सर्दी अभी पूरी तरह से आई नहीं है पर उसकी आहट है और आहट ने ठिठुरन ला दी है, लोग कंपकंपाने लगे हैं। अथर्ववेद में हालांकि कामना की गई है ‘‘जीवेम शरद: शतम’’; जिसका अर्थ है कि हम सर्दियों की ऋतु सौ बार देखें। इसे और सरल शब्दों में कहें तो यह सौ साल जीने की कामना है। माना यह जाता है कि अगर हमने सर्दियों का सीजन पार कर लिया तो हम एक वर्ष और जी लेंगे। जी हां, सर्दियों का सीजन ऐसा ही होता है, और हमारी वर्तमान सरकार इसे सच करने पर आमादा है, यही कारण है कि सर्दियों से पहले ही ठिठुरन होने लगी है। सरकार की ओर से एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स का विस्तार करके इसे देश भर में लागू करने की योजना है, इसी तरह नागरिकता संशोधन विधेयक और एक सामान्य सिविल कोड भी लाया जायेगा, इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय में राम जन्मभूमि विवाद की सुनवाई पूरी हो चुकी है और उस पर भी फैसला आने वाला है। जनता पर और देश के संविधान पर इन सबका दूरगामी असर होगा। बैंकिंग नियमों का संशोधन भी नये वर्ष की शुरूआत से लागू हो जाएगा, जिसमें नगदी निकासी पर नये प्रतिबंध तो लगेंगे ही, आॅनलाइन ट्रांजैक्शन तथा एनईएफटी पर भी शुल्क का प्रावधान होगा। यह सही है कि सरकार को व्यवसाय में नहीं होना चाहिए, ज्यादातर सरकारी उपक्रम घाटे में होते हैं और उनके खर्चे पूरे करने के लिए आम जनता को टैक्स भरना पड़ता है, लेकिन निजीकरण के नाम पर वर्तमान सरकार सिर्फ अपनी पसंद के गिनु-चुने अरबपतियों को ही फायदा पहुंचाने की जुगत में है। इसका परिणाम यह होगा कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था कुछ हाथों में सिमट जाएगी और उनका रुतबा देश के शासकों से भी ऊपर चला जाएगा, कुछ ही वर्षों में वे इस काबिल हो जाएंगे कि देश के शासक पर भी अपना हुक्म चला सकें। यह ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे हालातों में लौटने की शुरूआत है। हम आज इस मिथक में जी रहे हैं हमारे सुप्रीम लीडर कुंआरे हैं, उनका कोई परिवार नहीं है, उनकी निजी संपत्ति नहीं है, वे नि:स्वार्थ भाव से देश की सेवा कर रहे हैं और देश की छवि सुधार रहे हैं। हां, यह सही है कि मोदी कुंआरे हैं। हां, यह सही है कि उनके परिवार का कोई व्यक्ति किसी लाभ के पद पर नहीं है। हां, यह सही है कि उनकी निजी संपत्ति का कोई ब्योरा नहीं है। हां, यह सही है कि देश की छवि में सुधार हुआ है। हां, यह भी सही है कि वे देश की सेवा कर रहे हैं, सिर्फ इतना ही अंतर है कि उसमें भाव नि:स्वार्थ नहीं है। अपनी इस बात का खुलासा करने से पहले, आइये, एक और उदाहरण की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बहुत सादा जीवन जीती हैं, उनकी सादी सफेद साड़ी उनकी सादगी का बखान करती है, उनकी निजी संपत्ति का भी ब्योरा नहीं है, वे भी अविवाहित हैं और अपने ढंग से वे भी देश सेवा में जुटी हैं। और यह भी सच है कि भाव वहां भी नि:स्वार्थ नहीं है। ममता बैनर्जी पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं और उन्हें नकारना मुश्किल है। उनके राज में बंगाल में भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसलिए यह कहना कि वे आदर्श मुख्यमंत्री हैं, जरा मुश्किल है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी हैं। वे कुछ भी कहें लेकिन यह स्पष्ट है कि वे हिंदुत्व को भुना रहे हैं और आज उनका यूएसपी विकास नहीं है, हिंदुत्व है। वे इसी मुद्दे पर अपने मतदाताओं को रिझाए और बरगलाए रख