Congress Party News, अजीत मेंदोला, (आज समाज), नई दिल्ली: नए साल में कांग्रेस में व्यापक फेरबदल देखने को मिल सकता है। महाराष्ट्र और हरियाणा की हार के बाद कांग्रेस के सर्वोच्च नेता और लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) पर पार्टी में फेरबदल का दबाव बढ़ गया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge) ने भी शुक्रवार को हुई कार्यसमिति की बैठक में माना कि संगठन स्तर पर सभी कमजोरियों और खामियों को दुरुस्त करने की जरूरत है।
हालांकि संगठन को चुस्त दुरस्त करने की जिम्मेदारी उनकी खुद की है,लेकिन कांग्रेस में ऐसा हो नहीं रहा है।उदयपुर संकल्प में किए गए फैसले रद्दी की टोकरी में डालना पार्टी को बहुत मंहगा पड़ा है।ढाई साल पहले संगठन को ताकत देने वाले फैसले अमल में लाए जाते तो आज नई कांग्रेस तैयार हो जाती। उनमें सबसे अहम फैसला था कोई भी पदाधिकारी तीन साल से ज्यादा एक पद पर नहीं रहेगा।
दो नए विभाग खोले जाने तो जो राज्यों से सीधे संवाद कर संगठन को ताकत देते।उनको भूल पार्टी में संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल पार्टी के अकेले सर्वे सर्वा हो गए और वह जो तय करते हैं उसे ही राहुल गांधी हरी झंडी देते। इसलिए लगातार हार के बाद वेणुगोपाल निशाने पर आ गए हैं। क्योंकि कांग्रेस में बीते कुछ साल से जो भी फैसले हुए या नियुक्तियां हुई उनमें अहम भूमिका संगठन महासचिव वेणुगोपाल ने ही निभाई। पार्टी हिंदी बेल्ट में जिस तरह से लगातार हार रही है उससे भी कई सवाल खड़े हो गए हैं।
पार्टी में यह चर्चा भी जोरों पर है कि वेणुगोपाल को अभी केरल भेज सीएम चेहरा घोषित कर उन्हें हटाने का रास्ता निकाला जा सकता है।केरल में 2026 अप्रैल में चुनाव होने हैं।दो बार की हार से केरल कांग्रेस में भी गुटबाजी चरम पर है।वेणुगोपाल के लिए भी सब कुछ आसान नहीं होगा।वायनाड की सांसद प्रियंका गांधी अगर दखल देंगी तो फिर केरल के कांग्रेसी शायद सवाल न उठाएं।राहुल गांधी ने अगर अब संगठन को लेकर कुछ नहीं किया तो हाशिए पर लगे नेता आवाज उठा सकते हैं।
सूत्रों का कहना है कि कार्यसमिति की बैठक में एक दो नेताओं ने संगठन की कार्यप्रणाली पर सवाल भी उठाए।इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस मुख्यालय में तैनात अधिकांश पदाधिकारी बैठते ही नहीं है।शिकायत यहां तक है कि बाहर से आए नेता बिना मिले ही वापस लौट जाते हैं। कांग्रेस की इस हालात के लिए राहुल गांधी खुद ही जिम्मेदार हैं।क्योंकि वह किसी से न मिलते हैं और ना ही सुनते हैं। इसलिए सच्चाई उन तक नहीं पहुंच पाती है।कांग्रेस जिस भारत जोड़ो यात्रा में लोगों से मिलने की बात करती है उनमें अधिकांश जुगाड़ वाले होते थे जो राहुल तक पहुंच पाते थे।इसलिए राहुल वही समझे जो उन्हें समझाया जाता या दिखाया जाता।
संगठन को लेकर राहुल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उत्तर भारत खास तौर पर हिंदी बेल्ट कांग्रेस के लिए कितनी अहम है। मुख्य संगठन से लेकर अग्रिम संगठनों तक दक्षिण भारत का बोलबाला है। प्रमुख पदों पर बैठे अध्यक्ष खरगे,संगठन महासचिव वेणुगोपाल दोनों दक्षिण भारत से हैं।दोनों हिंदी बेल्ट की राजनीति को जानते ही नहीं है। सबसे बड़ी बात दोनों से मिलना भी बड़ा मुश्किल होता है।यूं कहा जा सकता है कि आज के दिन में कांग्रेस को एक ऐसे अहमद पटेल की जरूरत है जो धैर्य से सबकी बातें सुन सही समाधान निकाले।अहमद पटेल रात रात भर बैठ हर राज्य के नेता,कार्यकर्ता से मिल सबकी सुनते थे।
यूपीए की सरकार रही हो या पार्टी सत्ता से बाहर पटेल का काम सब से मिल समाधान निकालना होता था।पटेल के निधन के बाद से कांग्रेस में टॉप लेवल पर ऐसा कोई नेता नहीं है जो देश की राजनीति को समझ गांधी परिवार को सही जानकारी दे सके।वेणुगोपाल को लेकर जग जाहिर है उनका काम केवल हां में हां मिलाने का होता है,वह ज्यादा चक्कर में पड़ते ही नहीं है।अहमद पटेल के निधन के बाद जो नेता राजनीति की समझ रखते थे उन्हें कमजोर किया गया।2019 के लोकसभा चुनाव में इन नेताओं ने राहुल गांधी को समझाया भी था कि राफेल और चौकीदार चोर जैसे मुद्दे नहीं उठाए जाने चाहिए।लेकिन राहुल नहीं माने।
