दो साल पहले राजस्थान शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाने लगा कि राणा प्रताप मुगल सेना से युद्ध जीते थे। महत्मा गांधी की हत्या के आठ आरोपियों में एक हिंदू महासभा के प्रमुख विनायक दामोदर सावरकर भी थे। पर्याप्त सबूत न होने के कारण उनको अदालत ने आरोपमुक्त कर दिया था। अब उनके गुणगान का इतिहास जोड़गांठ कर बनाया जा रहा है। उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत करने की तैयारी है। नित नई कहानियां सामने आ रही हैं। कई कायरों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खिलाफ साजिशें रचने वालों को राष्ट्रवादी बताकर युवा पीढ़ी को नया इतिहास पढ़ाया जा रहा है। एक तरफ देश का युवा गुणवत्ता विहीन शिक्षा और बेरोजगारी के संकट से गुजर रहाहै, तो दूसरी तरफ उसे मनगढ़ंत ज्ञान देकर उपहास का पात्र बनाये जाने की तैयारी है। इस नये ज्ञान से उसको न व्यवसायिक लाभ मिल रहा और न ही उसका कौशल विकसित हो रहा है। थोपे जा रहे इस ज्ञानरूपी भंवर में फंसकर वह अज्ञानी जरूर बन रहा है। वैश्विक जीवन में उसे जो ज्ञान चाहिए,सरकार और संस्थाएं उसे सहजता से उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं। प्रतिस्पर्धा के दौर में उसे उस शिक्षा की जरूरत है जिसके जरिए वह तकनीकी और वैज्ञानिक रूप से सबल बन सके। व्यवहारिक जीवन में कार्यशीलता प्राप्त कर सके, न कि किसी सियासी विचारधारा के एजेंडे को पूरा करने का यंत्र मात्र।
पिछले सप्ताह हमारे कुछ मित्र देश के विभिन्न हिस्सों से आये थे। एक बुद्धिजीवी मित्र ने कहा कि हमें जो इतिहास पढ़ाया गया, वह सिर्फ एक समुदाय का ही था। हमने उनसे सवाल किया कि आपने इतिहास पढ़ा कहां है? सिर्फ इसलिए आप शोर मचा रहे हैं क्योंकि आपके एजेंडे पूरे नहीं होते। हड़प्पा की सभ्यता से लेकर, ईसा पूर्व तक, फिर ईसा से लेकर मुस्लिम आक्रमणकारियों के आने तक, उसके बाद मुगलकाल तक और फिर अंग्रेजी हुकूमत तथा उसके बाद तक का इतिहास पाठ्यक्रम में मौजूद था, तो फिर आपने यह पढ़ा क्यों नहीं? हमने यह भी सवाल किया कि अगर आपको इतिहास में अधिक रुचि थी तो हर कालखंड की शोधपरक पुस्तकें मौजूद हैं, उन्हें क्यों नहीं पढ़ा? अब इतिहास को तोड़ मरोड़ के प्रस्तुत करने से सच तो नहीं बदल जाएगा। अगर कुछ संगठनों और व्यक्तियों के गुणगान के लिए इतिहास में बदलाव कर रहे हैं, तो इससे देश, समाज या विश्व को भविष्य में क्या लाभ होगा? देश की मौजूदा जरूरतें क्या हैं और भविष्य में किस तरह के ज्ञान की आवश्यकता होगी? इस पर चिंतन क्यों नहीं करते? देश और उसके युवाओं का भविष्य खुशहाल बने, इस ज्ञान के लिए तकनीक विकसित करने पर जोर क्यों नहीं देते? उनके पास जवाब नहीं था।
हम वैश्वकि जीवन जी रहे हैं। दुनिया में कहीं भी कोई घटना होती है, तो भले ही एक राज्य या देश छिपाने की कोशिश करे मगर वैश्विक दुनिया में वह देखी जाती है। बौद्धिक चर्चा में पूरे विश्व की घटनाओं की समीक्षा की जाती है। वह चाहे इतिहास के पन्ने हों या वर्तमान में हो रही घटनाएं। वैश्विक दुनिया में इतिहास की किसी घटना को तब ही मान्यता मिलती है, जब उसके तथ्यों को वैज्ञानिक और तार्किक रूप से सिद्ध किया जाता है। ऐसा नहीं है कि कोई भी महाकाव्य लिख दे और उसे वास्तविकता मान लिया जाये। इतिहास में यह भी जिक्र किया जाता है कि किस काल खंड में राज्य की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक स्थिति कैसी थी। उस राज्य की सीमाएं कैसी थीं और वहां का जीवन कैसा था। किस व्यक्ति का किस क्षेत्र में क्या योगदान था। स्थापत्य कला और धार्मिक दशा कैसी थी। इन सभी तथ्यों पर इतिहासकार चर्चा करते हैं। उसमें सिर्फ शासक का ही जिक्र नहीं होता बल्कि उन लोगों का भी होता है जिन्होंने शासन सत्ता और राज्य को बेहतरीन दिशा दी। कला संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए किये गये राजकीय और गैरशासकीय प्रयासों पर भी बात की जाती है। ऐसे में जरूरी है कि हम इतिहास से छेड़छाड़ करके अपने महिमा मंडन की कहानी न गढ़ें, बल्कि हुई गलतियों से सबक लें और अच्छी नीतियों का लाभ उठायें।
