भीड़ द्वारा किसी को पीट कर मार दिया जाना किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर कालिख पोतने जैसा है। पिछले सप्ताह संसद में ये बात कही गई कि इसे रोकने के लिए आईपीसी और सीआरपीसी में बदलाव के लिए सुझाव माँगे जा रहे हैं। इस विभत्स अपराध के लिए कानून को और सख़्त बनाया जाएगा।
सुझाव देने वाले क्या कह सकते हैं? भीड़ के इस कुकृत्य को इरादतन हत्या करार दिया जाय। इसके लिए न्यूनतम सजा फांसी की कर दी जाय। मौके पर मौजूदगी को तब तक अपराध में संलिप्त होना मान लिया जाय जब तक कि हत्यारी भीड़ में शामिल आरोपी अपने को निर्दोष ना साबित कर दें। ट्रायल की समय सीमा तय कर दी जाय। आरोपियों को जमानत पर ना छोड़ा जाय। चूंकि ज्यादातर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं, सबूत मिटा देते हैं। गवाही देने के लिए कोई तैयार नहीं होता। ऐसे में अपने को निर्दोष साबित करने का जिÞम्मा भी आरोपी पर ही डाल दिया जाय। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि किसी को संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता चाहे वे कितने भी बड़े अपराधी हों। न्यायिक प्रक्रिया की इस माँग को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि चाहे हजार दोषी छूट जाए, एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। ऐसे में ज्यादा जगह बचती नहीं है। कानून कितने भी सख़्त कर लें, उन्माद में डूबे लोगों को कहाँ स्मरण रहता है कि उनके किए का परिणाम क्या होगा। चरमपंथियों के लिए ये एक मिशन है। मानसिक रूप से विक्षिप्त के लिए ये एक खूनी खेल है। भीड़ कब तर्क की बात करती है? कब परिणाम की चिंता करती है?
भय की भावना प्राणियों के अस्तित्व का आधार है। अगर ये ना होता तो सारे जीव कब के विलुप्त हो गए होते। मानव प्रजाति में सृजनशीलता है। इसने इसका जम कर इस्तेमाल किया है। विज्ञान को अपना ढाल बना प्राकृतिक आपदा के मारक धार को बहुत हद तक कुंद कर दिया है। अपने से सैकड़ों गुना ताकतवर जानवरों को पिंजड़े में बंद कर रखा है। वे अब विलुप्त होने के कगार पर हैं। इतिहास आदमी के प्रभुत्व के विस्तार की कहानी है। इसकी ताकत इतनी बढ़ गई है कि ये हजारों बार दुनियां को तबाह कर सकता है। हालात तो यहां तक पहुंच गई है कि स्वयं प्रकृति अब इससे दया की भीख माँगने लगी है। लेकिन जिसे देखिए वह डर को नकारने में लगा है। बहादुरी की मांग इतनी ज्यादा है कि उपहास के डर से कोई भय की बात नहीं कबूल करता। कौन बताए कि बहादुरी निर्भयता की स्थिति नहीं है। ये डर के बावजूद डटे रहने का हौसला है।
प्रतिहिंसा का अपना महत्व है। राम चरित मानस में तुलसी दास ने लिखा है ‘भय बिन होय ना प्रीत‘। लेकिन ये सोच कि ये अपने आप में हिंसा का समाधान है, आजमायी और खारिज की हुई रणनीति है। अगर ये इतना ही कारगर होता तो राजे-महाराजे कहीं नहीं जाते। दुनियाँ पर तानाशाहों का हुकूमत होता। बेशक माब-लिंचिंग के लिए सख़्त सजा होनी चाहिए लेकिन निर्दोष न रगड़ें जाएँ, ये सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि स्थापित न्यायिक प्रणाली को अपना काम करने दिया जाय। इन्हें जरूरी साधन और अख्तियारात मुहैया कराया जाय।
इससे भी ज्यादा जरूरी है कि पुलिस एक व्यापक कार्ययोजना पर काम करे। अव्वल, ये गांठ बांध ले कि फिल्मी विजय, दबंग, सिंघम, सिंबा चीप थ्रिल हैं। सिनेमा हाल में ताली पीटने के लिए है। इस रास्ते लोगों को सुरक्षा का अहसास देना असम्भव है। दूसरे, वे साफ-साफ कहना सीख लें कि उपलब्ध साधनों से किस स्तर की जनसुरक्षा मुहैया कराई जा सकती है। तीसरे, इसे फायर-ब्रिगेड की तरह आग लगने का इंतजार नहीं करना चाहिए। कितनी भी फुर्ती से मौके पर पहुँचें, बहुत कुछ घट चुका होता है। देखने-सुनने वाले डर जाते हैं। भयभीत हो वो पुलिस को लाख लानतें भेजतें है। इसे चाहिए कि अपराध-रोकथाम की ठोस रणनीति बनाए। उसे व्यवस्थित तरीके से लागू करे। एक ‘मजॉरिटी डिफेंडर आॅफ लॉ’ की स्थिति बनाने के लिए जोर लगाए जिससे कि बहुतायत कानून के दायरे में स्वेक्षा से चलने में अपना हित समझें।
इसके लिए लोगों से बात करनी पड़ेगी। समझाना पड़ेगा कि कानून के दायरे में रहकर वे किसी पर अहसान नहीं कर रहे। ये तो उन व्यवहारों से बचने की क्रिया है जिससे औरों का नुकसान होता है और जो वे स्वयं के लिए नहीं चाहते। आखिर समाज का निर्माण इसलिए हुआ है कि लोग एक-दूसरे के काम आएँ। समाज में रहना अकेले रहने से बेहतर हो। अगर दमन-शोषण ही सहना है तो कोई क्यों किसी के साथ रहेगा?
इसके लिए जैसे गोली-बंदूक का प्रशिक्षण दिया जाता है वैसे ही पुलिसकर्मियों में पब्लिक स्पीकिंग, नेगोशीएशन, नेट्वर्किंग इत्यादि का विकास किया जाना चाहिए। ऐसे अभिरुचि वाले लोगों को भी पुलिस में भर्ती किया जाना चाहिए। आज जब हर जगह कैमरा है, अनर्गल बल प्रयोग अपने को बुरा फसाने जैसा है। इन बातों के लिए ज्यादा इंतजार नहीं किया जा सकता। देश में लगभग 36 करोड़ लोग 10-24 साल के आयुवर्ग में हैं। सोशल मीडिया से जुड़े हैं। अपने गरज से उन्हें बहकाने वाले और उन्हें तंत्र से भिड़ाने वाले अनगिनत हैं। पिछले तीन महीने में ही किसी ना किसी वजह से दर्जनों देशों में नागरिकों एवं सरकार में खूनी टकराव हुआ है। अभी चल ही रहा है। कई जगह तो सरकारों को जाना पड़ा। 1920 में कैलिफोर्निया के तत्कालीन पुलिस प्रमुख ने कहा था कि बदले समय में युवाओं के ऊपर धर्म, समाज एवं परिवार का प्रभाव कम हुआ है। ऐसे में पुलिस को इस रिक्तता को भरने के लिए आगे आना चाहिए। युवाओं को सही रास्ते रखने के लिए उनसे दोस्ताना माहौल में सम्पर्क साधना चाहिए। उनके बाद वालों ने वहाँ उनकी नहीं मानी। ‘दबंग’ के फैन कहां सुनेंगे?
ओपी सिंह
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)