पिछले हते कानपुर के पास आठ पुलिस कर्मियों को गोली मारने के आरोपी अपहृत गैंगस्टर के रहस्यमय हालत में मौत के सवाल उठाए गए हैं.शुक्रवार की सुबह ड्यूबे को विशेष टास्क फोर्स की टीम ने अपने गांव के पास “असाधारण न्यायिक हत्या में गोली मार दी थी, जबकि उन्हें उज्जैन से मध्य प्रदेश में वापस लाया गया.दोन ने गुरुवार को महाकाल मंदिर के बाहर आत्मसमर्पण कर दिया और दूसरे दिन खाकी के आदमियों ने उसे मार डाला।
दुबे को चुप कराने का एकमात्र उचित कारण यह था कि अगर पुलिस हिरासत में उन्होंने बीन्स को गिरना शुरू कर दिया होता तो प्रभावशाली राजनीतिक समेत कई प्रभावशाली लोग, पुलिस अधिकारियों और नौकरशाहों ने खुद को नेताओं, बाबुओं, व्यवसायियों और दारोगों के बीच विद्यमान मजबूत गठजोड़ में फंसा पाते.किसी भी मामले में, दुबे राज्य के मानकों द्वारा एक बड़ा समय अपराधी नहीं था;उसके सिर पर 50,000 रु. का मूल्य था, जब तक उसने पुलिस की हत्या नहीं की, जिससे 5 लाख रु. की रियायती राशि बढ़ी।
इसलिए मुद्दा यह है कि कानून के शासन का उसके जीवन को समाप्त करने के लिए कड़ाई से उल्लंघन क्यों किया गया?जिस अहम् प्रदेश के लोगों से उनका परिचय था, उसी संप्रदाय से संबद्ध मध्य प्रदेश का नाम, जिसका संदिग्ध रूप से संबंध था, उन लोगों में प्रमुखता से आया।माना जाता है कि इस “सज्जन” ने उज्जैन में अपने समर्पण या नकली गिरफ्तारी का आयोजन किया है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि ड्यूबे के पास पुलिस-तंत्र में मोल और इंजिनर थे, जिन्होंने उनके घर पर हे हमले के सिलसिले में जिस पर उन्हें इशारा किया था, वह पुलिस के आठ कर्मचारियों की क्रूर हत्याकांड की ओर ले गया था.एक और हैरत की बात यह है कि जगह से हट जाने के बजाए वे पहले ही अपने घर पर ही ठहरे हुए थे?वह इस अपराध-जगत् का एक अंग था, यह जानने के लिए कि एक पुलिस-दल को मार गिराया गया है, वह कानून के चंगुल से अलग नहीं हो सकता।बहुत संभव है कि वे आश्वस्त रहें कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा।
अपने गांव से भाग जाने के दौरान गैंगस्टर की प्रमुख पदाधिकारियों ने नेविगेट किया.उनके आह्नादेश से स्पष्ट था कि कानून से बचने में उनकी मदद कर रहे लोगों की पहचान की जा सकती है।फिर भी, अब जबकि वह मर चुका है, तो कई लोग राहत की सांस लेंगे, क्योंकि उन पर नाखून लगाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिलेगा।वे निस्सहाय भाव से अपने दुबले-पतले रास्तों पर चलते रह सकते हैं और उन्हें समर्थन देने के लिए नए ‘विकास दुबे’ होते हैं.यह सर्वविदित तथ्य है कि विभिन्न राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में जाति, अपराधी, पुलिस और राजनीतिज्ञ संपर्क में फलता-फूलता है.एन. एन. वोरा रिपोर्ट, जो उत्तर खंड में धूल एकत्र कर रही है, ने इसकी मिलीभगत का उल्लेख किया था.दुर्भाग्यवश, किसी भी सरकार ने इसी प्रासंगिक दस्तावेज पर अमल करने की प्रवृत्ति नहीं दिखाई है।
