Childhood is a mistake, youth struggle and old age repent: बचपन भूल है, यौवन संघर्ष तो बुढ़ापा पश्चाताप

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एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना था- बचपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देखकर रोया। यह गाना अधिकतर लोगों पर एकदम सटीक ही बैठता है। आमतौर पर बचपन खेल में ही खो जाता है। और व्यक्ति युवावस्था की चुनौतियों से भागने लगता है या सोचता है कि अभी तो बहुत वक्त है बहुत कुछ करने को। नतीजा यह होता है कि बचपन स्थायी नहीं रहता और पता नहीं लगता कि बचपन कब गुजर गया तथा जवानी कब आ गई। युवावस्था में सारे रस हैं तो सबसे कठिन डगर भी है अपने को बनाने की, स्थापित करने की और जीवन की राह चुनने की। जवानी की एक भूल आदमी को जीवन भर पछताने का कारण भी बन जाती है। इसीलिए जवानी को अधिक संघर्षमय और जटिल माना गया है। जवानी की सारी भूलें बुढ़ापे में पश्चाताप का कारण बनती हैं। बचपन और जवानी तो हवा की तरह उड़ जाते हैं पर बुढ़ापा मनुष्य के जीवन में स्थायी जगह बना लेता है और वह अपने किए पर पश्चाताप ही करता रहता है। सही तो यह है कि बचपन भूल-भुलैया में रह जाता है और युवावस्था संघर्ष में तपकर ही निखरती है मगर बुढ़ापा यह सोचने को विवश हो जाता कि काश यह राह चुनी होती अथवा यह किया होता तो वह होता। यानी एक तरह के किन्तु-परन्तु में आदमी का बुढ़ापा डूबा रहता है। लेकिन यह भी एक अवधारणा भर ही है। जिन लोगों ने सोच लिया कि उन्होंने अपनी दम युवावस्था में जो उन्हें बेहतर लगा वह किया तो शायद व्यक्ति ज्यादा सुख-चैन से अपना बुढ़ापा गुजार सकता है। पर उपभोक्तावादी समाज में व्यक्ति यह सकारात्मक सोच नहीं रखता वह तो बस यही सोचा करता है कि उसका प्रतिद्वंदी देखो कितना मजे से जिंदगी गुजार रहा है और ठीक वैसा ही वह प्रतिद्वंदी भी सोचा करता है। अर्थात सुख न उसे न उसके प्रतिद्वंदी को। इसकी मूल वजह उसकी यही ईर्ष्या की भावना है। पर यदि कोई यह सोचे कि उसने अपनी दम संघर्ष किया लेकिन उसके अनुरूप फल मिलना उसके वश की बात नहीं तो शायद वह संतोष की जिंदगी जिएगा मगर ऐसा होता नहीं है।
लेकिन यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि आज के समय में बच्चों के माता-पिता उसकी युवावस्था का कैरियर तय कर देते हैं अथवा कैरियर काउंसलर की मदद से बच्चे किशोरावस्था से ही उस लाइन की तरफ चलना शुरू कर देते हैं जो युवावस्था में उन्हें पकड़नी है। हालांकि इसमें एक नुकसान यह होता है कि बच्चे का बचपन खो जाता है खेल में नहीं बल्कि मां-बाप की उम्मीदों के अनुसार ढलने के लिए। बच्चे अपना बचपन भूल जाते हैं और वे युवावस्था के कैरियर की राह पकड़ने के लिए संघर्ष करना शुरू कर देते हैं फिर भी यह जरूरी नहीं कि कैरियर में उम्मीद के मुताबिक ही सफलता मिले। थ्री इडियट्स फिल्म में इस विषय पर अच्छी बहस शुरू की गई थी जहां मां-बाप बच्चे को इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनाने के लिए इतनी मशक्कत करते हैं कि वे स्वयं अपनी युवावस्था को भूल जाते हैं बस बच्चे को अपनी इच्छा का कैरियर दिलाने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। निश्चय ही ऐसे मां-बाप महान कहे जाएंगे लेकिन अपनी महानता को बनाए रखने के लिए वे अपने बच्चे का बचपना तो समाप्त कर ही देते हैं। लेकिन मनुष्य के स्वयं के जीवन में भी युवावस्था संघर्ष का ही समय है। भले उसके मां-बाप ने कैरियर तय किया हो अथवा कैरियर काउंसलर ने उसका कैरियर निर्धारित किया हो या उसने स्वयं यह कैरियर चुना हो। मुकाम बनाने का संघर्ष तो उसे स्वयं ही करना होगा। यह कोई आज की वास्तविकता नहीं है बल्कि वर्षों से यही होता चला आया है कि युवावस्था संघर्ष में ही गुजरी है। प्राचीन इतिहास में जाकर हम मौर्यवंशी शासक सम्राट अशोक को ही लेते हैं। उनका बचपन समाप्त होते ही उनके बड़े भाइयों ने ईर्षया वश साजिश कर उन्हें राजवंश के गृहनगर पाटिलपुत्र से बहुत दूर उज्जयिनी में उपरिक (गवर्नर) बनवाकर भिजवा दिया जहां उन्हें अक्सर दक्षिण के बगावती राजवंशों से जूझना पड़ता पर पिता महाराज बिंबसार के बीमार होने पर अशोक अपनी मां के साथ पाटिलपुत्र आ गए। भाइयों को यह नहीं रुचा और उन्होंने पुन: अशोक को वहां से हटवा देने की ठान ली पर इसी बीच महाराज की मृत्यु हो गई। तब अशोक को