Corona’s politics! कोरोना की राजनीति!

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अधिकांश लोग हतप्रभ हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा, कि कोरोना वायरस के कारण विश्व भर में उत्पात मचाये कोविड-19 कैसी बीमारी है, जो लोगों को आइसोलेशन की तरफ धकेल रही है। जब समाज में परस्पर प्रेम, सद्भाव, निकटता और संवाद पर जोर हो, तब यह बीमारी हमें अकेलेपन में जाने की सलाह देती है, और आपसी संवाद से हमें विलग करती है। यह कोई बीमारी है, या राजनीति का वैश्विक शिगूफा? अभी तो लोग भयाक्रांत हैं, लेकिन यह सवाल उठेगा जरूर, कि यह असल में कोई बीमारी थी?

पूरा विश्व आजकल आर्थिक महामारी की तरफ है। मार्केट में खरीदार कम हो रहे हैं और उत्पाद खूब हैं। लेकिन किस तरह के उत्पाद? सिर्फ विलासता के और आपसी मारकाट करने के। मानवता की सेवा के उत्पाद न के बराबर हैं। अब नजीर सामने है, जब पता चल रहा है, कि किसी भी मुल्क में न तो पर्याप्त संख्या में चिकित्सक हैं, न अस्पताल और न ही मेडिकल किट। तब फिर क्या लाभ हुआ, इस तरह के विकास का, जो सिर्फ लड़वाता है!

चीन से फैला यह हौवा आज पूरी दुनिया में तहलका मचाये है। दुबई और सउदी अरब जैसे गर्म देश भी सहमे हैं और अमेरिका, योरोप जैसे ठन्डे मुल्क भी। यह सच है, कि भारत में अभी यह बीमारी अपने शुरुवाती चरण में है, लेकिन सरकार इसको जिस तरह से प्रचारित कर रही है, वह मसला गंभीर है। इसे रोकने के जो कदम उठाये हैं, उन्होंने और अफरा-तफरी फैला दी है। सोचना यह था, कि इसे रोकने के कौन-से कदम उठाये जाएं, सरकार ने पूरे देश में लॉक डाउन कर दिया। यह कोरोना वायरस फ़ैल सकता है, इसलिए इसे यहाँ आयात करने वालों पर अंकुश लगाना था, लेकिन सरकार ने लगा दिया उन लोगों पर, जिन्हें रोज कमाने पर ही रोटी नसीब होती है। जबकि उन बेचारों का इस बीमारी को भारत लाने में कोई दोष नहीं है।

सरकार अगर तीन महीने पहले से ही हवाई अड्डों पर सघन चिकित्सकीय जांच शुरू कर देती और विदेशों से देश आने वालों को चौदह दिनों तक आइसोलेशन में रहने का निर्देश देती, तो यह बीमारी भारत में कतई न फैलती। यह बीमारी गरीबों द्वारा नहीं ली गई है, न गन्दगी के कारण पनपी है। यह तो खूब खाते-पीते और अमीर लोगों के जरिये भारत आई है। क्या जरूरत थी, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भारत बुलाने की? क्यों नहीं हवाई अड्डों की चौकसी की गयी? दुबई, सउदी या योरोप, अमेरिका और कनाडा से भारत आने वालों को सख्ती के साथ अलग रखने को विवश किया गया? महंगी कारों, विलासिता की सामग्री और अनाप-शनाप खां-पान पर क्यों नहीं रोक लगे गई? आदि तमाम सवाल हैं, जिन पर सवाल खड़े किये जाएंगे।

दरअसल हमारे राजनीतिक कर्णधारों ने कभी भारत की असल बीमारियों को पहचाना ही नहीं। हमारे देश की जलवायु के कारण मलेरिया ही हमारे यहाँ की सबसे बड़ी बीमारी है। हर साल लाखों लोग इसकी चपेट में आकर जान गंवाते हैं। दूसरी बीमारी है, जो गरीबी के चलते पनपी और वह है, तपेदिक अर्थात टीबी। चूंकि देश में गरीबी बहुत है, इसलिए पौष्टिक भोज्य सामग्री अधिकांश लोगों को मिल नहीं पाती। ऊपर से देश की अधिकांश जनता शाकाहारी है। इसलिए वे जरूरी पोषण तत्त्व नहीं पा पाते। कितने लोग हैं, जो नियमित फल और मेवे खा सकते हैं? शायद बहुत कम। और जो सक्षम हैं, उनमें कोई करुणा का भाव नहीं, कि वे दूसरों को दे सकें। एक ऐसे देश में कोरोना का भय दिखा कर लोगों कोठप करने से कुछ नहीं होगा, बेहतर रहता, कि सरकार तत्काल प्रभाव से सभी अस्पतालों, चिकित्सकों और संस्थानों का सरकारीकारन कर दे तथा भविष्य में और चिकित्सक व विशेषज्ञ मिलें, शिक्षा का पूर्ण राष्ट्रीयकरण कर दे।

