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Congratulate Ravish kumar: रवीश को बधाई दीजिए!

एक पत्रकार का आकलन उसकी लेखन-शैली या प्रस्तुतीकरण के कौशल से नहीं होता। उसका आकलन उसके द्वारा उठाये गए सवालों और मुद्दों से होता है। पत्रकार का अपने समय के सरोकारों और उन पर तत्कालीन सरकार के रवैये की समीक्षा करना, ज्यादा बड़ा कम  है। वह कैसा लिखता है, या किस तरह की चीजों को पेश करता है, यह उसकी व्यावसायिक कुशलता है। लेकिन प्राथमिकता नहीं। रवीश कुमार में यही खूबी, उन्हें आज के तमाम पत्रकारों से अलग करती है। रवीश कुमार के प्रोफेशनलिज्म में सिर्फ कौशल ही नहीं एकेडेमिक्स का भी योगदान है। रवीश की नजर तीक्ष्ण है और उनका टारगेट रहा है कि आजादी के बाद शहरीकरण ने किस तरह कुछ लोगों को सदा-सदा के लिए पीछे छोड़ दिया है, उनकी व्यथा को दिखाना। उन्हें मनीला में विश्व का प्रख्यात रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है। चयनकर्ताओं ने उनकी इसी कसौटी को परखा, कि वे मुद्दे कौन से उठाते हैं। जाहिर है, आज जन-सरोकारों के मुद्दे अकेले रवीश उठा रहे हैं। लेकिन ऐसा वे कोई आज से नहीं कर रहे हैं, बल्कि तब से जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी मुझे याद है, आज से कोई दस साल पहले अचानक एक दिन मैंने देखा, कि एनडीटीवी पर कापसहेड़ा की एक लाइव रिपोर्ट चल रही है। कापसहेड़ा पश्चिमी दिल्ली का एक गांव हुआ करता था, अब वह लालडोरा में आ गया है। वहां पर किस तरह से मकान मालिक अपने किरायेदारों को अपना बंधुआ बनाकर रखते हैं। जो युवक इस रिपोर्ट को पेश कर रहा था वे थे रवीश कुमार। अकेले उस रिपोर्ट ने मुझ पर ऐसा जादू किया कि आज तक शायद ही रवीश की कोई रिपोर्ट या बाद में शुरू हुआ उनका प्राइम टाइम न देखा हो। रवीश की रिपोर्ट से ही इस एंकर के अपने रुझान और अपनी रुचियां साफ कर दी थीं। लगा कि इस नवयुवक में टीवी की झिलमिलाती स्क्रीन में भी कुछ धुंधले पक्ष दिखाने की मंशा है। रवीश कुमार की यह प्रतिबद्घता उन्हें कहीं न कहीं आज के चालू पत्रकारिता के मानकों से अलग करती है। जब पत्रकारिता के मायने सिर्फ चटख-मटक दुनिया को दिखाना और उसके लिए चिंता व्यक्त करना हो गया हो तब रवीश उस दुनिया के स्याह रंग की फिक्र करते हैं। आज स्थिति यह है, कि जब भी मैं किसी पत्रकारिता संस्थान में जाता हूं, और वहां के छात्रों से पूछता हूं, कि कोर्स पूरा क्या बनना चाहते हो, तो उनका जवाब होता है, टीवी एंकर या टीवी रिपोर्टर। कोई भी अखबार में नहीं जाना चाहता। क्योंकि टीवी में चकाचौंध है, जगमगाहट है और नाम है। लेकिन इसके विपरीत अखबार में निल बटा सन्नाटा! हर उभरते पत्रकार की मंजिल होती है, रवीश कुमार बन जाना। लेकिन कोई भी रवीश की तरह पढ़ना नहीं चाहता, रवीश की तरह अपने को रोजमर्रा की घटनाओं से जोड़ना नहीं चाहता, रवीश की तरह वह विश्लेषण नहीं करना चाहता। मगर वह बनना रवीश चाहता है। कितने लोग जानते हैं, कि आज जिस मुकाम पर रवीश हैं, वहां तक आने के लिए उन्होंने कितना श्रम किया।