इस बात का तुरंत पता नहीं लगाया जा सकता था कि क्या ड्यूबे की जाति के सदस्यों ने उसकी मृत्यु पर अपना रोष व्यक्त किया था, इस आरोप के बावजूद कि क्या उस पर अपने ही समुदाय के कई लोगों की हत्या का आरोप लगाया गया था।पाषाण की नमूने यह है कि अतंरभूमि में सक्रिय अधिकांश अपराधियों को अपनी जातियों द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है और इसलिए, कई अवसरों पर, पुलिस को पर्ची देने में समर्थ हो जाते हैं.अवैध रूप से अपराधियों का विनाश करने के लिए हत्या का सामना एक आयु पुराना तरीका है, जिसे दुनियाभर में पुलिस बलों ने अपनाया था.उनका मानना है कि अदालत भयानक अपराधियों के खिलाफ गवाही देने से इनकार करने वाले प्रमुख गवाहों के साथ फैसला पाने के लिए काफी समय लेती है.अत: सुरक्षित उपाय यह है कि हम कानून को अपने हाथों में ले लें और उनसे अलग हो जाएं, जबकि यह घोषणा करते हुए कि वे भागते समय मर चुके हैं।
फिर भी, कई पुलिस अधिकारी ऐसे रहे हैं जो अपराधी को बड़ी सावधानी से निकाल फेंकने में सफल रहे हैं-चूंकि उन्हें जिंदा पकड़ेकर लिया गया है, यह वास्तव में असंभव कार्य है.पिछले हते जब पुलिस पार्टी ड्यूबे को गिरफ्तार करने गई तो उनके लिए घात में भारी हताहत होने लगी.उत्तर भारतीय उप. प्र. के प्रख्यात पुलिस अधिकारियों, जिनमें जयराज शर्मा और विक्रम सिंह भी शामिल हैं, ऐसी अनेक कथाएं हैं जो अवैध नियमों के व्यवहार और मनोविज्ञान को दर्शाते हैं और वे किस प्रकार अपनी कमजोरियों, दर्प और अंहकार से प्रायः शिकार होते हैं।ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमें एक गैर-कानूनी मुठभेड़ के कारण उन पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी हुई है, जिन्हें कुख्यात जनता के साथ जेल की सजा देनी पड़ी है।दिल्ली में सबसे अधिक उल्लेख सुंदरदकू से किया गया है जो 1970 के दशक के मध्य में पुलिस दल द्वारा यमुना में डूब गया था क्योंकि उसने संजय गांधी की हत्या की धमकी दी थी।वरिष् अधिकारी-प्रीतम सिंह भिंदर-ने (इसके बाद 1980 में दिल्ली पुलिस प्रमुख बने) और गुरचरण सिंह ने और उनके साथ आधे दर्जन पुलिस कार्मिकों को इस मामले में जेल में फंचाया।
हाल ही की घटना में उत्तर प्रदेश की पुलिस को यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि क्या उसने उज्जैन से कानपुर जाने के लिए दुबे का रिमांड ले लिया था.इससे पहले क्या मध्य प्रदेश पुलिस उन्हें अपनी गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती थी?पुलिस काफिले के साथ मीडिया वाहन क्यों थे, मुठभेड़ से कुछ ही समय पहले एक टोलकैसे ड्यूबे, एक भारी-भरकम आदमी, एक एसयूवी से निकल गया, जो “टॉप-टाई” से निकल गया था-सर्विस पिस्तौल छीनने का मैनेजमेंट कर रहा था, जिसे सामान्य प्रक्रिया के तहत पुलिस के साथ एक चेन से बांधा जाना चाहिए था?अगर वह अपने बचचे हुए लंगड़ा होते हुए भी भाग रहा होता तो संदिग्ध व्यक्ति ने उसकी छाती पर गोली से चोट क्यों नहीं पहुंचाई?या यह है कि कोई जवाब नहीं आ रहा है, क्योंकि मृत लोग कोई कहानियां नहीं बताते हैं हमारे बीच।