सकते हैं, और वे खुलकर यही कर रहे हैं। अपने चुनावी भाषणों में बार-बार पाकिस्तान को घसीटना, अपनी कमियों का दोष नेहरू या कांग्रेस के सिर मढ़ना उनकी आदत बन चुकी है और लोग इसे बखूबी समझते हैं। इन सब के बावजूद अगर भाजपा लगातार चुनाव जीत रही है तो इसका कारण मोदी तो हैं ही, साथ ही कमजोर, बंटा हुआ और निकम्मा-नकारा विपक्ष भी इसका जिÞम्मेदार है। विपक्ष के पास मोदी की नीतियों की कोई काट नहीं है, कोई बेहतर योजना नहीं है और उसकी विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में है। यही कारण है कि मोदी लगातार विकल्पहीनता, यानी, ‘‘टीना फैक्टर’’; (देअर इज नो आल्टरनेटिव) को दुहते रह पा रहे हैं। देश भर में एनआरसी के विस्तार का परिणाम वही होगा जो विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने पर हुआ था, यानी, समाज में विभाजन की लकीरें कुछ और गहरी हो जाएंगी। यह देश को जोड़ने नहीं, बल्कि तोड़ने की जुगत है। आग तो पहले ही लगी हुई है, अब राम जन्म भूमि विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला तथा उसके बाद की घटनाएं उसमें कितना घी डालेंगी, यह सोच कर ही कंपकंपी होती है। एनआरसी तथा राम जन्मभूमि विवाद के कारण कितनी जानें जाएंगी, दोनों वर्गों में कितना वैमनस्य बढ़ेगा, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है ।
खेद की बात है कि छुटभैयों को भड़काना बहुत आसान है और राजनीतिज्ञ अपने इस काम में बहुत माहिर हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकतार्ओं द्वारा संचालित ह्वाट्सऐप ग्रुपों के माध्यम से समाज में लगातार जो जहर फैलाया जा रहा है, वह बहुत खतरनाक है और अंतत: हम लोग ही इसकी कीमत चुकायेंगे, वो भी अपनी जान देकर, किसी दंगे का शिकार बनकर, किसी विधर्मी पड़ोसी के गुस्से का शिकार बनकर। अब किसी एक दल को दोष देना मुश्किल है क्योंकि हर राजनीतिक दल अब मोदी की दिखाई राह पर ही चल रहा है, कहीं कोई फर्क नहीं है। झूठे संदेश, आत्म-प्रशंसा की झूठी घटनाओं का जिÞक्र, विरोधियों के अपमान के लिए झूठ और सच का घालमेल, भावनाएं भड़काने का प्रयत्न, असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की जुगत हर राजनीतिक दल के डीएनए में घुलमिल गए हैं, शुरूआत चाहे किसी ने भी की हो। झूठ और फरेब का यह जाल अब संगठित अपराध सरीखा है और इसने पूरे समाज को जकड़ रखा है। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की कविता ‘‘चित्त जेथा भयशून्य’’ पता नहीं किस महासागर में विसर्जित कर दी गई है। हर आदमी डरा-डरा सा है और कुछ भी बोलने से घबरा रहा है।
शासन इतना असंवेदनशील, क्रूर और शक्तिशाली है कि उसका विरोध करने का कोई सार्थक परिणाम नजर नहीं आता, इसलिए हर आदमी चुप्पी को ही बेहतर मानने के लिए विवश है। यह चुप्पी शुभ नहीं है, खतरनाक है क्योंकि समाज में विघटन की साजिश कई मोर्चों से चल रही है। अगर एक मोर्चा शासक दल का है तो दूसरा मोर्चा अन्य वर्गों का भी है। हर ओर से तोड़ने की कोशिश है जिसका परिणाम शुभ हो ही नहीं सकता। हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां विवशता हमारी नियति बन गई है इसीलिए हमें सर्दियों से पहले ही ठिठुरन महसूस हो रही है और यह सर्दियां हम पार करके चाहे जितना लंबा जीवन पा लें, वह सुख भरा हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
पी.के. खुराना
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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