अब तक के सर्वश्रेष्ठ के बावजूद जहां हारे, वहां मंथन भी ज़रूरी

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Manoj Joshi
Manoj Joshi

मनोज जोशी

टोक्यों ओलिम्पिक भारतीय दृष्टिकोण से बहुत कुछ बयान करता है। न सिर्फ कुछ खेलों में चैम्पियन बनने की कहानी, बल्कि कई खेलों में कुछ ऐसे सबक भी, जिन पर अब युद्ध स्तर पर ध्यान देने की ज़रूरत है। किसी एक ओलिम्पिक में सबसे अधिक पदक हासिल करके अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना, एथलेटिक्स में 121 साल का और हॉकी में 41 साल का सूना समाप्त होना यादगार
घटनाएं रहीं। इतना ही नहीं, ओलिम्पिक में 13 साल बाद गोल्ड, महिला हॉकी और गोल्फ में पहली बार पदक के काफी करीब तक पहुंचना, टेनिस में 25 साल बाद कोई सिंगल्स मैच जीतना, टेबल टेनिस में पहली बार किसी भारतीय का तीन मैच जीतना और ओलिम्पिक की तीरंदाज़ी इवेंट में पहली बार पूर्व ओलिम्पिक चैम्पियन साउथ कोरिया को हराना और उससे एक दिन पहले वर्ल्ड नम्बर वन को हराना हैरतअंगेज घटनाएं रहीं। इसी तरह कुश्ती में नौ साल बाद दो पदक हासिल करना और देश के पहले ऐसे खेल के रूप में स्थापित होना  जहां देश को इस खेल से लगातार चौथे ओलिम्पिक में पदक हासिल हुआ हो। पीवी सिंधू ने लगातार दो ओलिम्पिक में पदक जीतने वाली इकलौती भारतीय महिला होने का गौरव हासिल किया और वह सुशील के बाद देश की दूसरी ऐसी खिलाड़ी बन गईं जिन्हें लगातार दो ओलिम्पिक में पदक हासिल हुए हों। इसी तरह बॉक्सिंग में लवलीना का नौ साल बाद मुक्केबाज़ी में पदक जीतना भी बड़ी घटनाएं रहीं लेकिन इन सबके बीच नीरज चोपड़ा ने भारत के भाल पर स्वर्ण तिलक लगा दिया। उनके सोने ने पूरे भारत को चमका दिया।

