लॉकडाउन की पहली किश्त 25 मार्च से 14 अप्रैल तक रही, उसके पश्चात इसे बढ़ाकर 3 मई तक कर दिया गया और अब इसे 17 मई तक बढ़ा दिया गया है। सरकार के आगे विकट समस्या यह थी कि लॉकडाउन को 3 मई के बाद जारी रखा जाए या खोल दिया जाए? आम लोग लॉकडाउन को जारी रखने या हटाने के पक्ष में है? कोरोना वायरस और उससे उत्पन्न स्थिति बिल्कुल ही एक नए प्रकार की समस्या है जिसे आज से पहले किसी सरकार ने नहीं जूझा। ऐसी स्थिति में भारत में चाहे किसी भी दल की सरकार होती तो उसके लिए इस नए प्रकार की स्थिति से जूझना अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती था। यह लेख समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों जैसे के छोटे तथा मध्यम वर्ग के उद्योगपति, निर्यातक, परचून दुकानदार, रिटायर्ड कर्मचारी, वकील, विद्यार्थी तथा रोजाना देहाड़ी कमाने वाले मजदूरों से बातचीत करके लिखा गया है। इस लेख में इन लोगों से बातचीत करके जो तस्वीर सामने आई है, वही आपके सामने रखने का प्रयास करूंगा।
नागरिक तथा प्रशासन दोनों लॉकडाउन से तंग हो चुके दीख रहे हैं। कोरोना के डर के बावजूद ज्यादातर लोग अब आजादी चाहते हैं। बीमारी से बेरोजगारी का डर लोगों को अब ज्यादा सता रहा है। आज सुनते हैं कि पतंगें बेचने वालों, सुबह शाम सैर कर के हाजमा ठीक रखने की कोशिश करने वालों के चालान कट रहे हैं। चालान से दुखी एक पतंग वाले ने यह शेर सुनाया।
‘न तड़पने की इजाजत है, न फरियाद की, घुट – घुट के मर जाऊं, यह मर्जी मेरे सैयाद की।’ उसके साथी ने उत्तर दिया, ‘गम न कर मेरे दोस्त! गेहूं के साथ घुन तो हमेशा पिसता ही है।’ कुछ छोटे उद्योगपति, परचून दुकानदार तथा रोज दिहाड़ी करके कमाने वाले लोगों का कहना था कि लॉकडाउन जितना जल्दी खुल जाए उतना अच्छा है। दिहाड़ी करने वाले कहते हैं कि गरीब लोग ऐसी स्थिति में कहां जाएं। रोज दिहाड़ी कमा कर खाने वालों के लिए जीवन जीना कठिन हो गया है। वे खाली बैठे हैं, रोजमर्रा का खर्चा कैसे चलाएं? यह तंगी उनके सामने आ रही है। अखबारों में आप चाहे जितनी मर्जी मुफ्त राशन बांटने की खबरें पढ़ें लेकिन बहुत से ऐसे दिहाड़ीदार हैं जिन्हें ना तो सरकार की तरफ से, ना ही स्वयंसेवी संगठनों की तरफ से, ना ही चैरिटेबल संस्थाओं की तरफ से कोई मदद मिल रही है। इक्का-दुक्का किसी दिहाड़ीदार को 5 किलो आटा, 2 किलो दाल, 1 किलो चीनी मिली है! आप ही बताएं इससे क्या डेढ़ महीना परिवार को खिलाया जा सकता है? नहीं! जिनके पास कोई बीपीएल कार्ड नहीं है और वे दिहाड़ीदार या मजदूर हैं तो उन्हें किसी तरफ से किसी किस्म की मदद भी नहीं मिल रही। ऐसे लोग भूखे मर रहे हैं और तुरंत लॉकडाउन समाप्त करने की दुहाई दे रहे हैं। लॉकडाउन लागू करते समय प्रवासी श्रमिकों का सरकार ने कुछ भी नहीं सोचा। उनकी रोजी-रोटी अचानक बंद कर दी गई, गाड़ियां, बसें बंद कर दी गई, अपने गांव और घरों में नहीं जाने दिया गया। बेचारे पैदल छोटे-छोटे बच्चों और सामान को सिर पर उठाकर अपने गांव की तरफ चल पड़े। लेकिन सरकारों विशेष तौर पर केंद्रीय सरकार पर जूं तक नहीं रेंगी। जब पांच दिन पहले हैदराबाद और सोनीपत में प्रवासी मजदूर पत्थरबाजी पर उतर आए तो सरकार की आंखें खुली और उसने 29 अप्रैल को अर्थात लॉकडाउन के लगभग सवा महीना बाद प्रवासी मजदूरों की चिंता करनी की सोची और उन्हें घरों में पहुंचाने के बारे में नीति बनाई। इससे यह प्रतीत होता है कि सरकार के सामने कोरोना वायरस से उत्पन्न स्थिति से कैसे निपटा जाए इसके लिए कोई ना तो निश्चित नीति है ना प्रोग्राम वह सब निर्णय कामचलाऊ आधार पर ले रही है।
