Desh ka sankranti kal: देश का संक्रांति काल

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भारत पर्वों व त्योहारों का देश है। इस समय देश में आंदोलन पर्व मनाया जा रहा है। ऐसे में मकर संक्रांति का आना देश के लिए भी सूर्योदय की आकांक्षाओं का द्योतक है। मकर संक्रांति पर सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वातावरण में बदलाव का पर्व भी है। देश भी इस समय ऐसे ही संक्रांति काल में है। बदलाव की यह प्रक्रिया सकारात्मक हो, इसके लिए संक्रांति की दिशा भी सकारात्मक होनी चाहिए। वर्ष 2020 की संक्रांति के साथ देश के सामने चुनौतियों भरी क्रांति भी है। मकर संक्रांति गंगा की यात्रा समाप्ति का पर्व भी है, ऐसे में भारत जैसे देश में सागर जैसी महत्वाकांक्षाओं पर धैर्य की जीत जैसी संक्रांति की जरूरत भी है। इस संक्रांति काल में महज खिचड़ी खाने-बांटने या पोंगल जैसे उल्लास से काम नहीं चलेगा, हमें सहज सद्भाव की संक्रांति की ओर बढ़ना होगा।
भारत में वर्ष पर्यंत चलने वाली उत्सवधर्मिता पर इस समय संकट के बादल से छाए हुए लग रहे हैं। युवा शक्ति को आधार मानने वाले भारत में युवाओं के लिए तो अवसर अपर्याप्त से नजर आते हैं किन्तु राजनीतिक स्तर पर सभी को अपने लिए अवसर ही अवसर नजर आ रहे हैं। देश को दिग्भ्रमित कर अलग-अलग एजेंडे पर काम करने की मुहिम सी चल रही है। आम नागरिक से जुड़े मुद्दों की किसी को परवाह नहीं है। लोकतंत्र में सत्तापक्ष के साथ विपक्ष की भूमिका भी धारदार होनी चाहिए। यहां सभी लोग अराजकता में अवसर तलाश रहे हैं। देश से लुप्तप्राय वामपंथ विश्वविद्यालयों के सहारे वापसी के स्वप्न संजो रहा है तो दक्षिणपंथ विश्वविद्यालयों में काबिज होने का मौका तलाशता नजर आ रहा है। इस खींचतान में युवा पीढ़ी के सपनों का भारत पिछड़ता जा रहा है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उस देश के विकास का पैमाना होती है। भारतीय संदर्भों में देखें तो पिछले कुछ वर्षों से हम खराब अर्थव्यवस्था के दौर से ही गुजर रहे हैं। बड़े अरमानों के साथ वर्ष 2020 की शुरूआत तो हुई किन्तु अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अच्छी खबरें सुनाई ही नहीं पड़ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में दोबारा सत्ता संभालने के बाद पांच साल के भीतर यानी 204 तक देश को 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प देखते हुए उत्कृष्ट आर्थिक प्रबंधन का स्वप्न दिखाया था। मौजूदा स्थितियों में तो दिग्गज अर्थशास्त्रियों को भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। दरअसल अगले चार साल में 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हमें 9 प्रतिशत वार्षिक की आर्थिक विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करना होगा। इधर विकास दर में लगातार गिरावट से यह लक्ष्य कठिन लग रहा है। इसके अलावा महंगाई से निपटना भी चुनौती बन गया है। देश के संक्रांति काल में असली सूर्योदय तो तभी होगा, जब हम आर्थिक क्रांति के लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होंगे।
अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त सामाजिक ताने-बाने पर भी देश का समग्र विकास निर्भर है। हम जिस कट्टरवाद की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, वह देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी अच्छा नहीं है। हाल ही में हमने स्वामी विवेकानंद की जयंती मनाई है। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि उन्हें उस धर्म का प्रतिनिधि होने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने कहा था कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने भारत को एक ऐसे देश के रूप में उद्धृत किया था, जिसने सभी धर्मों व सभी देशों के सताए हुए लोगों को शरण दी और इस पर गर्व भी व्यक्त किया था। आज स्वामी विवेकानंद की वही गर्वोक्ति खतरे में है। न तो हम सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं, न ही हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकारकर मिलजुलकर साथ चलने की राह दिखा पा रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के भारत में सामाजिक समता लाना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में संक्रांति का सूर्योदय सही मायने में तभी हो सकेगा जब देश सद्भाव के साथ विकास यात्रा पर आगे बढ़ेगा।
संक्रांति के साथ ही भारत की उत्सवधर्मिता का बोध भी दिखने लगता है। लोहड़ी का उल्लास हो या पोंगल का वैशिष्ट्य, इनके साथ बसंत पंचमी की प्रतीक्षा इस वैविध्य का संवर्धन करती है। ऐसे में संक्रांति के साथ भव्य भारत की संकल्पना का अरुणोदय आवश्यक है। इसके लिए शिक्षण संस्थानों का वातावरण सही करना होगा, बेरोजगारी के संकट से जूझना होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार कोशिश करनी होगी, सड़क पर बेटियों को सुरक्षित महसूस कराना होगा, राजनीतिक शुचिता सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा न हुआ तो यह संक्रांति निश्चित ही संक्रमण में बदल जाएगी, जो देश और देशवासियों के लिए बेहद चिंताजनक होगा।

-डॉ.संजीव मिश्र