पिछले सप्ताह देश के सबसे बड़े राज्य में नरसंहार की एक बड़ी घटना हुई। जमीन कब्जाने के फेर में दबंगों ने दर्जनों आदिवासियों को गोलियां से भून डाला। झगड़ा दशकों पुराना था। इसे रोका जा सकता था। वैसे, दुनिया-भर में सनकी किस्म के लोग इस तरह की हिंसक वारदात को अंजाम देते ही रहते हैं। कभी किसी अमेरिकी स्कूल में, कभी न्यूजीलैंड के मस्जिद में, कभी श्रीलंका के चर्च में। मॉब-लिंचिंग में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई रोज ही बौराई भीड़ के हत्थे चढ़ा मिलता हैं।
ऐसा नहीं कि हिंसक घटनाएं सिर्फ पीड़ित परिवार को व्यथित करती है। विकसित देशों के टीवी-अखबार इनका इस्तेमाल भारत को एक अस्थिर देश साबित करने में करते हैं। टाइम, इकॉनोमिस्ट, न्यूयार्क टाइम्स, बीबीसी, सीएनएन सारे इन घटनाओं का विश्लेषण इस तरह से परोसते हैं कि इधर गए तो बंटाकर हुआ समझो। बड़े देशों को अपना सामान बेचने के लिए भारत जैसा बड़ा बाजार चाहिए। इन्हें कतई गंवारा कि इधर भी पूंजी-निवेश हो, उद्योग-व्यापार पनपे, आय-रोजगार बढ़े।
इनके देशी चेले-चपाटे तो इनसे भी दो कोस आगे हैं। उन्हें ये नहीं दिखता कि खुद इन देशों में कितना नस्लीय भेद-भाव और वर्गीय उन्माद है। कैसे ये आप्रवासियों को कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा नहीं समझते। अपने मतलब के लिए जिस-तिस का बात-बात पर बांह मरोड़ना शुरू कर देते हैं। बड़े शहरों की पॉश इलाके में महफूज सिंगल मॉल्ट के सरूर में इनकी जिद होती है सारे काम इनसे पूछ कर किए जाएं। इसी चक्कर में कभी सोशल मीडिया तो कभी टीवी-अखबार में बेसिरपैर की हांकते रहते हैं। आजकल इस किस्म के लोग धोनी के पीछे हाथ धोकर पड़ें हैं। एकाध इंच से वर्ल्ड कप में रन-आउट क्या हुए, इनकी उम्र गिनने और रन-रेट नापने में लग गए। निष्कर्ष निकाल लिया कि शेर बूढ़ा हो गया है। अब फुर्ती से शिकार नहीं कर सकता। इसे निकाल बाहर करो। विराट कोहली को गरियाने लगे कि फुकरे ने धोनी से दोस्ती के चक्कर में वर्ल्ड कप
गवां दिया।
शर्मा-कोहली-धोनी खींच-खाच कर टीम को सेमीफाइनल तक ले गए। उनकी तो खाट खड़ी करने में लगे हैं। जिन खिलाड़ियों की नादानी से ये दुर्गति हुई है, कहते हैं उन्हें ही आगे खिलाओ। रिटायरमेंट के बारे में पूछे जाने पर धोनी बोल पड़े कि कुछ लोग तो चाहते हैं कि मैं सेमीफाइनल भी न खेलूं। फिर क्या था! टीवी-अखबार कयास लगाने में जुट गए कि वो कौन है जो धोनी को टीम से बाहर करना चाहता है? क्या वो शास्त्री है? या फिर कोहली?
