Cottage industries spread at district, tehsil and village level: जिला,तहसील और ग्राम्य स्तर पर फैलें कुटीर उद्योग

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भारत समेत दुनिया के 80 देशों में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर अवकाश रहा। मजदूर दिवस पर हर साल मजदूरों के संगठन अपनी बात रखते हैं लेकिन इस बार कोरोना ने उनकी वह हसरत भी पूरी नहीं होने दी। भारत में महाबंदी चल रही है, इसके चलते सभाएं वैसे भी होनी नहीं थी। सो सोशल मीडिया ही मजदूरों की बात रखने का सहारा बना। इस बार जो भी किया, सरकार ने किया। अलग—अलग राज्यों में लॉकडाउन के चलते लाखों मजदूर फंसे हुए हैं। केंद्र और राज्य सरकारें मजदूर दिवस पर बसों और स्पेशल ट्रेनों के जरिए उन्हें उनके घर पहुंचाने की पहल कर रही हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों की प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन, साथ ही इस तथ्य पर भी विचार होना चाहिए कि लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए निजी क्षेत्र के मजदूरों की उनके संस्थानों के स्तर पर अनदेखी की गई। बिना मजदूरी दिए उन्हें निकाल दिया गया। लॉकडाउन तक के लिए फैक्टरियों के दरवाजे बंद कर दिए गए। ऐसे में फैक्ट्री परिसर में रहने वाले मजदूरों के सिर से छत और मुंह से भोजन का निवाला छिन गया है। पैसा न मिलने से उन्हें तिहरी समस्या झेलनी पड़ी। सरकार ने निजी क्षेत्र के प्रबंधनतंत्र से अपील  तो की लेकिन वह उन पर वांछित प्रभावी दबाव नहीं बना पाई। निजी प्रबंध तंत्र ने  अपने आर्थिक हितों को तो सर्वोपरि रखा लेकिन इस बात की चिंता करना मुनासिब नहीं समझा कि अर्थाभाव में मजदूरों का गुजारा कैसे होगा? जिन मजदूरों की बदौलत उन्हें लाभ होता था, उन्हें ही उन्होंने बेगानों की तरह किनारे कर दिया।
केंद्र और प्रदेश सरकारों ने मजदूरों को आर्थिक मदद दी भी लेकिन उसकी मदद का लाभ तो उन्हीं मजदूरों को मिला जो श्रम विभाग में पंजीकृत थे लेकिन बाकी के करोड़ों मजदूर तो सरकारी इमदाद का लाभ भी न पा सके। इसमें संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आलोचनाओं के वार झेलते हुए भी देश के विभिन्न राज्यों में फंसे अपने राज्यों के मजदूरों को बस से वापस लाने की पहल शुरू की। मजदूर दिवस के अवसर पर भी योगी आदित्यनाथ सरकार  गुजरात में फंसे श्रमिकों को उनके घर ले आई। मजदूर दिवस पर इससे  बेहतरीन तोहफा मजदूरों के लिए भला और क्या हो सकता है? उत्तर प्रदेश की देखा—देखी अन्य राज्यों ने भी मजदूर दिवस को यादगार बनाने का प्रयास किया। केंद्र सरकार ने तो देश के 6 प्रमुख रेल मार्गों पर श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाकर श्रमिकों की परेशानियां दूर करने का प्रयास किया। इस लिहाज से देखें तो यह श्रमिक दिवस अन्य श्रमिक दिवसों के मुकाबले कहीं अधिक उपयोगी रहा।
यह और बात है कि विभिन्न राज्यों के श्रमिकों को उनके घरों तक पहुंचाने में कई दिन लगेंगे लेकिन आगाज हो गया है तो अंजाम को तो सामने आना ही है।मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दावा किया है कि उनकी सरकार मध्य प्रदेश के करीब 50 हजार प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचा चुकी है। बिहार के मुख्यमंत्री पहले तो जो जहां है, वहीं रहे की रीति—नीति पर अड़े थे लेकिन जब केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों की समस्या के समाधान का निर्णय लिया तो उन्हें भी इसके लिए केंद्र सरकार के निर्णय का स्वागत करना पड़ा। यह और बात है कि उनकी जो जहां है, वहां की रीति—नीति ने बिहार के प्रमुख राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को राजनीति करने का अवसर भी प्रदान कर दिया है। प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर राजद नेताओं का श्रमिक दिवस पर अपने—अपने आवास पर उपवास तो कमोवेश इसी ओर इशारा करता है। मजदूरों के लिए उपवास करने से बात नहीं बनती। मजदूरों को सुरक्षित उनके घर पहुंचाना बड़ी बात है लेकिन उनकी आजीकिवका का मुकम्मल प्रबंधन भी किया जाना चाहिए।
