क्या करना ठीक है और क्या नहीं इस बात पर बहस होती ही रहती है। वाद-प्रतिवाद होता रहता है। लोग समय-स्थान के हिसाब एक या दूसरे खेमें में दिखते हैं। कई झंझट से बचने के लिए चुप लगा जाते हैं। एक कहावत है कि आप कितनी भाषा जानते हैं इसका अपना महत्व है। लेकिन सबसे ज्यादा महत्व इस बात का है कि आप कितनी भाषा में चुप रहते हैं!
लेकिन जरूरतें और लोग कहां चुप रहने देते हैं। स्टीव जोब्स को ही लें। इन्हें कौन नहीं जानता। एपल का मतलब ही बदल कर रख दिया है। दिल नहीं लगा सो स्टैन्फर्ड यूनिवर्सिटी की प्रतिष्ठित पढ़ाई छोड़ गए। एक समय ऐसा भी था कि मीलों चलकर स्वामी नारायण मंदिर इसलिए जाया करते थे कि भर पेट खा सकें। जो कम्पनी बनाई थी उसी से निकाले गए। निराशा से बचने के लिए भारत के मंदिरों की खाक छानी। इधर के बाबाओं के शरणागत हुए। ईसाई फिरंगियों की अध्यात्म में रुचि और बाबाओं में आस्था कोई अचरज की बात नहीं है। दुनियादारी की समझ रखने वाले आध्यात्मिक गुरुओं ने ईसा मसीह की सत्ता से कभी इनकार नहीं किया। उन्होंने अपने दर्शन को बाइबल से कभी भिड़ाया नहीं। बदले में उनको सात समुंदर पार जगह मिलती रही। फिरंगी चेलों ने भारत में भी उनके आश्रमों की शोभा बढ़ाई। उन्हें प्रसिद्धि दिलवाई। आजादी के बहत्तर साल बाद भी जब तक पश्चिमी देशों से ठप्पा नहीं लग जाता, नामी लोग भी इधर आधे-अधूरे ही गिने जाते हैं।
खैर, वक्त ने पलटा खाया। स्टीव जोब्स के आइपॉड, आइफोन, आइपैड और मैकबुक ने दुनियां ही बदल दी। किसी ने सोचा नहीं था कि कैमरा, फोन और म्यूजिक प्लेयर को मिलाकर आइफोन जैसी चीज भी बाजार में आएगी जिसे महेंगे दामों में खरीदने के लिए लोग तीन दिन पहले से ही स्टोर के आगे लाइन लगाएंगे। सवेरा होने के इंतजार में सड़कों पर सोएंगे। और इसे हाथ में लेकर जब स्टोर से बाहर निकलेंगे तो हाव-भाव दुनियां जीत लेने वाली होगी।
अपना जादू दिखाकर स्टीव जोब्स दुनियां से जा चुके हैं। लेकिन आइफोन का अंगद पांव अभी भी जमा है। हर साल सितंबर के महीने में एपल का सीईओ इसका एक नया मॉडल लेकर आता है। लोग दोबारा टूट पड़ते हैं। ये फोन की खरीदारी नहीं हैं। ये तो जुए-शराब की लत जैसी है। लोग इसे इसीलिए नहीं खरीदते कि पिछली वाली खराब हो गई है। इसलिए खरीदते हैं कि खरीदने का दिल करता है।
वर्ष 2005 में स्टीव जोब्स को स्टैंफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने ग्रैजूएट को डिग्री देने के लिए आमंत्रित किया। अपने पारम्परिक भाषण में उन्होंने उसी यूनिवर्सिटी में अपने पुराने दिनों को याद किया। बेहद कामयाब थे। अपेक्षित था कि कोई ज्ञान की बात कहेंगे। कही तो कई बातें लेकिन जो सर चढ़कर बोली वो ये थी कि हर किसी को वही करना चाहिए जो दिल कहे। जिसके लिए आप जुनूनी हो सकें। तर्क ये दिया कि अगर ऐसा करेंगे तो काम बोझ नहीं लगेगा। कामयाबी तो मिलेगी ही, दिन भी खुशी-खुशी कटेंगे। फिर क्या था! लगा जैसे यही सुनना चाह रहा थे। इंटरनेट पर आपा-घापी मच गई। करोड़ों लोगों ने इसे यूट्यूब पर देखा। अभी भी देख रहे हैं। जब एक पक्ष को इतनी अहमियत मिली तो दूसरे को भी मैदान में आना ही था। कैल न्यूपोर्ट नाम के एक लेखक ने डीप वर्क नाम की किताब में स्टीव जोब्स के जुनून वाली बात को पूरी तरह से नकार दिया। कहा कि आज के दिन हमारे ध्यान के ऊपर हर तरफ से हमले हो रहे हैं। हम हद से ज्यादा सतही हो गए हैं जबकि इक्कीसवीं शताब्दी की अर्थव्यवस्था में डीप वर्क की जरूरत है। इसका मतलब ये हुआ कि हमें चाहिए कि बगैर इधर-उधर किए हम किसी मुश्किल चीज पर फोकस करें। मुश्किल काम पर जल्दी से महारत हासिल करना और बड़े स्तर पर फर्क पैदा करना आज के समय में एक तरह से सुपरपावर है। न्यूपोर्ट का दो-टूक कहना है कि स्टीव जोब्स के कहे पर ना जाएं, जो उन्होंने किया उस पर गौर करें-उन्होंने तमाम बाधाओं और विफलताओं के बीच अपना ध्यान केंद्रित रखा, मुश्किल से मुश्किल हुनर सीखा और आइफोन, आइपैड जैसी काम की चीज बनाई। वे मानते हैं कि किसी चीज को नियमित रूप से और ध्यान लगाकर करने से दिमाग के सम्बंधित क्षेत्र में नई कोशिकाओं का निर्माण होता है, वहां इसका घनत्व बढ़ता है। किसी को किस बात का जुनून है ये पता करना मुश्किल है लेकिन अगर कोई किसी चीज पर डीप वर्क करे तो उसके लिए जुनून जरूर पैदा हो जाएगा। मुझे लगता है कि न्यूपोर्ट जोब्स की बात को ही घुमा-फिराकर कह रहे हैं। जीव विज्ञान का कहना है कि हर व्यक्ति का जेनेटिक बनावट बाकी से भिन्न है।
ऐसे में हर किसी को ये पता जरूर करना चाहिए कि वो उस किस चीज के लिए बना है जिसकी बाजार में माँग और कीमत दोनों है। इसे पता करने का बड़ा सरल तरीका है कि जिस में आपको समय का पता ना चले और आप बिना थके लगे रह सकते हैं वही काम आपके लिए बना है। अगर आप इसी को चुने और मेहनत करें तो आप उन सब पर भारी पड़ेंगे जो न्यूपोर्ट के लहजे में किसी मुश्किल काम में ध्यान गड़ाए बैठे हैं। ये नदी की धारा के साथ तैरने वाली बात है। हमें सफलता की परिभाषा स्पष्ट कर लेनी चाहिए। जैसे कि वयस्क होते-ना-होते हम अपना खर्चा और बोझ खुद उठाने लग जाएं। इससे हमारा आत्मसम्मान बना रहेगा। दूसरे, हमारी कोई एक चीज जरूर ऐसा करें जिसके बारे में ये विश्वास से कह पाएं कि ये हम बहुत अच्छे तरीके से करते हैं। इससे हमारा आत्मविश्वास बना रहेगा। खुशी-खुशी जीने के लिए इतना बहुत है।
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