महज साढ़े तीन महीने में कोरोना ने सबकी वाट लगा दी है। पैठ तो हर जगह इसने महीने दो-महीने में ही बना ली थी। तब ये हँसी-ठट्ठा लग रहा था। अब सारे घरों में घुसे हैं। कोरोना का चरित्र सत्यापन करें तो ये सालों से सक्रिय एक अपहरण-हत्या आपराधिक गैंग जैसा लगता है। शोध में लगे डाक्टर वैक्सीन से इसके शूटरों का एंकाउंटर करते रहते हैं। लेकिन ये हार नहीं मानता। ठिकाने बदलता रहता है। नए-नए गुर्गे भर्ती करता रहता है। इस बार वाला, जो कोविड19 के नाम से कुख्यात हुआ है, कुछ ज़्यादा ही शातिर है। चमगादड़ से ख़ास चीन में भर्ती हुआ है। इसके बल-बूते पर कोरोना ने महीने दो-महीने में ही पूरी दुनिया में अपना धंधा जमा लिया। अमेरिका कहता है कि ये खुद पैदा नहीं हुआ है। चीन ने बनाया हुआ है और उसने इसे अमेरिका की सुपारी दे दी है।
सबकी जीभ निकली हुई है। महीनों से घरों में घुसे हैं। एंकाउंटर टीम कह रही है कि इसका वैक्सीन ढूँढने में साल दो साल लगेंगे। कुनैन की गोली, ब्लड प्लाज़्मा जैसे कई रणबाँकुरे मैदान में आए लेकिन लगता नहीं तत्काल इसके मुक़ाबले खड़ा होने वाला कोई माई का लाल है। इसने सबपर नज़र रखी हुई है। उस्तादी की नहीं कि उठाकर अस्पताल में पटक देता है। घर वाले घर ही रह जाते हैं। उनको भी इतना डरा देता है कि मर जाने पर भी हाथ नहीं लगाते। सरकार से कहते हैं कि समझा करो। हमारे आदमी का शिकार तो हो ही गया। कम से कम फूंकने वाला काम तो आप देख लो।
कोविड19 को क़ाबू करने के लिए भारत में भी बड़े गाजे-बाजे के साथ लाकडाउन शुरू हुआ। कुछ देखने निकल पड़े कि लाकडाउन होता कैसा है? ऐसा मौक़ा कम ही आता है जब किसी को उसके भले के नाम पर अच्छे से कूटा जाय। सो, पुलिस ने जमकर हाथ साफ़ किया। दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। पंगा तब पड़ा जब रोज़ कमाने-खाने वाले एक दम से डर गए। कुछ और सूझा नहीं सो बदहवासी में अपने गाँव का पैदल ही रुख़ कर लिया। पहले तो पुलिस ने सोचा कि लाठी-डंडे से काम चल जाएगा। लेकिन जब इनकी निहत्थे और मजबूर गरीबों पर विशेष कृपा की बात टीवी-अख़बार में चली तो इन्हें लगा कि कुछ ज़्यादा ही छीछालेदर हो जाएगा। सो फट गियर बदला और समाजसेवी का चोला ओढ़ अटकों-भटकों को भोजन-नाश्ता कराने लगे। एक कम्पनी ने झटपट सर्वे कर रिज़ल्ट भी निकाल दिया कि कोरोना की कृपा से लोगों का पुलिस में विश्वास दुगना हो गया है। अब इसे बनाए रखने का अतिरिक्त बोझ भी पुलिस के कंधे पर आ पड़ा है। देखते हैं कि कैसे खेपते हैं।