बिहार के मोतिहारी जिले के गांव जीतवार पुर के रवीश की शुरूआती शिक्षा पटना के लोयला स्कूल में हुई। फिर वहीं के बीएन कॉलेज से इंटर साइंस से किया। दिल्ली आए और देशबंधु कॉलेज से बीए किया। हिस्ट्री में एमए करने के लिए किरोड़ीमल कॉलेज में दाखिला लिया। एम.फिल, को बीच में ही छोड़ कर भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की। कुछ दिनों तक उन्होंने जनसत्ता के लिए फ्री-लांसिंग की। तब मंगलेश डबराल जनसत्ता के रविवारीय संस्करण के संपादक थे। मंगलेश जी इसी रविवारी जनसत्ता के लिए उन्हें स्टोरी असाइन करते, और वे उसे लिख लाते। इसके बाद जब वो एनडीटीवी में गए, तो जाते ही एंकरिंग करने को नहीं मिली। बल्कि उनका काम था सुबह के शो गुड मॉर्निंग के लिए चिट्ठियां छांटना। इस काम के बदले उन्हें पहले सौ रुपए रोज मिलते थे, जो बाद में बढ़ा कर डेढ़ सौ कर दिये गए। इस शो के दर्शक देश भर से चिट्ठियां भेजते थे। वे चिट्ठियां बोरों में भर कर आतीं, जिन्हें रवीश छांटते। इसके बाद वहीं पर अनुवादक हुए। फिर रिसर्च में लगाया गया। इसके बाद रिपोर्टर और तब एंकर। आज वे एनडीटीवी में संपादक हैं। और उनका शो प्राइम टाइम अकेला ऐसा शो है, जिसे देखने और समझने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी। आप कह सकते हैं कि यह भी संयोग रहा कि एनडीटीवी स्वयं भी लीक से हटकर जनोन्मुखी है, पर कॉरपोरेट की एक सीमा होती है। वह उससे एक कदम भी   आगे नहीं बढ़ सकता। अब यह तो वहां काम कर रहे प्रोफेशनल का ही कमाल होता है कि वह उस कॉरपोरेट से कितनी छूट हासिल करता है।
रवीश कुमार अपने इस मिशन में सौ फीसद कामयाब रहे हैं। रवीश बनना आसान नहीं है। उन जैसे सरोकार तलाशने होंगे। उन सरोकारों के लिए एकेडिमक्स यानी अनवरत पढ़ाई जरूरी है। रवीश बताते हैं कि वे साहित्य या फिक्शन की बजाय वह इकोनामिक्स, सोशियोलाजी और साइंस पढ़ते हैं। इन्हीं विषयों की किताबें खरीदते हैं। वे निरंतर पुस्तकें पढ़ते रहते हैं। यह जरूरी भी है। सरोकार का टारगेट समझना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक उस सरोकार से होने वाले विकास को समझना। विकास द्विअर्थी शब्द है, जिसका प्रतिक्रियावादी और प्रगतिकामी कई अलग अर्थ बताते हैं। जन-सरोकारों के उनके सवालों से कुढ़े कुछ लोग उनको मोदी विरोध या मोदी समर्थन के खांचे में रख कर यह घोषणा कर देते हैं, कि वे मोदी विरोधी हैं, और इसीलिए उन्हें यह मैग्सेसे सम्मान मिला है। मुझे लगता है, कि ऐसे लोग धूत  हैं। रवीश तब भी ऐसी ही रिपोर्टिंग करते थे, जब देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। रवीश ने हर सरकार के कामकाज की समीक्षा की है। मेरा स्पष्ट मानना है, कि मोदी से न उनकी विरक्ति है न आसक्ति। जितना मैं उन्हें जानता हूं, निजी बातचीत में कभी भी उन्होंने मोदी के प्रति घृणा या अनुराग का प्रदर्शन नहीं किया न कभी कांग्रेस का गुणगान किया। वे एक सच्चे और ईमानदार तथा जन सरोकारों से जुड़े पत्रकार हैं। कुछ उन्हें जबरिया एक जाति-विशेष के खाने में फिट कर देते हैं। उनका नाम रवीश कुमार पांडेय बता कर उनके भाई पर लगे आरोपों का ताना मारने लगते हैं। पर जितना मुझे पता है, मैं अच्छी तरह जनता हूं कि उनके भाई ब्रजेश पांडेय अपनी ईमानदारी और कर्मठता के बूते ही बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में टिकटों के वितरण के वक्त कुछ लोग उनसे फेवर चाहते थे, लेकिन उन्होंने कोई सिफारिश नहीं सुनी, पैसा नहीं लिया। इसलिए उनके विरुद्ध कांग्रेस और राजद वालों ने ही षड्यंत्र किया था। बाद में भाजपा के लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया। ब्रजेश जी की बेटी की शादी रुक गई । उन्हें बिहार में कोई वकील नहीं मिला। सच तो यह है, कि रवीश गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के पत्रकार हैं। उन्हें बधाई दीजिये।

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