अब से 77 साल पहले ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन की शुरुआत महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी ने 9 अगस्त को की थी। वो चाहते थे, कि हम ऐसा भारत बनायें, जहां शांति-सौहार्द, प्रेम और सबकी सम्मति से चलने वाली शासन सत्ता का लोकतंत्र स्थापित हो। तत्कालीन बंबई कांग्रेस में महात्मा गांधी के ‘करेंगे या मरेंगे’ और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ जैसे नारों ने देशवासियों की नब्ज तेज कर दी थी। कुछ छिटपुट हिंसा की घटनाएं को छोड़कर आंदोलन अहिंसक ही रहा मगर इन छिटपुट घटनाओं ने महात्मा को हिलाकर रख दिया। वो कहते थे, अंग्रेज जायें या न जायें मगर अंग्रेजियत जरूर जानी चाहिए। आज हम देखते हैं कि वही नहीं हो सका जो महात्मा चाहते थे। गोरे अंगरेज भले चले गए, लेकिन उनकी बुराइयां गेहुंए हिंदुस्तानियों ने अपना लीं। हमने जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी, वही नजर नहीं आता। समाज और देश की आखिरी पंक्ति के नागरिक की आंखों में खुशियां और जीवन के सुख की सोच बेमानी साबित हो रही है। वजह, भीड़ को खुश करने की अधिक है, क्योंकि वही भीड़ वोटबैंक बन जाती है। संख्या, समुदाय, क्षेत्र और प्रभाव देखकर तंत्र यह तय करने लगा है कि लोक के किस हिस्से को खुश रखना है और किसको दुख पहुंचाना है, जिससे भीड़ जश्न मना सके।
इस वक्त जम्मू-कश्मीर में हालात अच्छे नहीं हैं। कहीं कर्फ्यू लगा है तो कहीं सीआरपीसी की धारा 144 के तहत जिला मजिस्ट्रेट ने निषेधाज्ञा लगा रखी है। वहां बंदूक के साये में लोकतंत्र कैद है। कारण, भारतीय संसद में राष्ट्रपति के संकल्प के अनुरूप संविधान के अनुच्छेद 370 के खंड-3 में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए अनुच्छेद 370 को छोड़कर उसके बाकी उपबंधों के साथ ही अनुच्छेद 35ए भी खत्म कर दिया। यही संवैधानिक व्यवस्था थी जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देते थे। संविधान में यह बदलाव हमारा आंतरिक मामला है। इसमें किसी भी संशोधन के लिए हमें किसी देश की सुनने, समझने या उसे बताने की कोई बाध्यता नहीं है। कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है और उसके निवासी भारत के नागरिक। यह भी सच है कि जहां के नागरिकों और क्षेत्र के लिए बदलाव या संशोधन किया जा रहा है, उनकी सहमति लोकतंत्र में अति आवश्यक है। भले ही यह उनके हित और विकास के लिए की क्यों न हों। हमारे देश की सीमाएं उसके नक्शे के मुताबिक ही रहे, यह सुनिश्चित करना शासनाध्यक्षों की जिम्मेदारी है। उनकी यह भी जवाबदेही है कि वो उन क्षेत्रों के नागरिकों की भावनाओं और जरूरतों के मुताबिक ही शासन चलाएं, जिससे उनके चेहरे पर मुस्कुराट हो और मन में संतुष्टि का भाव रहे। इस संशोधन में सवालिया निशान यही है कि हुक्मरां ने न उनकी भावनाओं का ध्यान रखा और न ही उनकी जरूरतों का। न उनकी संस्कृति और प्राकृतिक संरक्षण पर विचार किया गया। बंदूकों के साये में वहां के नागरिकों और जनप्रतिनिधियों को कैद करके कहा गया कि बदलाव उनकी सहमति से है।
इस वक्त इतिहास पर चर्चा करना बेमानी है। उस वक्त विपरीत हालातों में भी हमारे हुक्मरानों ने देश को खुशहाल और समृद्ध बनाने के लिए, जो जितना बन पड़ा किया था। उन्होंने इतना बेहतर किया कि उससे बेहतरीन नहीं हो सकता था। उन लोगों ने मनमानी कुछ नहीं किया था बल्कि सब कुछ संविधान सभा में शामिल सभी दलों-वर्गों के 389 और फिर 299 सदस्यों के चिंतन-मनन एवं चर्चा के बाद ही किया। संविधान में सर्वसम्मति से ही कोई भी प्रावधान किया गया। इससे यह साफ हो जाता है कि संविधान किसी एक की मर्जी से