लॉकडाउन को हटाने के समर्थकों का कहना की लॉकडाउन लगाकर हम प्रकृति से कब तक लड़ेंगे। प्राकृतिक के साथ लड़ने की कला तो हमें सीखनी होगी। लॉकडाउन हट जाने से अपने आप भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश मे झुंड उन्मुक्ति (हर्ड इम्यूनिटी) की धारणा विकसित होगी। झुंड उन्मुक्ति से अभिप्राय है वायरस के संक्रमण के फैलने से लोगों की इम्यूनिटी जल्द इस से लड़ने के लिए प्रतिरोधक क्षमता का विकास कर लेगी। बेशक इस धारणा में खतरा भी है कि एकदम पहले बीमारी फैलेगी और अस्पतालों पर रोगियों का बोझ बढ़ जाएगा। लेकिन भारत में अधिकांश जनसंख्या युवा लोगों की है इसलिए ऐसे खतरे की संभावना अन्य देशों के मुकाबले में कम है। वैसे भी लॉकडाउन का कड़ाई से पालन कहां हो रहा है? अक्सर सब्जी दाल मंडियों, बाजारों, राशन डिपो, किराने की दुकानों पर भीड़ देखी जा सकती है और वह भीड़ समाजिक दूरी की धज्जियां उड़ाते हुए खरीदफरोख्त करती हैं।
दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं जो लॉकडाउन को 31 मई तक और बढ़ाने की वकालत करते हैं। उनका कहना है कि भारत जैसे गरीब तथा अधिक जनसंख्या वाले देश के लिए जहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत कमजोर हैं के लिए और कोई विकल्प नहीं है। जिस दिन लॉकडाउन रुपी बांध को खुला छोड़ा गया तो उसी दिन हजारों लोग मृत्यु की बाढ़ का शिकार हो जाएंगे और मजबूर होकर सरकार को दोबारा लॉकडाउन लगाना ही पड़ेगा। इस समय आर्थिक व्यवस्था, विकास दर, जीडीपी इत्यादि के बारे में सोचने का समय नहीं है अपितु जान बचाने का समय है। जिंदगी रहेगी तो अर्थव्यवस्था और अन्य चीजें भी ठीक हो जाएंगी। इसलिए लॉकडाउन ना केवल जारी रहना चाहिए अपितु इसे और भी सख्ती तथा अनुशासन से लागू करना चाहिए।
सर्वे किए गए कुल लोगों का 40% लॉकडाउन को तुरंत समाप्त करने के पक्ष में था। 50% लोग कम से कम अभी आगे 21 दिन और लागू करने के पक्ष में थे जबकि 10% लोगों ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए कहा कि लॉकडाउन को 3 मई के बाद क्रमबद्ध तरीके से धीरे-धीरे उठाना चाहिए। सरकार के लिए भी निर्णय लेना मुश्किल था, आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति थी। लेकिन अंतत: सरकार ने लॉकडाउन को 14 दिन और अर्थात 17 मई तक जारी रखने का निर्णय लिया। साथ ही जिलों को हरा, संतरी तथा लाल में बांट कर कुछ ढील देने की व्यवस्था भी कर दी। हरे क्षेत्रों में सबसे अधिक, आॅरेंज में कम तथा लाल क्षेत्रों में अभी कोई छूट नहीं दी गई। स्पष्ट है कि सरकार धीरे-धीरे, स्थान तथा स्थिति आधारित ढील देकर ही इसे हटाएगी, एकदम सारे देश में नहीं। स्कूल, कॉलेज, सिनेमाघर मॉल्स, क्लब्स या जहां कहीं भी भीड़ इकट्ठे होने की संभावना है ऐसी जगहों और संस्थाओं को अभी तीनों रंगों के जोन्ज में बंद रखा जायेगा। हमें अपनी जीवनशैली बदलनी होगी और कुछ दिन और लॉकडाउन और सामाजिक दूरी की स्थिति में रहने की आदत डालनी होगी इसी में सबकी सुरक्षा व भलाई है।
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डॉ. विनय कुमार मल्होत्रा
( लेखक भूतपूर्व कॉलेज प्राचार्य तथा कई पुस्तकों के लेखक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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