लॉकडाउन की वजह से लोग घरों में पड़े हैं और पुलिस सड़कों पर। लेकिन ऐसा नहीं है कि ठगों और बदमाशों ने अपना धंधा समेट लिया है। कोरोना के साथ ये भी लोगों के शिकार में लगे हैं। आँकड़ों को देखें तो लगता है कि उन्होंने फ़िलहाल लोगों को फ़िफ़्टी पर्सेंट का सीज़नल डिस्काउंट दे दिया है। जैसे कि हरियाणा में पिछले साल अप्रैल में चौरानवे हत्या के वजाय इस साल उनचास ने ही लड़ाई-झगड़े में जान गँवाए हैं। पाकिस्तान ने एफ़एटीएफ़ से अपना मुँह काला होने से बचने के लिए जेहादियों को झूठे-सच्चे जेलों में डाल रखा था। मौक़ा ताड़ कोरोना का हवाला देते हुए उसको वहाँ से बाहर निकाल दोबारा धंधे पर बिठा दिया है।
वैसे कोरोना पूरी तरह से असामाजिक भी नहीं है। कई मामले में तो ये पूरा रॉबिन हुड है। अपने तरीक़े से ढीठों को टाइट करने में लगा है। कहे से जो नहीं मानता उसपर सीधी कार्रवाई करता है। वर्षों से जानकारों द्वारा जलवायु-परिवर्तन, जंगल-सफ़ाया, जीव-जंतु वध पर औपचारिक चिंता जताई जा रही थी। लेकिन सरकारों पर तो ज़्यादा-बनाने-ज़्यादा-खपाने की धुन चढ़ी हुई थी। कोरोना की एक घुड़की से ही सारे घुटने पर आ गए हैं। साफ़ है कि आदमी की तरक़्क़ी की भूख और प्रकृति की संरक्षण की माँग एक साथ नहीं चल सकती। दोनों में से एक को पीछे हटना ही पड़ेगा। वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियाँ ज़्यादा कर नहीं पा रही थी। सम्पन्न होने की लालसा में लोग अंधे हो रहे थे। पिद्दी कोरोना ने एक झटके में ही दोनों को रास्ते पर ला दिया है।
कोरोना लगता है धीमी न्यायिक व्यवस्था से भी चिढ़ा हुआ है। जेलों में घुसकर बदमाशों को चुन-चुन कर मारने पर आमादा है। सरकारों को लगा कि मारना-छोड़ना तो हमारा काम है। अगर ये काम कोरोना ही करने लगा तो फिर हमसे कौन डरेगा? ऐसे विचारों से ही कतिपय प्रेरित होकर उन्होंने छूटभैय्ये क़ैदियों को परोल पर बाएँ-दाएँ कर दिया। लेकिन बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी? पिछले कुछ दिनों से सरकारों के तेवर बदले हुए हैं। कहने लगे हैं कि हमें कोविड19 के साथ जीना सीखना पड़ेगा। जो काम घर से हो सकता है, घर से होगा। दफ़्तर जैसा हम देखते बड़े हुए हैं लगता है दम तोड़ने ही वाला है।
पुलिस को क्या और कैसे करना चाहिए, इस फटे में भी कोरोना ने पैर घुसा दिया है। सार्वजनिक स्थानों पर बम-बारूद पकड़ने के चोंचले के साथ अब कोरोना जाँचने का इंतज़ाम भी होगा। टटोलने वालों का सफ़ाया तय है। अपने आसपास दो गज ज़मीन के नए मालिक आप हैं। क़ैदियों को कचहरी ले जाते समय दो सिपाही बाएँ-दाएँ हाथ धरे रहते थे। अब लगता हैं हथकड़ी के पुनर्वास का समय आ गया है। सघन पूछताछ के लिए दो गज दूर वाले तरीक़े ढूँढने पड़ेंगे। भीड़-नियंत्रण में पथराव, आंसू-गैस और गोलीबारी के अलावा बाक़ी अन्य तरीक़े सोशल डिसटेंसिंग के हिसाब से ठीक नहीं है। लाकडाउन के समय दर्शाया गया पुलिस का सेवाभाव भी लोगों को भा गया है। इसे बनाए रखना भी अपने आप में बड़ी भारी चुनौती है।
वैसे, सारी नज़रें सीरींजधारी सफ़ेद कोट वालों पर टिकी है। बस एक अदद टीके का इंतज़ार है। फिर कौन-सा कोरोना, काहे का कोविड19?