नहीं, बल्कि सबके विश्वास और सहमति का परिणाम है। संविधान लागू होने के बाद उसके प्रावधानों में संशोधन का अधिकार उन सभी सदस्यों को मिला, जिनके प्रयासों से हमारा लोकतंत्र बना था। उन्होंने न तानाशाही की और न ही किसी की आवाज दबाने के लिए बंदूक का इस्तेमाल किया। उन्होंने जनता की भावनायें सुनीं-समझीं और औचित्य के साथ जन प्रतिनिधियों की आपत्तियों को भी स्वीकारा। कुछ तत्व और संगठन देश की आजादी की लड़ाई के वक्त अंग्रेजों की परस्ती करते थे, वो संकट पैदा करने में तब भी पीछे नहीं थे, जब एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण किया जा रहा था। उन्होंने सांप्रदायिक दंगे भी करवाये और महात्मा की हत्या भी। महात्मा गांधी की हत्या वास्तव में उस सोच की हत्या थी, जो लोकतंत्र को वास्तविक रूप से स्थापित करना चाहती थी।
हमने कश्मीर को भारत के पाले में लाने के लिए उसके शासक और आवाम से तमाम वादे किये थे, कुछ पूरे हुए कुछ नहीं मगर वहां अशांति नहीं थी। अशांति तब हुई जब बाहरी दखल शुरू हो गया। पड़ोसी देशों ने अपने हितों के मुताबिक साजिशें रचीं और हमारे कुछ लोग उसमें फंस गये। देश के भीतर अपने एजेंडे पर काम करने वाले सियासी दल और स्वार्थी जनों की भीड़ ने हमारी खुशियां छीन लीं। स्वर्ग सा सुंदर कश्मीर बदरंग होने लगा। देश में सांप्रदायिकता की सियासत करने वालों के कारण माहौल बद से बदतर हो गया। पड़ोसी देशों ने इसका फायदा उठाया। उन्होंने हमारे देश की स्वार्थी सियासत और हक हड़पने की सोच का शिकार पीड़ितों के मरहम लगाकर उनकी भावनाओं को भड़काया। नतीजतन कश्मीर जल उठा। उसकी आंच में हिंदुस्तान का एक बड़ा हिस्सा भी जलने लगा। हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि सियासी एजेंडे को पूरा करने के लिए वो कदम उठाये जा रहे हैं, जो लोकतंत्र को एक ऐसी चिड़िया साबित करते हैं, जो पिंजड़े में फड़फड़ाकर दम तोड़ देती है। ऐसा लोकतंत्र जो चहकता नहीं चिल्लाता और कराहता है। हम फांसीवादी रास्ते पर चल पड़े, जिसमें भीड़तंत्र खुशियां मनाता है। सबकी खुशियां और समृद्धि की महात्मा गांधी की सोच वाला लोकतांत्रिक भारत शायद इस भीड़ में खत्म हो चुका है। अब गाय के नाम पर इंसान और इंसानियत की हत्या हो रही है। महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में कहा था ‘हमें बाघ से कोई परहेज नहीं है, लेकिन लोक जीवन में उसका स्वभाव नहीं चाहिए।’ अब इसका बिल्कुल उलट हो रहा है। आज बाघ भी है और अधिक खूंखार स्वभाव भी। हमारे हुक्मरां जिनके आंसू पोछने के नाम पर लोकतंत्र की मूल भावना को विस्मृत कर फैसले ले रहे हैं, असल में वही उनके दर्द का कारण है। जरूरत है जनता के हितों, भावनाओं और जरूरतों को समझने की। कुछ वर्गों या लोगों के ही नहीं, बल्कि उन सभी के चेहरे पर मुस्कान के साथ समृद्धि लाने की जरूरत है जो लोक हैं। तंत्र उनका सेवक है, न कि तंत्र के सेवक लोक है। जब तक बगैर एजेंडे के तंत्र और लोक प्रतिनिधि आमजन की सेवा नहीं करेंगे, तब तक अंग्रेजों को भगाकर स्थापित किया लोकतंत्र पूर्ण नहीं होगा। हमारे तंत्र को हर फैसला उस जनता की सहमति से लेना होगा, जो उसका हिस्सा है। यदि फैसले थोपे जाएंगे, तो कभी अमन-शांति और खुशहाली नहीं आ सकती। सोने के पिंजरे में पंक्षी को कैद करिये या लोहे के, वह न उड़ान भर सकता है और न ही चहचहा सकता है। विकास तब होगा, जब उसके साथ वहां की आवाम के दिल भी जुड़े होंगे। वास्तव में आवश्यकता दिल जोड़ने वाले काम की है, न कि तोड़ने वाली मनमानी की। जयहिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं )
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