सम्राट का पद पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। अपने भाइयों को मरवाना पड़ा और इसके बाद वे सम्राट बन पाए। वे एक जुझारू, लड़ाके और अपने साम्राज्य को अनवरत बढ़ाने के लिए प्रयास करते रहे। और इसके लिए उन्हें भी खूब खून-खराबा करना पड़ा पर यह एक ऐसी नियति थी जो तब धर्मसम्मत मानी जाती थी। ऐन-केन-प्रकारेण शत्रु का विध्वंस तब के राजाओं के लिए क्षम्य ही नहीं बल्कि उनका यह कृत्य वीरोचित माना जाता था। अशोक ने अपने वीरोचित भाव को बनाए रखने के लिए यह सब किया। मगर एक कलिंग के युद्घ ने इस सम्राट के अंदर अपना मानवीय विवेक जागा तब उसे लगा कि अरे वह यह क्या करता रहा। उसने पूरा जीवन बस उन लोगों का संहार किया जिनसे उनका निजी तौर पर कोई बैर नहीं था और अगर कोई राजा अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता है तो उसने क्या बुरा किया और तत्क्षण उसका हृदय बदल गया। उसे खून-खराबे और युद्घों से घृणा हो गई। तब पश्चाताप करने के लिए उसे बुद्घ दिखे। वह बौद्घ संघ की शरण में गया और उसने आजीवन अहिंसा का व्रत पालन करने का व्रत ले लिया। यह उसकी वृद्घावस्था का पश्चाताप था अथवा उसका अपने विवेक से उपजा ज्ञान, साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उसका पश्चाताप तब लोगों के लिए एक सुखद माहौल दे गया। यानी मनुष्य का विवेक उसके युवावस्था के उफान को मंद भी करता है और उसे अनाचार करने से रोकता है। भले यह विवेक उसे वृद्घ होने पर प्राप्त हो। यह अकेले सम्राट अशोक की ही नियति नहीं थी बल्कि उसके बाद के शासकों में बृहद्रथ अशोक के मार्ग का अनुशरण करते हुए इतना लाचार हो गया कि प्रजा पर उसका कोई अंकुश ही नहीं रहा। तब उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग को उसको मारना पड़ा। यानी किसी भी मार्ग पर चला जाए लेकिन वह इतना रूढ़ न हो जाए कि मनुष्य अपना स्वविवेक खो बैठे और मानकर चलने लगे कि यह तो उसका पितृव्य है और इस पर उसका हक बनता ही बनता है। यहां यह अवश्य सोचना चाहिए कि हक भी वही प्राप्त कर पाता है जो संघर्ष करता है और अपने विवेक को खोने नहीं देता। इसीलिए युवावस्था में निरंतर संघर्ष को एक स्वाभाविक प्रक्रिया माना गया है। संघर्ष अपने से भी और बाह्य स्तर पर भी। एक व्यक्ति जो भी अर्जित करता है अपने संघर्ष के चलते ही। जिस पद पर वह व्यक्ति बैठा है उसे उस पद पर बने रहने तथा उससे आगे बढ़ने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा। एक पुरानी कहावत है कि किसानी वही कर पाता है जो खेतों में जाकर स्वयं श्रम करता है। यह घाघ की कहावत है, जो संभवत: दसवीं शताब्दी के आसपास जन्मे थे। लेकिन उस वक्त भी बिना स्वयं संघर्ष किए एक किसान तक अपने पैतृक खेतों से भी कुछ नहीं अर्जित कर सकता क्योंकि किसानी के लिए मालिक का खेत के आसपास होना जरूरी है। वर्ना मजदूर तो काम में कोताही करेंगे और खेती खुद-बखुद तो उपज देने से रही। बुढ़ापा प्रायश्चित भी कराता है और विवेक को भी उत्पन्न करता है। इस संदर्भ में हिंदी के सुप्रसिद्घ उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का गोदान में लिखा यह उद्हरण देखिए- “वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्यान्ह का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और पृथ्वी कांपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भांति दिन भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं। जहां नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुंचता। मुंशी प्रेमचंद का यह कथन युवा और वृद्घावस्था का पूरा आकलन कर देता है। युवा अवस्था में टकराव है, क्षण-क्षण बगूले उठते हैं लेकिन वृद्घावस्था एक शीतल छाह की तरह है जिसमें आदमी अपने पूर्व में किए गए कार्यो की पूरी विवेचना करता है और उसी अनुपात में वह पछताता है तथा आत्मग्लानि या गौरव का साक्षी बनता है। लेकिन यह मनुष्यों की नियति है जिसे वह अपने स्वविवेक से ही कम या ज्यादा कर सकता है ताकि वह सुस्ता सके और पछताने के बाद संतोष प्राप्त कर सके कि जो कुछ हुआ वह उसने अपने लिहाज से उचित किया था अब उसके अनुरूप फल की प्राप्ति में उसका कोई वश नहीं। पर मनुष्य न तो वृद्घावस्था के पश्चाताप को खत्म कर सकता है न युवा अवस्था के संघर्ष को। यह मनुष्य का नियति चक्र है जो निरंतर चलता है और उसी से मनुष्य की गति है।