Death of innocent children, when will the chain stop? मासूम बच्चों की मौत, कब थमेंगा सिलसिला ? 

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सरकारें जनतांत्रिक जिम्मेदारी से विमुख होती दिखती हैं।राजनैतिक दल भावनात्मक मसलों को उभार कर सत्ता और सिंहासन के आसपास अपने को देखना चाहती हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मसले हासिए पर हैं। सरकारें सिर्फ नारों से देश चलाना चाहती हैं। राजस्थान में मासूम बच्चों की मौत कोई सामान्य घटना नहीं है। यह सरकारों और सिस्टम की मौत है। देश की यह कितनी तथ्यात्मक बिडंबना है कि चंद्रयान मिशन हम 100 अरब की व्यवस्था करते हैं लेकिन देश के भविष्य मासूम बच्चों की जान हमारे लिए कोई कीमत नहीं रखती। राजस्थान में निमोनिया और दूसरी बीमारियां से तो यूपी में दिमागी बुखार और बिहार में चमकी से मासूम बच्चों की मौत क्या साबित करती है। हमें क्या सरकार कहलाने का हक है। मौतों को तमाशा बना दिया जाता है। सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर अपनी गंदगी उछालते हैं। क्या सरकार से हटने के बाद राजनैतिक दलों की राज्य और उसकी जनता के प्रति जबाबदेही खत्म हो जाती है। सरकार और सत्ता से बाहर हुए लोग क्या मिल कर एक ऐसा नियोजन नहीं कर सकते जिससे बच्चों की मौत को रोका जाय। किसी भी मां की कोख सूनी न हो। खाद्य सुरक्षा के साथ हमने शिक्षा अधिकार भी ला दिया, फिर स्वास्थ्य का अधिकार सरकारों की नैतिक जिम्मेदारी कब बनेगी।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2017 में 14 साल की उम्र के 12 लाख 63 हजार बच्चों की मौत हुई। दुनिया में मरने वाले कुल बच्चों का यह 18.37 फीसदी है। हालांकि स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की वजह और चिकित्सा क्षेत्र में नये शोधों के जरिए भी तमाम बीमारियों पर हमने नियंत्रण हासिल किया है। जिसकी वजह से बच्चों की मौत में कमी आई है। लेकिन जितनी कामयाबी मिलनी चाहिए उसे हम नहीं हासिल कर सके हैं। 2017 में विपुल आबादी वाले देश चीन में 05 से 14 साल के 65 हजार बच्चों की मौत हुई जबकि पांच वर्ष के कम उम्र के 1.7 लाख बच्चों की मौत हुई। चीन में हुई मौतें भारत से 81 फीसदी कम हैं। देश में सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का बेहद अभाव है। राजस्थान के जेके लोन अस्पताल में मीडिया रिपोर्ट में जो खबरें आई हैं उसके मुताबित आईसीयू जैसे अति संवेदनशील जगह में वार्मर, नेमुलाइजर और दूसरी सुविधाओं का अभाव मिला है। परिजनों को बाहर से दवाएं लानी पड़ी हैं। राज्य के कई जिलों में यह आंकड़ा अब 300 के पार पहुंच गया है। कोटा में 107 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। यूपी के गोरखपुर के राघवदास मेडिकल में दिमागी बुखार से पीड़ित सैकड़ों कीम मौत हुई थी। इसके बावजूद भी शायद व्यस्थाएं सुधरे। सरकारों की नींद खुले। यह अपने आप में सोचनीय है।
सरकारी अस्पतालों पर स्वास्थ्य सुविधाओं की बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन वह इस जबाबदेही में कितनी ईमानदा है यह बहस का मुद्दा है। हमारे लिए कितने शर्म की बात है कि हम लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं तक मुहैया नहीं करा पाते हैं। क्योंकि सरकारों ने स्वास्थ्य को भी वोट बैंक का माध्यम समझा। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए बेहद कम बजट उपलब्ध कराया जाता है। स्वास्थ्य पर हम दो से तीन फीसदी तक का बजट उपलब्ध कराते हैं। साल 2017-2018 के लिए भी कुल जीडीपी का महज 1.28 फीसदी बजट उपलब्ध कराया गया। अब जरा सोचिए यह हमारे रक्षा बजट से 75 फीसदी कम था। फिर विकलांग व्यवस्था के जरिए बच्चों की मौत को कैसे रोक सकते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखंड, बिहार, हिमाचल, हरियाणा और असम की तुलना करें तो स्थिति बेहद बुरी है। संबंधित राज्यों में असम स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपने कुल वित्त बजट का 7.2 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। जबकि दूसरे नम्बर पर हिमाचल आता है इसका बजट 6.2 फीसदी है। राजस्थान जहां मासूम बच्चों की मौत सुर्खियों में वहां सिर्फ 5.6 फीसदी बजट उपलब्ध है। जबकि हरियाणा स्वास्थ्य पर सबसे कम 4.2 फीसदी खर्च करता है। जरा सोचिए, इतने कम बजट में हम कैसे बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं।