उन्होंने अपने अंदर आसमान में सुराग करने वाला जज़्बा दिखाया जिससे वह इस ओलिम्पिक में भारत के कोहिनूर साबित हुए। समस्याएं नीरज के लिए भी कम नहीं थीं। पहले ऑस्ट्रेलियाई कोच का साथ छूटा, फिर जर्मनी के लीजेंड कोच ने ओलम्पिक से पांच महीने पहले साई और भारतीय एथलेटिक्स संघ से हुए विवाद के कारण किनारा कर लिया। फिर कुहनी की इंजरी से करीब डेढ़ साल उनकी प्रैक्टिस नहीं हो पाई। रही सही कसर कोविड ने पूरी कर दी। ओलिम्पिक से तीन महीने पहले जब नीरज ने जैवलिन थ्रो में अपनी शैली को बदलने की बात कही, वह भी किसी बड़ी चौंकाने वाली घटना से कम नहीं थी लेकिन जर्मनी के बायो-मैकेनिक का साथ और कड़ी मेहनत से उन्होंने इन सब समस्याओं से निजात पा ली और अभी से ही उन्होंने ओलिम्पिक रिकॉर्ड तोड़ने का नया लक्ष्य निर्धारित कर लिया।  वहीं गोल्फ में अदिति अशोक और महिला हॉकी में पदक न जीत पाने के लिए इनकी आलोचना करना अपनी मूर्खता को दिखाना है।
दरअसल, टोक्यो में इन दोनों की उपलब्धि वास्तव में आसमान से तारे तोड़कर लाने से कम नहीं है। गोल्फर अदिति दुनिया में 200वें नम्बर की खिलाड़ी हैं और जिस दिलेरी के साथ उन्होंने दुनिया की नम्बर एक खिलाड़ी और रियो ओलिम्पिक की सिल्वर मेडलिस्ट का सामना किया, उससे इस महिला खिलाड़ी को सलाम करने का मन करता है। इस खिलाड़ी ने चार दिन चले मुक़ाबले में एक समय संयुक्त रूप से शीर्ष स्थान भी हासिल कर लिया था। इसी तरह महिला हॉकी टीम का पदक के करीब तक पहुंचना भी बहुत बड़ी उपलब्धि है। ऐसी टीम जो 1984 से 2012 तक ओलिम्पिक के लिए क्वॉलीफाई न कर पाई हो और जिसने पिछली बार क्वॉलीफाई करके भी कोई मैच न जीता हो और ऐसी टीम जो पहले तीन मैच हार गई हो और उसके खाते में तब तक दो गोल आये हो और 11 गोल उसके खिलाफ हुए हों तो ऐसी टीम के लिए उम्मीदें पालना कोई समझदारी नहीं थी लेकिन इसके बाद जिस तरह इस टीम ने लगातार तीन मैच जीते जिनमें दो बार की ओलिम्पिक चैम्पियन ऑस्ट्रेलिया को हराकर पुरुष हॉकी की उसके हाथों हुई हार का हिसाब चुकता किया।
फिर अर्जेंटीना और पिछले ओलिम्पिक की विजेता ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ बढ़त बनाकर दबाव बनाना वास्तव में काबिलेतारीफ है। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया। वहीं अदिति और महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन को पदक से आंकना बेमानी होगा। इन्होने वह कर दिखाया जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। बेशक भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने 41 वर्षों से पदकों का सूखा खत्म कर दिया हो, बेशक भारतीय टीम अब दुनिया की नम्बर एक टीम बन गई हो लेकिन साथ ही भारत को ऑस्ट्रेलिया के हाथों लीग मैच में और बेल्जियम के हाथों सेमीफाइनल में मिली हार का भी मंथन करना चाहिए क्योंकि आज के दौर में एवरेस्ट को छूने से बड़ी बात एवरेस्ट पर बने रहना है इसलिए खासकर हमारी फॉरवर्ड लाइन के प्रदर्शन का भी आकलन होना ज़रूरी है। कई मौकों पर हम फुटबॉल की तरह दो फॉरवर्ड के साथ खेले। हुए। गुरजंत और दिलप्रीत ने टुकड़ों में ही अच्छा प्रदर्शन किया। अब तैयारी गोल्ड मेडल जैसी होनी चाहिए और खासकर ऐसा खेल तभी भारतीय हॉकी के माफिक हो सकता है जब हमारे फॉरवर्ड या मिडफील्डर ज़्यादा से ज़्यादा जवाबी हमले बनायें लेकिन ऐसा आम तौर पर देखने को नहीं मिला। मनप्रीत फॉरवर्ड लाइन में अच्छा खेले लेकिन क्या उनके प्रदर्शन में वैसी निरंतरता थी जिसका कि खूब प्रचार किया गया था।
ललित उपाध्याय फॉरवर्ड लाइन की कमज़ोर कड़ी साबित बेल्जियम और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मैच में मिली हार का बारीकी से पोस्टमार्टम भी होना चाहिए।  पहलवान बजरंग पूनिया ने कज़ाकिस्तान के उस पहलवान को शिकस्त दी, जिससे वह नूरसुल्तान में हुई वर्ल्ड चैम्पियनशिप के सेमीफाइनल में 9-9 के स्कोर पर हारे थे। इस बार 8-0 से हराकर उन्होंने दिखा दिया कि अपने घर में बार-बार मेडिकल टाइम आउट के ज़रिये सुस्ताने का उन्हें वहां कितना लाभ मिला था। इसी तरह रवि दहिया का हारते-हारते चैम्पियन की तरह जीतना और भारतीय कुश्ती की नई सनसनी साबित होना यादगार घटनाएं थीं। टेनिस में सुमित नागल ने उस उज्बेकिस्तानी खिलाड़ी को हराया जो अपने काल में रोज़र फेडरर को हरा चुके हैं। वहीं तीरंदाज़ी में अभी और मानसिक दृढ़ता दिखाने की ज़रूरत है। इस खेल में हमने इस बार कुछ उलटफेर ज़रूर किये लेकिन ओलिम्पिक मेडल जीतने जैसी निरंतरता की कमी इस बार भी दिखी। वहीं विनेश की उस बेलारुस की रेसलर के हाथों हार, जिसे वह पीडब्ल्यूएल में हरा चुकी थी, गौर करने वाली बात है।

इसी तरह दीपक पूनिया के ब्रॉन्ज़ मेडल बाउट में जीतते-जीते हारने ने भी उनकी सोच पर सवाल खड़े कर दिये क्योंकि इससे भारत के हाथ में एक निश्चित पदक निकल गया। भारतीय निशानेबाज़ों में सौरभ चौधरी को छोड़कर कोई भी फाइनल में जगह नहीं बना पाया। आखिरी क्षणों में कोच को बदलना, उस पिस्टल कोच को साथ न ले जाना जो कई वर्षों के साथ टीम से जुड़ा हुआ था, हार के बड़े कारण साबित हुए। इतना ही नहीं, क्रोएशिया का वह दौरा जहां आयोजित प्रतियोगिताओं में शीर्ष निशानेबाज़ों के बिना पदक जीतकर हमारे निशानेबाज़ों ने अपने बारे में गलतफहमियां पाल ली थीं। इसी तरह पहलवान दीपक पूनिया का ब्रॉन्ज़ मेडल मुक़ाबले को जीतते-जीतने आखिरी आठ सेकंड़ में गंवाना किसी बड़े सबक से कम नहीं है।

(लेखक का यह बतौर टीवी कमेंटेटर पांचवां ओलिम्पिक है)