साल 1995 में मैं असम गया था। गुवाहटी से दीमापुर जाना था। वहां मेरी बुआ रहती थी। सालों पहले उनका परिवार वहीं जाकर बस गया था। ट्रेन गुवाहटी तक ही थी, वहां से दीमापुर जाने के लिए जब मैंने रेलवे स्टेशन पर पूछताछ की तो एक नया शब्द सुनने को मिला। इंक्वायरी वाले ने पूछा, तुम्हारे पास इनर लाइन परमिट (आईएलपी) है। मैंने यह शब्द पहले नहीं सुने थे। पुलिसवाले से पूछा तो उसने बताया कि अरे ये रेलवे वाले ऐसे ही लोगों को परेशान करते हैं। तुम्हें दीमापुर तक ही जाना है या फिर उससे आगे भी जाना है। मैंने कहा नहीं मैं दीमापुर तक ही जाऊंगा। वहां मेरी बुआ रहती है। पुलिस वाले ने कहा, तुम्हें परमिट की कोई जरूरत नहीं। दीमापुर से ऊपर जाओगे तब तुम्हें परमिट की जरूरत पड़ेगी। खैर दीमापुर तो पहुंच गया, लेकिन मेरे मन में पूरे रास्ते इनर लाइन परमिट को लेकर उधेड़बून चलती रही। मेरे छात्र मन में सिर्फ एक ही प्रश्न था कि क्या मुझे अपने देश में ही घूमने के लिए भी परमिट लेने की जरूरत पड़ेगी।
पिछले दिनों काफी समय बाद एक बार फिर यह शब्द सुनने को मिला। चूंकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट के पास आया था इसलिए अब इस मंथन शुरू हो गया है कि आज दशकों पुराने इस तरह के कानून का क्या मतलब जो भारत में ही भारतीयों को स्वछंद घूमने से रोकता है। देश के ही किसी राज्य में जाने से कोई कानून कैसे भारतीयों को रोक सकता है। देश के किसी भी हिस्से में आने जाने के लिए नागरिकों को परमिट क्यों लेना पड़े। मंथन जरूरी है कि संविधान ने सभी नागरिकों को भारत में कहीं भी स्वतंत्रता पूर्वक आने जाने का मौलिक अधिकार दिया है और देश के किसी भी हिस्से में आने जाने के लिए इनर लाइन परमिट का नियम इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है तो क्या है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि फिलहाल इस संबंध में दाखिल की गई याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया है, लेकिन नए सिरे से इस पर बहस जरूरी है।
दरअसल इनर लाइन परमिट एक ऐसा दस्तावेज है जो किसी व्यक्ति को किसी खास क्षेत्र में जाने की अनुमति प्रदान करता है। पहले यह कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड में लागू था। कश्मीर में इसको लेकर हुए जबर्दस्त आंदोलन के बाद इसे हटा लिया गया। अन्य नॉर्थ ईस्ट राज्यों में जहां के कुछ क्षेत्रों में यह लागू था वहां से भी समय के साथ इसका औचित्य समाप्त हो गया। आज सिर्फ नागालैंड में ही इनर लाइन परमिट का प्रावधान है। नागालैंड के किसी भी क्षेत्र में जाने के लिए किसी बाहरी व्यक्ति को पहले इनर लाइन परमिट लेना होता है। यह कुछ वैसा ही है जैसे विदेश जाने के लिए वीजा लेना। आपको बकायदा पूरी डिटेल देनी होती है कि आप नागालैंड के किस क्षेत्र में, कितने दिनों के लिए, किस उद्देश्य के लिए जाना चाहते हैं। यह वहां के प्रशासन पर निर्भर करता है कि आपको वह परमिट देगी या नहीं। अगर आप बिना परमिट के नागालैंड क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और पकड़े जाते हैं तो आपके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्यूलेशन्स, 1873 के तहत यह व्यवस्था लागू है।
