यूपी पुलिस के आईजीपी अमिताभ ठाकुर ने 9 जुलाई को ट्वीटर पर लिखा था। विकास दुबे का सरेंडर हो गया। हो सकता है कल वह यूपी पुलिस की कस्टडी से भागने की कोशिश करे, मारा जाये। इस तरह विकास दुबे का चैप्टर क्लोज हो जाएगा। अगले दिन वही हुआ, शुक्रवार सुबह करीब साढ़े छह बजे कालपी रोड पर कानपुर के भौंती टोल के पास पुलिस ने वही किया जो आईजीपी ठाकुर ने ट्वीटर पर लिखा था। विकास दुबे का चैप्टर क्लोज करने के बाद उसकी लाश मेडिकल कालेज अस्पताल ले जायी गई। पुलिस ने एफआईआर के रूप में बदला लेने की एक बेहतरीन स्क्रिप्ट लिखी। मीडिया की जो टीमें महाकाल से लेकर कानपुर नगर की सीमा तक पुलिस टीम के साथ-साथ पीछे चल रही थीं, उनको कथित घटनास्थल से दो किमी पहले रोक दिया गया। उज्जैन के एएसपी ने रात में ही अपने साथियों को कह दिया था, कि उम्मीद है कि वह कानपुर न पहुंचे। हमें याद आता है कि पिछले साल छह दिसंबर को भी शुक्रवार था और सुबह साढ़े तीन बजे हैदराबाद में एक डॉक्टर की बलात्कार और हत्या के आरोपी बताये गये चार युवकों को पुलिस ने इसी तरह कत्ल कर दिया था। वहां भी पुलिस की कहानी कुछ ऐसी ही थी। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा और सांसद मेनका गांधी ने तब कहा था कि पूरी कानूनी प्रक्रिया के तहत ही कार्रवाई होनी चाहिए। आज लोग एनकाउंटर से खुश हैं, लेकिन हमारा संविधान है, कानूनी प्रक्रिया है। मगर यूपी के एनकाउंटर्स पर उनकी जुबान नहीं खुली। यही कारण है कि हमें इस एन्काउंटर में पुलिस की कायराना हरकत नजर आती है।
यूपी पुलिस ने ऐसी कहानियां 80 के दशक में तब सीखीं थीं, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी सिंह के भाई जस्टिस सीपी सिंह की हत्या कर दी गई थी। इन कहानियों पर कुछ ब्रेक तब लगा, जब न्यायपालिका ने कड़ा संज्ञान लिया। कांग्रेस सरकार ने 1993 में मानवाधिकार आयोग बनाया तो पुलिस तंत्र सजग हुआ मगर फांसीवादी सोच ने अब देश को इन हालात में लाकर खड़ा कर दिया है कि पुलिस बगैर कुछ जांचे अपनी खीझ मिटाने को विकास के 72 वर्षीय मामा प्रेम प्रकाश पांडेय और भतीजे अतुल दुबे को कथित मुठभेड़ में मार देती है और उन्हें अपराधी बताती है। सप्ताह भीतर विकास साथ काम करने वाले भतीजे अतुल दुबे, अमर दुबे, प्रभात मिश्र और प्रवीण शुक्ला उर्फ बउवा को भी कथित मुठभेड़ में मार दिया गया। पुलिस के कहर का नतीजा यह है कि बिकरू गांव के पुरुष गांव छोड़कर भाग गये। पॉलिटिकल एंड सोशल जस्टिस इन साउथ एशिया के लिए काम करने वाली नेहा दीक्षित के शोध से स्पष्ट है कि पिछले तीन वर्षों में यूपी में पांच हजार से अधिक पुलिस मुठभेड़ दिखाई गई, जिसमें 172 लोग मारे जा चुके हैं। इन सभी मुठभेड़ की कहानियां कमोबेश एक जैसी ही हैं। पूर्व डीजीपी डॉ एनसी आस्थाना ने कहा कि इस मुठभेड़ के तथ्य जानने के बाद मैं समझता हूं कि इससे ज्यादा फर्जी कहानी की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। कोई थर्डक्लास का प्रोड्यूसर ही ऐसी फिल्म बनाएगा। प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली सरकार में सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य स्थिति में ही हथकड़ी न लगाने की बात कही है मगर जहां कोई कारण मौजूद हो तो वहां हथकड़ी लगाने की छूट है। पुलिस की कहानी में यह बात कैसे सही ठहराएंगे, कि जो व्यक्ति उज्जैन के कलेक्टर को फोन करके खुद को गिरफ्तार करने का आग्रह करता है और महाकाल मंदिर में शोर मचाकर खुद को गिरफ्तार करवाता है, वह कानपुर पहुंचकर क्यों भागेगा?
