तुलसी और ‘श्री रामचरित मानस’ एक-दूसरे के पर्याय लगते हैं। तुलसी का मानस केवल राम के चरित्र का ही वर्णन नहीं है, अपितु मानव जीवन की आचार-संहिता है। इसमें प्रत्येक मानव को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा मिलती है। श्री रामचरित मानस सिर्फ एक धर्मग्रंथ मात्र नहीं है, वरन मानस धर्मों की संकीर्ण सीमाओं से परे एक धर्म की अनुशंसा करता है। वो धर्म, मानव-धर्म है। मानस में कहीं भी ‘हिन्दू धर्म’ या ‘हिन्दू’ शब्द का उल्लेख नहीं है।ये तो सांप्रदायिक भावनाओं से ऊंचा उठकर मानव-मानव के बीच में प्रेम, सामंजस्य, समानता व एकता को प्रतिष्ठित करता है। सच तो ये है कि उन्नत मानवता ही तुलसी के मानस का केंद्र है। किस अवसर पर मानव को कैसा आचरण करना चाहिए, इस बात का हर स्थान पर मानस में उल्लेख मिलता है। माता-पिता की आज्ञा का पालन, गिरे एवं निम्न वर्ग के लोगों के साथ प्रेमभाव, दूसरों के अधिकारों को सम्मान की दृष्टि से देखना, एक राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य, एक पत्नी का पति के प्रति कर्तव्य, बुजुर्गों की राय का महत्व, शत्रु के साथ व्यावहारिक नीति आदि इन सब आचार संहिताओं का कालजयी दस्तावेज श्री रामचरित मानस है।
श्री रामचरित मानस सर्वांग सुन्दर, उत्तम काव्य-लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रसों का आस्वादन करने वाला, आदर्श गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, पातिव्रत्य धर्म, आदर्श भ्रातृप्रेम के साथ सर्वोच्च भक्तिज्ञान, त्याग, वैराग्य एवं सदाचार व नैतिक शिक्षा देने वाला सभी वर्गों, सभी धर्मों के लिए आदर्श ग्रंथ है।और तो और, साक्षात शिव ने जिस ग्रंथ पर अपने हस्ताक्षर ‘सत्यम-शिवम-सुन्दरम’ लिखकर किए हों, उस ग्रंथ का वर्णन संभव नहीं है। आज के संदर्भ में जहां चारों ओर हाहाकार, भ्रष्टाचार, भीषण अशांति मची है, संसार के बड़े-बड़े मस्तिष्क संहार के नए साधन ढूंढ रहे हैं, तब सिर्फ रामचरित मानस ही प्रेम के पराशर में अग्रणी है। वस्तुत: तुलसी का मानस जो शिक्षा देता है उसमें उपदेश नहीं, जीवन का सत्य होता है। तुलसी की सारी चिंता चारित्रिक तथा सांप्रदायिक सद्भावपूर्ण उन्नति के रास्ते पर ले जाने की ही है। स्वार्थ, ज्ञान, अहम, ईर्ष्या, बैर के अंधेरों में डूबती इस सदी के सामने आज तुलसी चिंतामणि लेकर खड़े हैं। इसके सभी आदर्शों का अवलंबन आवश्यक है।
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