राहुल गांधी ने अगर अपनी मां सोनिया गांधी से भी कुछ बातें समझ ली होती तो पार्टी की आज यह स्थिति नहीं होती।सोनिया गांधी किसी भी प्रकार का संकट आने पर या किसी मुद्दे पर फैसला करने से पूर्व पार्टी के पुराने और अनुभवी नेताओं को बुला कर चर्चा करती और उसके बाद फैसला करती।राहुल गांधी ने ठीक इसके विपरीत चलना शुरू कर दिया।वो पहले तो किसी को चर्चा के लिए बुलाते ही नहीं है।अगर कोई मिलने आता उसे गंभीरता से सुनते ही नहीं है।राज्य सरकारों के संकट के समय वेणुगोपाल से या अपने स्टाफ से बात करने को कहते।इससे पार्टी में नाराजगी बढ़ती गई।इसी के चलते 2021- 22 में भी असंतुष्ट नेताओं का ग्रुप 23 बना।
इन नेताओं की यही मांग थी कि चर्चा कर फैसले हों,संगठन पर फोकस किया जाए।कोई सुनवाई नहीं हुईं।भाई बहन याने राहुल और प्रियंका अपने हिसाब से चलने लगे।भाई बहन के व्यवहार से गांधी परिवार की सबसे करीबी शीला दीक्षित जैसी नेता नाराज हो चुप बैठ गई थी। कहा जाता है वह इस बात से नाराज हुई थी कि उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष और प्रभारी से पूछे बिना राहुल प्रियंका ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया।उस समय 2017 में वे यूपी में पार्टी की तरफ से सीएम फेस थी। गुलाम नबी आजाद प्रभारी थे।
सपा से गठबंधन के बाद बड़े नेताओं में नाराजगी का दौर शुरू हुआ।शीला दीक्षित को भले ही बाद में दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष जरूर बनाया गया उसी पद में रहते हुए उनका निधन हुआ।लेकिन तभी से कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट नेताओं का ग्रुप बनने लगा था। गुलाम नबी आजाद जैसे कई नेताओं ने किनारा कर लिया था।2019 लोकसभा में हुई करारी हार के बाद राहुल गांधी का अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना बड़ी भूल साबित हुआ।क्योंकि उसके बाद संगठन की हालत बिगड़ने लगी थी।राहुल देश की राजनीति को समझना ही नहीं चाह रहे थे।
राज्यों में हालत बिगड़ने लगी।नाराज नेताओं की आवाज को उदयपुर संकल्प से दबा दिया गया।लगातार हार के बाद फिर से पार्टी के हालात गंभीर हो गए। शुक्रवार को हुई कार्यसमिति की बैठक में भी वही हुआ जो उदयपुर संकल्प में हुआ था।अपनी कमजोरियों को दबा कर हार के लिए ईवीएम पर दोष डाल दिया। देश भर में आंदोलन की बात की गई।इसके साथ कांग्रेसियों ने धीरे धीरे प्रियंका गांधी पर फोकस कर लिया।जानकार इसके कई अर्थ निकाल रहे हैं। पार्टी इससे पूर्व भी बड़े आंदोलन घोषित करती रही है,लेकिन कमजोर संगठन के चलते आंदोलन पहले ही दम तोड़ देते हैं।पार्टी में अव्यवस्था की यह स्थिति है कि चुनाव के समय राज्यों की याद आती है।दिल्ली में जनवरी फरवरी में चुनाव होने है।बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दे को धार दे रही है।
हिंदुत्व से हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी को जीत दिलवाई।इसके बाद भी कांग्रेस ने कम अनुभव वाले काजी निजामुद्दीन को दिल्ली का प्रभार दे दिया।दिल्ली प्रभारी सचिव अल्पसंख्यक दानिश अबरार पहले से थे।छानबीन समिति में इमरान मसूद का रख दिया।तीन तीन अल्पसंख्यक नेता कांग्रेस ने दिल्ली में लगा दिए।ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस चुनाव को लेकर गंभीर है ही नहीं।अंतरिम प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव से लेकर दिल्ली में जिन्हें भी जिम्मेदारी दी है उनमें अधिकांश संगठन महासचिव के करीबी हैं।मुस्लिम राजनीति आम आदमी पार्टी भी कर रही है।इन हालात में राहुल गांधी नए साल में संगठन में कुछ ऐसे चेहरों को वापस ला सकते हैं जो हिंदी बेल्ट की राजनीति समझते हों।प्रदेशों में भी बदलाव देखने को मिल सकते हैं।