शायर मुनव्वर राना की ये पंक्तियां देश भर में मजदूरों का हाल बयां कर रही हैं। कोरोना संकट की भेंट चढ़कर बेरोजगार हुए मजदूरों के साथ कदम-दर-कदम अमानवीयता के नए-नए पैमाने गढ़े जा रहे हैं। कहीं मजदूर रेल पटरी की गिट्टियों पर सोते हुए जान गंवा रहे हैं, तो कहीं सड़क दुर्घटना उन्हें मौत के मुंह में ले जा रही है। पूरे देश में अव्यवस्था का माहौल है, जिसके साथ ही देश को अमानवीयता की पराकाष्ठा का सामना भी करना पड़ रहा है। इन सबके बीच भी राजनीति हो रही है और मजदूर उस राजनीति की भेंट चढ़ रहे हैं।
कोरोना संकट की सबसे गहरी व खतरनाक गाज रोज कमाने-खाने वाले मजदूरों पर ही पड़ी है। दरअसल कोरोना से बचाव के लिए अब तक चल रहे लॉकडाउन के कारण अचानक दस करोड़ से अधिक लोगों को बेरोजगारी संकट का सामना करने के लिए विवश होना पड़ा है। इनमें से से एक तिहाई से अधिक ऐसे हैं जो अपने राज्यों से इतर दूसरे राज्यों में मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे थे। ऐसे मजदूर अप्रवासी मजदूर की श्रेणी में आए और वे सब अब अपने घर पहुंचने के लिए व्याकुल है। उनकी इस व्याकुलता के सकारात्मक समाधान की जिम्मेदारी सरकारों की है, किन्तु सरकारों की प्राथमिकताओं में ये मजदूर रहे ही नहीं। भारत सरकार की पहल स्थापित स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क (एसडब्ल्यूएएन) की हेल्पलाइन नंबर पर आई शिकायतों को आधार बनाकर किये गए आंकलन में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। पता चलता है कि मजदूरों में तीन चौथाई से अधिक को लॉकडाउन अवधि की मजदूरी ही नहीं मिली। सरकार हर मजदूर तक राशन पहुंचाने का दावा करती है किन्तु एसडब्ल्यूएएन का आंकलन बताता है कि 80 प्रतिशत से अधिक मजदूरों को सरकार की ओर से राशन नहीं मिल सका है। इन मजदूरों को भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। 60 प्रतिशत से अधिक मजदूरों के पास तो औसतन सौ रुपये के आसपास ही बचे हैं। ऐसे में रोजगार जाने, पैसे न बचने और भविष्य के प्रति नाउम्मीदी उन्हें वापस अपने घर की ओर ले जाना चाहती है। घर जाने के लिए पर्याप्त बंदोबस्त न होने से स्थितियां अराजक सी हो गयी हैं और पूरे देश में मजदूर परेशान हैं। पहले दो दौर के लॉकडाउन में मजदूरों को लेकर हर स्तर पर रणनीतिक विफलताओं के बाद सरकारें कुछ चेतीं, किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और पूरे देश में मजदूरों का मरना शुरू हो चुका था। पूरे देश से मजदूरों की मौत की खबरें आ रही हैं और सरकारें हर स्थिति का आंकलन अपने हिसाब से कर रही हैं। मजदूर घर जाना चाहते हैं और इसके लिए बचत की हुई धनराशि तक खर्च करने के लिए तैयार हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र में जगह-जगह मजदूरों की भीड़ उन्हें लाखों की संख्या में स्टेशन पहुंचा देती है और गुजरात में तो यही मजदूर डटकर पुलिस की लाठियों तक का सामना कर रहे हैं। दरअसल मजदूर हर स्तर पर खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। जब सरकारों ने उन्हें वापस भेजने व बुलाने के बड़े-बड़े दावे किये तो लगा कि सब ठीक हो जाएगा, किन्तु ऐसा हो न सका। जब इन दावों ने हकीकत की सड़क पर उतरना शुरू किया तो मजदूरों के साथ छलावा साफ दिखा। रेल के पहिए दौड़ने तो शुरू हुए किन्तु मजदूरों को पेट काटकर किराया देना पड़ा। सड़क पर वाहन दौड़े तो मजदूरों को कोरोना संकट के दौरान जरूरी न्यूनतम बचाव के उपाय के बिना भूसे की तरह भरकर यात्रा के लिए विवश होना पड़ा। कई बार तो लगता है कि राज्य सरकारें चाहती ही नहीं हैं कि मजदूर उनके राज्यों से वापस जाएं। उन्हें अपने घर जाने देने से रोकना कई बार उन्हें बंधक बनाए रखने जैसी अनुभूति प्रदान कराता है। बंधक बने रहने का यही भाव छूटते ही भाग खड़े होने की ताकत देता है और देश भर में मजदूर यही कर रहे हैं। कभी वे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं तो कभी साइकिल से लंबी यात्राएं करने को मजबूर हैं।
सरकारों की उदासीनता व अराजक नियोजन के कारण मजदूरों को हो रही परेशानी के बीच राजनीति के रंग भी निराले हो रहे हैं। पूरी दुनिया के साथ भारत कोरोना जैसी अंतर्राष्ट्रीय आपदा से लड़ तो रहा है किन्तु अव्यवस्थाओं के बीच राजनीति कोरोना से जूझते लोगों को निराश ही कर रही है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2019 में श्रमशक्ति भागीदारी दर 49.3 प्रतिशत रह गयी थी। इसी तरह सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के ताजा आंकड़े भी भारत में बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत की ऊंचाई तक पहुंचने की बात कहते हैं। ऐसे में जरूरी है कि राजनीति को भूलकर अगले कुछ वर्ष मानवीय आधार पर चिंता करने की तैयारी की जाए। लोग एक दूसरे की मदद को आगे बढ़ें और सरकारें अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करें।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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