Haryana News: हरियाणा में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को गहन चिंतन और मंथन की जरूरत

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हरियाणा में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को गहन चिंतन और मंथन की जरूरत
Haryana News: हरियाणा में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को गहन चिंतन और मंथन की जरूरत

आपसी फूट, टिकट वितरण में हुड्डा को छूट, गठबंधन से परहेज, बागियों द्वारा विरोध और संगठन की कमी रहे हार के बड़े कारण
Chandigarh News (आज समाज) चंडीगढ़: लोकसभा चुनाव के 5 महीने बाद बाद ये पहला बड़ा मौका था जब किसी राज्य के चुनाव में भगवा बीजेपी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी लेकिन लोकसभा चुनाव में पांच सीट जीतने वाली कांग्रेस अपनी रफ्तार को बनाए रखने में नाकाम रही। हरियाणा में भाजपा की लगातार तीसरी रिकॉर्ड जीत से राजनीतिक गलियारों में यह स्पष्ट संकेत गया कि आमने सामने की टक्कर में बीजेपी और कांग्रेस से आगे है और कांग्रेस के लिए आने वाले चुनाव में भाजपा को हराने आसान काम नहीं होगा। कांग्रेस लगातार पहलवान किसान और जवानों के मुद्दे को निरंतर सदन के बाहर और अंदर उठा रही थी लेकिन चुनाव में इन मुद्दों को कैश करने में पूरी तरह से असफल रही है।

उपरोक्त तीनों मुद्दों को कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में अपने प्रचार का आधार बनाया था और इसी के आधार पर पांच सीटें जीतने में सफल रही लेकिन अब कांग्रेस को मंथन की जरूरत है कि विधानसभा चुनाव में पार्टी इन मुद्दों को मुकरता से क्यों नहीं उठा पाई और क्यों जनता के बीच ले जा पाई जिसके चलते पार्टी इनको वोट बैंक में नहीं बदल सकी। लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने बाद देशभर में ये सियासी मैसेज गया था कि बीजेपी अब ‘कमजोर’ हो रही है। वहीं कांग्रेस की हार के पीछे भूपेंद्र सिंह हुड्डा को टिकट वितरण में ज्यादा तवज्जो दिया जाना और कुमारी सैलजा का अंतिम दिनों में चुनाव प्रचार से दूरी बनाना भी मुख्य कारण बताया जा रहा है।

बागियों की ताकत नहीं भांप पाई भाजपा

हरियाणा के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस राज्य में निर्दलीय और पार्टी से नाखुश नेताओं को साधने में पूरी तरह से नाकाम रही और पार्टी यह समझने में पूरी तरह से नाकाम रही कि इसका असर उसे नतीजों में उठाना पड़ सकता है। ये अंदरूनी नाराजगी कांग्रेस के लिए भारी पड़ी। पार्टी के बागी जिन नेताओं को टिकट नहीं मिली वह कांग्रेस के लिए किसी बड़े हादसे से कम साबित नहीं हुए, क्योंकि या तो उन्होंने सीधे तौर पर कांग्रेस उम्मीदवार की वोटों पर ऐसे डाला या फिर कई जगह तो कांग्रेस को पछाड़ते हुए दूसरे स्थान पर भी रहे।

उदाहरण के तौर पर अंबाला कैंट से चित्रा सरवारा को टिकट नहीं मिली तो वह निर्दलीय ही मैदान में उतर गई जिसके चलते कांग्रेस प्रत्याशी को हर का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार बल्लभगढ़ से टिकट की दावेदार शारदा राठौर को टिकट नहीं मिली तो वहां से उनके बागी होने के चलते मूलचंद शर्मा चुनाव जीत गए। बहादुरगढ़ विधानसभा सीट से कांग्रेस का टिकट मांग रहे राजेश जून टिकट नहीं मिलने से नाराज होकर बागी ही चुनावी रण में उतर गए और कांग्रेस उम्मीदवार उनके चाचा राजेंद्र जून को हराने में सफल रहे। इसके अलावा उचाना सीट से कांग्रेस से टिकट मांग रहे बीरेंद्र घोगड़िया को टिकट नहीं मिली और वह निर्दलीय मैदान में उतर गई इसके चलते कांग्रेस प्रत्याशी बृजेंद्र को हार का सामना करना पड़ा।