इस वक्त हमारा देश आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। बेरोजगारी हालात को और बिगाड़ रही है। देश का भविष्य युवा वर्ग दिशाहीन हो रहा है। गरीबी और भुखमरी की हालत यह है कि ह्लग्लोबल हंगर इंडेक्सह्व में हमारा देश शर्मनाक स्थान पर पहुंच गया है। कभी जिन देशों के लोगों का पेट भरने में हमारी अहम भूमिका होती थी, वे देश हमसे बेहतर हो गये और हम बदतर हालात में चले जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने अनुमान में भारत की विकास दर को पहले से नीचे गिरा दिया। मूडीज ने भी भारत की विकास दर बेहद नीचे पहुंचने का अनुमान लगाया है। भाजपा के राज्यसभा सदस्य अर्थशास्त्री सुब्रमणियम स्वामी ने कहा कि आंकड़ों में हेराफेरी की जा रही है। सरकार का विकास दर को लेकर जो आंकलन पेश किया गया उससे जीडीपी 2.5 फीसदी कम रहेगी। पिछले सप्ताह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अर्थशास्त्री पति पराकला प्रभाकर ने अपने एक लेख में कहा कि सरकार को अगर अर्थव्यवस्था सुधारनी है तो उसे पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और नरसिंम्हाराव की अर्थ नीतियों को अपनाना चाहिए। सरकार मंदी की वास्तविकता को नकार रही है। उधर, वित्तमंत्री ने न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दावा किया कि डा. मनमोहन सिंह और रघुरमन राजन की अर्थनीति दोषपूर्ण थी, जिससे अर्थव्यवस्था बिगड़ी। डा. मनमोहन सिंह लगातार सरकार को गलत दिशा मे जाती अर्थनीति से होने वाले नुकसान के प्रति सचेत करते रहे हैं। सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया और आलोचनाओं में व्यस्त रही।
समस्या यही है कि हम इतिहास बदलने की धुन में मनगढ़ंत कहानियां और नीतियां रचते हैं।इससे नुकसान होना तय है, क्योंकि हम सुधार की बात नहीं करते। निर्णायक पदों पर बैठे लोगों ने देश की जरूरतों और पुरानी गलतियों को सुधारकर काम करने पर जोर नहीं दिया बल्कि अपनी मर्जी के मुताबिक तथ्यों और घटनाओं को परिभाषित करके सिर्फ पिछले शासन को लांछित करने का काम किया है। इसका नतीजा यह हुआ कि गलत आंकड़ों और मनमानी समीक्षा में हम उलझ गये। इससे संकट कम होने के बजाय बढ़ता गया। पूर्व की कमियों में सुधार के बजाय जिम्मेदार लोग जिद पर अड़े रहे, जिससे हालात बद से बदतर हुए। नीतिनियंताओं ने देश की सीमाओं से लेकर अर्थव्यवस्था तक में अपने सियासी एजेंडे के मुताबिक काम किया। जिस कारण उद्योग-धंधे बुरी तरह प्रभावित हुए और बेरोजगारी बढ़ी। सीमावर्ती क्षेत्रों में मनमानी का नतीजा है कि हम अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ मधुर संबंध स्थापित नहीं कर पा रहे। राजनीतिक स्थिरता के बावजूद अशांति का माहौल बना हुआ है। हालात यह हैं कि वैश्विक स्तर पर हमें अपमानित होना पड़ रहा है। देश संकट में फंसा है।इसका हल जल्द निकलता नहीं दिख रहा। हमारे नीतिनियंताओं को इस विषय पर खुले दिल से चिंतन करने की आवश्यकता है। अगर वक्त रहते ऐसा नहीं हुआ तो हमारे पास पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचेगा।
जयहिंद
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)