मासूम बच्चों की मौत पर हम दर्शन की बात करते हैं। सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से बचती हैं। दुनिया भर में तकरीबन 69 लाख बच्चों की मौत हर साल होती है। जिसमें भारत की भागीदारी 12 लाख से अधिक है। यह आंकड़े 05 से 14 साल तक के बच्चों के हैं। 2017 में 43 लाख नवजात शिशुओं की मौत पूरे दुनिया में हुई जिसमें भारत के 8.75 लाख नवजात शामिल थे। इस तरह देखा जाय तो कुल नवजात शिशुओं की मौत में तकरीबन 20 फीसदी भारत के थे। स्वास्थ्य सुविधाओं में बिहार के हालात बेहद बदतर हैं। यहां 10 हजार की आबादी पर महज तीन डाक्टरों की उपलब्धता है। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के मुताबिक साल 2017 में देश भर में 10 लाख एलोपैथिक डाक्टर पंजीकृत थे। जिसमें तकरीबन दो लाख निष्क्रीय थे। उस लिहाज से भारत में लगभग 1300 आबादी पर एक डाक्टर की उपलब्धता है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कम से कम 1000 हजार आबादी पर एक डाक्टर उपलब्ध होने चाहिए। 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के लगभग 25 फीसदी डाक्टरों के पास उस स्तर की योग्यता और दक्षता नहीं है जितनी होनी चाहिए। आधुनिक चिकित्सकीय विकास और शोध के माध्यम से हमने बच्चों की मौत को कम करने में कामयाबी भी हासिल किया है। 1990 में प्रति हजार बच्चों पर जहां 129 मासूमों की मौत होती थी। वहीं 2005 में यह 58 जबकि 2017 में यह 39 पर आ गया। लड़के और लड़कियों की मौत में भी अंतर आया है। पहले लड़कों के मुकाबले 10 फीसदी लड़किया अधिक मरती थी लेकिन 2017 के बाद यह आंकड़ा 2.5 फीसदी तक ठहर गया है। हांलाकि यह चिंता की बात है कि नवजात बच्चों की अधिक मौत होती है। भारत में 2017 में लगभग 10 लाख बच्चों की मौत हुई जिसमें 6 लाख से अधिक नवजात शामिल थे।
राजस्थान के कोटा, जोधपुर और बूंदी के बाद अब गुजरात भी शामिल हो गया है। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी का गृहराज्य है जिस पर सियासी बाबेला मचा है लेकिन इसका समाधान होना चाहिए। बच्चे किसी राज्य के नहीं देश की जागिर हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबित राजस्थान के जेके लोन अस्पताल में 6 साल में 6 हजार बच्चों की मौत हो चुकी है। अस्पताल में uइन्फयूजन पंप, वार्मर, नेमुलाइजर, वेंटिलेर और फोटोथेरेपी मशीनें खराब पड़ी हैं। आईसीयू में 24 बेड के लिए सिर्फ 12 स्टाप है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार 12 बेड पर 10 स्टाप होने चाहिए। जबकि एनआईसीयू में 42 विस्तर है जिसमें 20 का स्टाप है जबकि होना चाहिए 32 लोग। फिर सोचिए हम विकलांग व्यवस्था के भरोसे इस देश की स्वास्थ्य सुविधाओं से बेहतर इलाज का भरोसा कैसे दे पाएंगे। इस तरह के हालात केवल राजस्थान, गुजरात, यूपी और बिहार के नहीं हैं कमोबेश यह हालात पूरे देश की है। क्योंकि हमने स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिकता में नहीं रखा है। अस्पतालों में पर्याप्त डाक्टर, कर्मचारी, स्टाप नर्स उपलब्ध नहीं है। साफ-सफाई का अभाव है। दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। स्वास्थ्य बीमा के हालात ठीक नहीं हैं। इस तरह से हम देश को नहीं चला सकते हैं।शिक्षा के साथ स्वास्थ्य भी लोगों के मूलभूत अधिकार में शामिल है।
सरकारों को अपने दायित्व को समझना चाहिए। केंद्र और राज्यों के झगड़े से अलग हट कर सोचना चाहिए। मासूम बच्चों की मौत एक राष्टीय मसला है। केंद्र सरकार को इस पर गंभीरता से कमद उठाने चाहिए। सरकारी अस्पतालों की दशा और दिशा पर एक आयोग गठित करना चाहिए। मूलभूत सुविधाओं, बेहतर दवाओं, स्वच्छता, एबुलेंस, योग्य और विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता पर एक रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए। आयुष्मान भातर जैसी योजना को और बेहतर तरीके से लागू करना चाहिए। स्वास्थ्य बजट पर अधिक खर्च करना होगा। इसका लाभ और लोगों को तक पहुंचना चाहिए। चिकित्सा संस्थानों की जिम्मेदारी तय करनी होगी। मासूम बच्चों की मौत हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म है। राष्ट्रीय विकास के लिए हमें राजनीतिक गोलबंदी से बाहर आना चाहिए। केंद्र सरकार का नैतिक दायित्व बनता है कि वह मासूम बच्चों की मौत के लिए सख्त कदम उठाए।
– प्रभुनाथ शुक्ल