हर राज्यों को चाहिए कि वे अपने राज्य में हर जिला,तहसील,ब्लॉक और ग्राम्यस्तर पर कुटीर उद्योगों का जाल बिछाएं। कुछ ऐसी कार्य योजना बनाएं जिससे उनके राज्य के श्रमिकों को अन्य राज्यों में जाने की जरूरत ही न पड़े। राजतंत्र में इसी तरह की व्यवस्था थी। लोकतंत्र में भी क्या इस तरह के प्रयास किए जा सकते हैं, इस देश के नीति—नियंताओं को इस पर विचार करना चाहिए। हजार—दो हजार की सहायता फौरी मदद का हिस्सा हो सकती है लेकिन इस देश को श्रमिक समस्या के स्थायी समाधान पर विचार करना होगा। जो जहां है, वहीं रहे की व्यवस्था तभी संभव है जब रोजगार की उपलब्धता हो। भोजन—पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रबंध हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 में कहा भी था कि कुछ ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे किसी बेटे को अपने बूढ़े बाप को घर पर छोड़कर शहर न जाना पड़े लेकिन इस देश की राजनीति और नौकरशाही दोनों ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया वर्ना समस्या के समाधान के लिए 6 साल कम नहीं होते।
गौरतलब है कि भारत की कुल श्रम शक्ति का 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जिसमें 65 प्रतिशत महिलाएं हैं। महिला श्रमिक कृषि, निर्माण कार्य, गृह उद्योग, कालीन बुनाई, जैसे असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत हैं। वे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संरक्षण से दूर हैं। भारतीय संविधान में समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान है लेकिन ग्रामीण एवं खासतौर पर असंगठित क्षेत्रों में इसका पालन होता नजर नहीं आता। देश में महिला कर्मचारी को पुरुष अपेक्षा औसतन 62 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती है। लॉकडाउन में तो वह भी मिलनी दूर हो गई है। कल—कारखाने बंद हो गए हैं। सरकार  आरेंज जोन और ग्रीन जोन में कुछ कारोबारी माहौल बनाना चाहती है, इसमें वह कितना सफल होगी, यह तो दैव जाने लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि रोजमर्रा की जिंदगी जीने वाला इंसान जब एक दिन काम नहीं करता तो वह कई दिन पीछे चला जाता है। देश की अर्थव्यवस्था के साथ भी कमोवेश यही बात है।
लॉकडाउन के दौरान  आई अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट तो दिल दहला देने वाली है। इसमें कहा गया है कि कोरोना महामारी के चलते इस साल की दूसरी तिमाही में 19.5 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियां चली जाएंगी। यह बेहद चिंताजनक बात है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वाधिक खतरा पूरी दुनिया में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले दो अरब लोगों को है। भारत, नाइजीरिया और ब्राजील में असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। भारत में लगभग 90 प्रतिशत कामगार असंगठित क्षेत्र में ही काम करते हैं। आईएलओ का  मानना है कि भारत में कोरोना जन्य लॉकडाउन के चलते  40 करोड़ श्रमिकों की माली हालत और खराब हो सकती है। भारत में गरीबी बढ़ सकती है। लॉकडाउन से दुनिया के तमाम देश चिंतित हें लेकिन भारत के लिए तो यह स्थिति भयावह भी है और चिंताजनक भी।
सरकार  श्रमिकों को मुफ्त खाद्यान्न, मुफ्त गैस के सिलिंडर, विधवाओं, बुजुर्गों और विकलांगों को 1 हजार रुपये और जन धन खातों वाली 20 करोड़ महिलाओं को तीन महीने तक 500 रुपये प्रति माह दे रही है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है और अदालत से अनुरोध किया है कि  वह  सरकारों को गरीबों को सीधी आर्थिक मदद देने के लिए कहे, लेकिन अदालत ने अभी तक इस याचिका पर अपना फैसला नहीं सुनाया है। कोरोना के मरीज जिस तरीके से मिल रहे हैं, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि जल्द ही इस देश को लॉक डाउन से निजात मिलने वाली है।
लोग लंबे समय तक घरों में सिमटे रहे तो औद्योगिक गतिविधियां लगभग ठप हो जाएंगी। आय के स्रोत घट जाएंगे। यह स्थिति बहुत मुफीद नहीं है। धन का प्रवाह बना रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब सब काम करते रहें। कोरोना से बचने के लिए सामाजिक दूरी जरूरी है। ऐसे में एक तिहाई कर्मचारियों की हर दिन वैकल्पिक व्यवस्था के तहत छोटे उद्योगों को शुरू करने की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे लोगों का काम भी मिलेगा और सरकार को भी राहत पर विशेष खर्च नहीं करना पड़ेगा। श्रमिक दिवस पर मजदूर अपनी बात भले न कह पाएं हों लेकिन सरकार को उनका दर्द समझना चाहिए। वे जहां हैं,उनके हाथों को वहीं काम और काम का वाजिब दाम मुहैया कराया जाना चाहिए। हर जिले में एक या दो बड़े औद्योगिक शहर तो विकसित होने ही चाहिए। सरकार के लिए यह कठिन भी नहीं है। राजनीतिक इच्छा शक्ति हो, उचित रणनीति बने तो नामुमकिन कुछ भी नहीं।

सियाराम पांडेय ‘शांत’

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. य़ह इनके निजी विचार हैं)