देश की असल बीमारी मलेरिया है, जिसके जो दो सबसे भयानक रूप हैं वे अक्सर मानसून अच्छे होने पर ही प्रकट होते हैं। डेंगू और फाल्सीफेरम। इनमें से फाल्सीफेरम तो बहुत ही मारक है पर यह एक विशेष प्रकार के मच्छर से प्रकट होता है जब आर्दता अपेक्षाकृत कम हो मगर डेंगू तो आर्दता बढऩे और तापमान 25 से 35 के बीच रहने से पनपता ही है। मजे की बात कि इन दोनों ही बीमारियों के मच्छर अपेक्षाकृत साफ जगह पर ही पनपते हैं। चिकनगुनिया तो इनका एक तरह का साइड इफेक्ट है जो एक तरह का बुखार है जिसमें बुखार तो दो या तीन दिन ही रहता है पर वह बुखार इतना तेज आता है कि हड्डियों में बस जाता है और फिर नहीं जाता। इसीलिए चिकित्सक मलेरिया को भगाने के लिए कभी भी एंटीबायोटिक दवा नहीं देते। उसकी वजह है कि मलेरिया का मच्छर इतना चतुर या सेंसेटिव होता है कि एंटी बायोटिक दवा से यह मरता नहीं बल्कि मरीज के किसी अंग में जाकर छुप जाता है। वह जगह लीवर हो सकती है या किडनी अथवा फेफड़ा। वह तब तक छिपा बैठा रहेगा जब तक एंटीबायोटिक दवा कारगर बनी रहेगी मगर इस बीच वह इन अंगों को नुकसान पहुंचाता रहता है इसीलिए डेंगू या फाल्सीफेरम से मरने वाले अधिकांश मरीज मल्टी आर्गेन फेल्योर से मरते हैं। इसलिए चिकित्सक मलेरिया में बुखार उतारने की दवा देते हैं अथवा कुनैन। अब कुनैन के इतने हानिकारक प्रभाव पता चले हैं कि चिकित्सक कुनैन से बचने लगे हैं।

कुनैन मलेरिया का प्राकृतिक इलाज है। यह बंगाल के जंगलों में मिलता था। एक आयुर्वेदिक पौधे से इसे बनाते थे। मगर इसका स्वाद बेहद कसैला और अप्रिय होता था। मगर जब अंग्रेज भारत आए तो यहां के ऊष्ण कटिबंधीय मौसम में उनका रहना मुश्किल हो गया। ज्यादातर योरोपियन्स मलेरिया से मरने लगे और एलोपैथी में इसका कोई इलाज नहीं तब भारतीय आयुर्वेद की मदद से उन्होंने कुनैन को ईजाद किया। फिर इसे स्वादिष्ट बनाने और इसका नियमित प्रयोग करने के लिए उन्होंने टॉनिक वाटर बनाया। इसमें जिन के साथ-साथ नीबू का भी अर्क मिला होता है। इससे इसका स्वाद तो उतना कसैला नहीं रहा मगर ज्यादा पीने से चर्मरोग, कम सुनाई पडऩे और हृदय गति बढऩे के संकेत मिलने लगे इसलिए बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके अधाधुंध प्रयोग पर बंदिश लगाई। और इसका अधिक प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। हालांकि आज भी डॉक्टर फाल्सीफेरम मलेरिया के मरीज को कुनैन ही पिलाते हैं और वह भी डबल डोज। मगर कुनैन का प्रयोग कभी भी किसी भी हालत में बिना डॉक्टरी सलाह के नहीं करना चाहिए। विश्व के सारे ऊष्ण कटिबंधीय इलाके मलेरिया की गिरफ्त में रहते ही हैं इसलिए यहां पर गंदगी का निस्तारण सर्वाधिक प्राकृतिक उपाय है। पर भारत जैसे आबादी बहुल देशों में गंदगी से निजात पाना आसान नहीं है। प्रति वर्ष यहां लाखों की संख्या में लोग गांव-देहात को छोड़कर शहर में बसते रहते हैं। इस वजह से शहरों में आबादी का बोझ पड़ता है और गंदगी निस्तारण के सारे उपाय फेल हो जाते हैं। नतीजा यह होता है कि मच्छरों के आक्रमण को रोक पाना असंभव है।

शहरी आबादी पर मलेरिया के इन नए मच्छरों का आक्रमण अधिक होता है क्योंकि ये नए एडीज मच्छर जिनसे डेंगू या चिकनगुनिया होता है अक्सर उस पानी में पनपते हैं जो साफ होता है और ये दिन के समय हमला करते हैं। अगर पानी ढक कर रखा जाए तो मच्छर नहीं आएंगे मगर खुले पानी मे मच्छरों को पनपने से रोका नहीं जा सकता। यह खुला पानी एकत्र कैसे होता है यह जान लेना भी जरूरी है। आमतौर पर शहरों में कूलर के इस्तेमाल पर जोर है लेकिन यह कूलर ही मच्छर की दावत देते हैं क्योंकि बरसात की पहली झड़ी के साथ ही कूलर में पानी की खपत कम हो जाती है जिसके कारण दिन में तो दूर हफ्तों कूलर का पानी नहीं बदला जाता और इसी पानी  में एडीज मच्छर पनपते हैं। इसके अलावा फ्लैट्स में जो लोग अपने गमले बालकनी में रखते हैं उनमें भी ये मच्छर पनपते हैं। दरअसल हर उस जगह में जहां पानी का मिट्टी से संपर्क आता है मच्छर एक निश्चित तापमान में स्वत पनप जाते हैं। मगर इसके प्रति अज्ञानता का भाव ही मच्छर पनपाने में सहायक होता है। चूंकि घर में पति-पत्नी दोनों ही नौकरीशुदा होते हैं इसलिए किसी के पास खाली वक्त नहीं होता कि वह पानी को बदलता रहे। नतीजा यह होता है कि मच्छर पनपते रहते हैं। इसलिए शहरों में अक्सर मानसून खुशियां नहीं मच्छरों की भरमार लाता है जो उन बीमारियों का कारण बन जाते हैं जिससे व्यक्ति का सारा बजट तो बिगड़ता ही है और महीनों बाद भी तक उसका शरीर अपने पुराने रूप में नहीं आ पाता।

इसलिए सरकार ऐसी गर्मी में मलेरिया पर अंकुश लगाने का प्रयास करे। कोरोना तो आज है, कल भारत की विविधता से घबरा कर भाग जाएगा।