गुलाम भारत में यह व्यवस्था अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी। नागालैंड क्षेत्र में पाई जाने वाली बेसूमार प्राकृतिक जड़ी बूटियों के खजाने को संरक्षित करने के लिए अंग्रेजों ने यह कानून बनाया कि बिना सरकार की अनुमति के कोई भी व्यक्ति नागालैंड क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता है। इतिहासकार बताते हैं कि इस क्षेत्र पर अंग्रेज अपना प्रभुत्व इसलिए चाहते थे क्योंकि यहां की बेसकीमती संपदा सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजों की ही रहे। वे यहां से प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग दवाई व अन्य काम के लिए करते थे और इसे सीधे इंग्लैंड भेजते थे। बाहरी लोगों के संपर्क में यहां के प्राकृतिक संसाधन न आ जाएं इसलिए 1873 में कानून बनाया गया, जो आज तक लागू है। आजादी के बाद भी भारत सरकार ने इनर लाइन परमिट को जारी रखा। इसके पीछे तर्क था कि नागा आदिवासियों का रहन-सहन, कला संस्कृति, बोलचाल औरों से अलग है। ऐसे में इनके संरक्षण के लिए इनर लाइन परमिट जरूरी है। ताकि बाहरी लोग यहां रहकर उनकी संस्कृति प्रभावित न कर सकें। हालांकि सबसे बड़ा कारण राजनीतिक था। यहां के स्थानीय नेताओं ने कभी नहीं चाहा कि यहां के लोगों का संपर्क बाहरी दुनिया से हो।
रेल लाइन भी सिर्फ दीमापुर तक ही बिछाई जा सकी। पहले यह परमिट सिर्फ नागा हिल्स क्षेत्र में जाने के लिए ही लागू था, पर अब इसे दीमापुर में भी लागू करने का प्रस्ताव है। इसी प्रस्ताव का विरोध हो रहा है, क्योंकि दीमापुर वास्तव में मैदानी इलाका है। यहां हजारों की संख्या में प्रवासी लोग रहते हैं और अपने वर्षों से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे में अगर इनर लाइन परमिट इस क्षेत्र में भी लागू हुआ तो लाखों लोगों के जीवन यापन पर संकट उत्पन्न होगा। इस मामले को लेकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भाजपा नेता और वकील अश्वनी कुमार उपाध्याय ने दाखिल की थी।
याचिका मे कहा गया है कि आईएलपी व्यवस्था एक प्रकार से अपने ही देश में वीजा सिस्टम की तरह है जो कि न सिर्फ अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव की मनाही), 19 (स्वतंत्रता) और 21 (जीवन) के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि उस क्षेत्र के विकास, समग्र निवेश को भी नुकसान पहुंचाता है और लोगों में आपसी विश्वास नहीं बनने देता। सरकार को आईएलपी सिस्टम को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था बल्कि यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई राज्य विशेष प्रवासियों के कारण आर्थिक प्रगति के मौकों से वंचित न हों। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई से इनकार कर दिया है।
पर मंथन जरूरी है कि नगा आदिवासियों को संरक्षण देने के लिए सरकार तर्क संगत नियंत्रण तो लगा सकती है, लेकिन क्या अपने ही देश के किसी भी हिस्से में आने जाने के लिए परमिट जरूरी करना तर्कसंगत है? केंद्र सरकार के ही आंकड़े हैं कि अब नागालैंड की 90 प्रतिशत आबादी ईसाई हो चुकी है। सरकार की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी हो चुकी है। वहां के हर गांव में चर्च है। आदिवासी अपने पुराने रीति-रिवाजों की जगह चर्चों में ईसाई रीति-रिवाज से शादियां कर रहे हैं। ऐसे में अब गंभीरता से मंथन जरूरी है कि नागाओं के संरक्षण के मकसद से लागू इनर लाइन परमिट का कोई औचित्य है या नहीं। राजनीतिक दृष्टि से दूर रखकर इस मामले पर मंथन करना चाहिए।
कुणाल वर्मा
Kunal@aajsamaaj.com
(लेखक आज समाज के संपादक हैं )