मुठभेड़ की इस कहानी के बाद यूपी एसटीएफ और कानपुर नगर पुलिस ने जो प्रेस नोट जारी किया, उसमें बताया है कि विकास दुबे के खिलाफ 60 आपराधिक मामले दर्ज थे मगर जब हमने मुकदमों की लिस्ट देखी तो पाया कि 2005 के बाद शायद उसने कोई अपराध नहीं किया, जिससे उसके खिलाफ अपराध की एफआईआर नहीं थी। बल्कि निरोधात्मक कार्रवाई की एफआईआर ही थीं। अधिकतर मामलों में वह अदालत से बरी हो चुका था। 2007 के बाद 2015 में उसके खिलाफ निरोधात्मक मुकदमा दर्ज किया गया। 2020 के सात छह माह में उसके खिलाफ सिर्फ एक मारपीट, गाली-गलौच और बवाल करने की एफआईआर दर्ज हुई थी। इस मामले में गिरफ्तारी के लिए स्थानीय डीएसपी दो दर्जन पुलिस कर्मियों के साथ आधी रात गये थे। चश्मदीदों से पता चला कि इतनी पुलिस देख विकास ने भागने की कोशिश की, तो पुलिस ने फायरिंग की। विकास ने समझा कि उसको सुनियोजित तरीके से मारने के लिए यह पुलिस टीम आई है। तब उसकी तरफ से गोली चली और डीएसपी सहित आठ पुलिस कर्मी मारे गये। यही आखिरी मुकदमा उसके जीवित रहते 3 जुलाई को दर्ज हुआ। इसके बाद 10 जुलाई को उसकी मौत के बाद मुठभेड़ का मुकदमा पुलिस ने सचेंडी थाने में दर्ज किया है। विकास ने भाजपा के कारिंदे के तौर पर सियासी यात्रा शुरू की थी। वह बसपा-सपा होते हुए पुनः भाजपा में आ गया था। वह स्थानीय स्तर के सरकारी मुलाजिमों के तबादले से लेकर ब्याज पर रुपये बांटने का धंधा करता था।
विकास दुबे एक प्रकरण है। इसके पहले हम दिल्ली और यूपी में आंदोलनों के दौरान हुए दंगों को देखें। वहां भी पुलिस की कार्रवाई कुछ लोगो और समुदाय विशेष के खिलाफ काफी तत्परता से नजर आती है मगर जब सियासी गठजोड़ वाले नागरिकों और समुदाय के लोगों के अपराधो पर कार्रवाई की बात होती है तो फाइलों की जीन ही नहीं खुलती। नतीजतन आधे-अधूरे और मनगढ़ंत सबूतों के आधार पर दर्जनों संजीदा एक्टीविस्ट्स-छात्र-छात्राओं के खिलाफ चार्जशीट कर दी जाती है। देश के भविष्य बन सकने वाले तमाम विद्यार्थियों को अपराधी बना दिया गया। हमारा कानून जांच एजेंसियों को संवैधानिक कवच देता है, जिससे वह निष्पक्ष और तथ्यात्मक जांच करके सिर्फ वास्तविक अपराधी को न्यायिक परीक्षण के लिए भेजें। वह इस कवच का दुरुपयोग करके न्याय व्यवस्था का कत्ल न करें। विकास दुबे के खिलाफ जो आरोप हैं, उन पर किसी को भी सहनुभूति नहीं हो सकती मगर जब संवैधानिक व्यवस्था के तहत ही शक्तियों और सुविधाओं का लाभ उठा रहे लोग, उस व्यवस्था के हत्यारे बनते हैं, तो दुखद होता है। विकास की कहनी संवैधानिक व्यवस्था के लुंज-पुंज हो जाने को स्पष्ट करती है। हम अपराधी उसे कहते हैं, जो विधिक व्यवस्था को भंग करता है। वह चाहे जो हो मगर यहां संवैधानिक कवच ओढ़े लोग इसको भंग कर लुत्फ उठाते हैं। वहीं आमजन जाने-अनजाने भी गलती कर जायें, तो यही लोग उन्हें फांसी चढ़ाने जैसे हालात में लाकर खड़ा कर देते हैं।
यूपी सरकार के तीन दर्जन मंत्री आपराधिक पृष्ठभूमि से हैं। वहीं तमाम मंत्री नेता बदला लेने जैसी हरकतें करते रहते हैं। यह सिर्फ यूपी में ही नहीं बल्कि तमाम अन्य राज्यों में भी देखने को मिलता है। वह देश-प्रदेश की समृद्धि और बेरोजगारी को खत्म करने के लिए काम नहीं करते बल्कि अपने निजी और सियासी हितों को साधने में संवैधानिक संरक्षण का इस्तेमाल करते हैं। इसका नतीजा है कि स्वदेशी सत्ता के दशकों गुजरने के बाद भी हालात बद से बदतर हो रहे हैं। संविधान में मूल अधिकारों की संरक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट पर है मगर हम पिछले पांच साल से देख रहे हैं कि अदालतें उसमें नाकाम साबित हुई हैं क्योंकि उनमें बैठे न्यायाधीशों ने सत्ता के आगे घुटने टेक दिये हैं। वह सार्वजनिक रूप से सत्ताधीशों के आगे साष्टांग समर्पित नजर आते हैं। यही कारण है कि जन मानस के अंतरमन में इनके लिए कोई सम्मान नहीं बचा है। अभी भी वक्त है, अगर चेत गये तो बचेंगे, नहीं तो गुलाम बनकर रह जाएंगे।
जयहिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)