेटा हूँ” कह कर गर्व की अनुभूति कर लें, पर वे, कृषि के अमेरिकी मॉडल के पक्षधर बने रहे।
आज जो कानून लाये गए हैं, यह वर्ल्ड बैंक का1998 से लंबित प्रेस्क्रिप्शन है। वर्ल्ड बैंक खेती कॉरपोरेटीकरण के पक्ष में है। वह एक ऐसा मॉडल हमारी सरकार को डिक्टेट कर लाना चाहता है जिससे खेती का स्वरूप बदल जाए और कंपनियां, मशीनों पर आधारित, एकड़ो के फार्म में, पूरे नियंत्रण के साथ खेती करें और भूमि स्वामी उसी जमीन या उन्ही कॉरपोरेट के उद्योगों में एक वेतनभोगी मज़दूर बन कर रह जाय औऱ शोषण के अंतहीन जाल में फंस जाय। आज भी किसान का अच्छा पहनना, अच्छा खाना, और समृद्धि के साथ जीना कुछ को नागवार लगता है। वे उन्हें गोदान के होरी के रूप में ही देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं।
जब नोटबन्दी, जीएसटी और लॉक डाउन कुप्रबंधन के असर, देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े तो, वह कृषि ही थी, जिसने हमारी आर्थिकी को कुछ हद तक संभाला है। किसानों के सामने, बीज, खाद, सिंचाई और उपज बेचने की समस्या पर सरकार को विचार करना चाहिए और फसल चक्र तथा वैज्ञानिक रीति से फसलों के उत्पादन पर जोर देना चाहिए, न कि थोड़ी बहुत जो सुविधा पहले की सरकारों ने दे रखी है उसी को खत्म करने के पूंजीपतियों के षड़यंत्र में भागीदारी करे । अक्सर कहा जाता है कि खेती पर सब्सिडी कम की जाय। धीरे धीरे यह सब्सिडी कम होती भी गयी। खाद, डीजल, और उपकरणों पर मिलने वाली सुविधाओं को कम किया गया और अब निजी क्षेत्रों को सरकारी खरीद की प्रतिद्वंद्विता में लाकर खड़ा कर दिया गया है।
कॉरपोरेट को सरकार के हर आर्थिक कदम की खबर पहले ही मिल जाती है। इस कदम के पहले ही कॉरपोरेट ने अनाज भंडारण क्षेत्र में अपनी दखल देना शुरू कर दिया । अब सरकारी खरीद तंत्र जब कमज़ोर और कुप्रबंधन से भरा रहेगा तो, निजी मण्डिया तो फसल खरीदने को स्वाभाविक रूप से आगे आएंगी ही। तब किसान, मजबूरी में जो भी भाव मिलेगा, उसी पर बेच कर निकलना चाहेगा। इसे आप शिकार के हांके की तरह से समझ सकते है। सरकारी तंत्र को कुप्रबन्धित होने दिया जाय और इसी बहाने निजी क्षेत्र अपनी दखलंदाजी बढ़ाएं और जब उनका प्रभाव जम जाय तो, वे एकाधिकारवादी रवैय्या अपनाने लगे। और सरकार, इस खेल में कॉरपोरेट के प्रति एक उत्प्रेरक या हांका लगाने वाले के रूप में सामने आए।
आज इसीलिए, इन क़ानूनों में एमएसपी से कम मूल्य पर फसल खरीद को दंडनीय अपराध के प्राविधान को सम्मिलित करने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं। सरकार यह तो कह रही है कि एमएसपी खत्म नहीं होगी, पर यदि यह कानून में शामिल नही हुआ तो इसे सुनिश्चित कैसे किया जाएगा ? इसी तरह कांट्रेक्ट फार्मिंग में आपसी विवाद पर न्यायालय में जाने का कोई प्राविधान रखा ही नही गया है। ऐसा विवाद, एसडीएम, और डीएम देखेंगे या फिर सरकार के सचिव। यह प्राविधान तो व्यक्ति के न्यायालय जाने के मूल अधिकारों के ही खिलाफ है। इसमे भी कॉरपोरेट को ही लाभ मिलेगा। कुल मिलाकर कृषि सुधार के नाम पर लाये गये इन तीनों कानूनों का उद्देश्य है, किसानों को हतोत्साहित कर उन्हें खेती से विमुख कर देना और कृषि व्यवस्था का कॉरपोरेटीकरण कर देना।
अब 3 दिसम्बर को सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता प्रस्तावित है, उसका क्या परिणाम रहता है, यह तो बाद में ही बताया जा सकता है। पर सरकार को चाहिए कि वह वर्ल्ड बैंक और अमेरिकी मॉडल पर देश के कृषि सेक्टर को न चलाये, अन्यथा इसका असर, न केवल कृषि पड़ेगा, बल्कि इसके घातक परिणाम देश की आर्थिकि को भुगतने पड़ेंगे। आज भी अगर मानसून कमज़ोर या विलंबित होने लगता है तो वित्त मंत्रालय में दुश्चिंता के बादल छा जाते है। यह एक उचित अवसर है जब किसान संगठन और सरकार एक दूसरे से आमने सामने बैठ कर अपनी समस्याओं के बारे में हल ढूंढ सकते हैं। पर सरकार को एक लोककल्याणकारी सरकार हैसियत से सोचना पड़ेगा, न कि कॉरपोरेट हितचिंतक के रूप में।
( विजय शंकर सिंह )