एक नए-नए नेता बने पूर्व क्रिकेटर ने ये कहकर खुन्नस निकाली कि हमें तो सुस्त और उम्रदराज बोलकर टीम से बाहर कर दिया था, अब खुद पर ये नियम क्यों नहीं लागू करते? कौन कहे कि बात उम्र की नहीं है। जब धोनी विकेट के बीच में अपने से दस साल छोटे खिलाड़ियों से अधिक तेजी से दौड़ सकते हैं, विकेट के पीछे फुर्ती दिखाते हैं तो उनकी उम्र की बात करने का क्या मतलब है? धोनी इन सबके बाप हैं। जवाब में कह दिया कि हम तो चले दो महीने फौज की ट्रेनिंग करने। जिसे खिलाना है, खिला लो।सवाल ये है कि ये कौन लोग हैं जो इतना शोर मचाते हैं और इनको कितनी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए? पहले वन-डे, फिर टी-ट्वेंटी और उसके बाद में आईपीएल के आने से क्रिकेट खेल कम, तमाशा ज्यादा हो गया है। पहले राष्ट्रीय टीम के समर्थक हुआ करते थे। पांच-पांच दिन तक रेडियो से चिपके रहते थे। हार की आदत लगी थी। कभी-कभार जीत जाने पर फुले नहीं समाते थे। खिलाड़ी अब की तरह अरबपति नहीं होते थे।
बाजार में इनका कुछ खास भाव भी नहीं था। बदले हालात में टीम है, स्टार खिलाड़ी हैं, उनके फेंस हैं और अरबों की कमाई है। फैंस, जिन्हें इंस्टाग्राम और ट्विटर पर गिना जा सकता है, खिलाड़ी की मार्केट वैल्यू तय करते हैं। अगर कोई खिलाड़ी नहीं चला या टीम हार गई तो फेंस सोशल मीडिया पर ट्रोल करने लगते हैं। स्पॉन्सर घबरा जाते हैं कि ऐसे तो उनका धंधा ही चौपट हो जाएगा। वे क्रिकेट बोर्ड पर दबाव डालते हैं कि फेंस की भावना के अनुसार चला जाय। इन्हें नाराज कर देंगे तो क्रिकेट और हॉकी में क्या फर्क रह जाया। टीवी-अखबार वाले भी सोशल मीडिया से ही खबर उठाते हैं। वे भी वही राग छेड़ देते हैं। एक मॉब-लिंचिंग सा माहौल बन जाता है कि फंस गए को मारो।
ऐसा नहीं कि फेंस एक समूह में संगठित हैं। उनका कोई चुनाव होता है। वे आपस में कोई बहस करते हैं और तथ्यों के आधार पर राय बनाते हैं। ये चौके-छक्के के शौकीन मुट्ठी-भर मनचले हैं जिन्हें ये नहीं पता कि कोई भी टीम हमेशा नहीं जीत सकती। कोई भी खिलाड़ी हमेशा हर हाल में रन नहीं बना सकता, विकेट नहीं ले सकता। इन्हें तो बस अपने कोटे की फटाफट मौज चाहिए। खिलाड़ियों के कनपटी पर पिस्तौल लगाए रखते हैं कि चुक गए तो खैर नहीं। ये तो हार की स्थिति में खिलाड़ियों के घर-परिवार तक पहुंच जाते हैं। भावनाओं के ज्वार में गोते खाते रहते हैं। आज सिर पर बिठाए मिलेंगे तो कल जमीन पर रगड़ते। हार के लिए इनके पास सीधा कारण होता है या खिलाड़ी जान-बुझकर घटिया खेले या उनमें वो पहले वाली बात नहीं रही।
ऐसे में कर्णधारों को खेल के हित को ध्यान में रख कर फैसले लेने चाहिए। सबको पता है कि धोनी आज या कल टीम में नहीं होंगे। लेकिन एक हीरो की विदाई हीरो जैसी ही होनी चाहिए। मॉब-लिंचिंग को अंजाम दे रहे कुछ सिरफिरों को तमाशबीन भीड़ का नेता नहीं मानना चाहिए और न ही उसके कहे को शाही फरमान।
ओम प्रकाश सिंह
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
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