ओवर कॉन्फिडेंस और आपसी फूट ले डूबी

कांग्रेस की हार के लिए दो अन्य प्रमुख कारणों में पार्टी के नेताओं का ओवर कॉन्फिडेंस और आपसी फूट यह दोनों ऐसे फैक्टर रहे जिनके चलते पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। पार्टी के नेताओं खासकर भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा में चुनाव के ठीक पहले तक भी आपसी फूट जमकर सामने दिखाई दिए और दोनों ने एक दूसरे के विरोधाभास में बयान दिए जिसके चलते पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। दोनों चुनाव से ऐन पहले और एग्जिट पोल के नतीजे के बाद लगातार खुद को बतौर सीएम फेस रिप्रेजेंट कर रहे थे और इसके चलते दोनों में कलह बढ़ गया और पार्टी का वोट बैंक भी कहीं ना कहीं छिटक गया।

कांग्रेस का राज्य नेतृत्व इस पूरे चुनाव में बंटा नजर आया था। एग्जिट पोल के बाद कांग्रेस के नेता पूरी तरह से आश्वस्त थे कि वो चुनाव जीत रहे हैं लेकिन ये ओवरकॉफिडेंस कांग्रेस के लिए भारी पड़ गया और हार का सामना करना पड़ा। इसलिए उसकी रणनीतियों में भी वो पैनापन नहीं दिखा। कांग्रेस का ये अति आत्मविश्वास ही उसपर भारी पड़ा. जिसके चलते कांग्रेस को एक बार फिर राज्य की सत्ता से बाहर होना पड़ा है।

भाजपा का माइक्रो मैनेजमेंट मजबूत रहा, कांग्रेस का संगठन ही नहीं बना

भाजपा और कांग्रेस के बीच विधानसभा चुनाव की जीत में कई सीटों पर साफतौर पर देखा जा सकता है कि लड़ाई बहुत कांटे की हुई है और कम मार्जिन से जीत- हार का फैसला हुआ है। इसे साफ पता चलता है कि भाजपा ने साफ नजर आ रही हार को बेहतर मैनेजमेंट यानी कि माइक्रो मैनेजमेंट से जीत में तब्दील कर दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस 10 साल के लंबे समय में भी संगठन खड़ा नहीं कर पाई और यह उसकी हर के एक प्रमुख कारणों में शामिल भी रहा है। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस लगभग ये मानकर चुनाव लड रही थी कि उसकी जीत सुनिश्चित है।

एकला चलो रे की नीति महंगी पड़ी

हरियाणा चुनाव में कांग्रेस में गठबंधन को लेकर भी खूब माथापच्ची देखने को मिली। विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी लगातार कांग्रेस पर गठबंधन और इसके तहत 5 स्वर देने का दबाव कांग्रेस पर बना रही थी लेकिन कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई। इसके अलावा आम आदमी पार्टी भी लोकसभा चुनाव की तर्ज पर लगातार कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छुक थी लेकिन यहां पर भी कांग्रेस ने एकला चलो रे की नीति पर चलते हुए आम आदमी पार्टी से गठबंधन से इनकार कर दिया। चुनाव में भाजपा को 39.94 फीसद और कांग्रेस को 39.09 फीसद वोट मिले, इस लिहाज से दोनों के बीच हार और जीत का अंतर 0.85 फीसद रहा, वहीं दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी 1.79 फीसद वोट लेने में कामयाब रही।

यह भी बता दें कि इस चुनाव में इंडियन नेशनल लोकदल को 4.4 फीसद है और बहुजन समाजवादी पार्टी को 1.82% वोट मिले। इसके अलावा पिछली बार 4:30 साल तक सत्ता में साझेदार रही जननायक जनता पार्टी को 0. 09% फीसद वोट मिले।

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