गीता मनीषी, स्वामी ज्ञानानंद महाराज
चंचलता मन का स्वभाव नहीं, बल्कि यह अध्यारोप है। स्वभाव-स्वभाव ही रहता है। लेकिन अध्यारोप को हटाया जा सकता है। पानी का स्वभाव शीतलता और तरलता है। इसे आंच पर रखकर गरम करने अथवा अत्यधिक सर्दी के वातावरण में बर्फ के रूप में जमा देने से क्या पानी का स्वभाव वैसा बन गया? नहीं, यह पानी के सहज स्वभाव पर आप द्वारा आरोपित मान्यताएं हैं, कुछ समय गरम पानी अथवा बर्फ को पुन: ऐसे ही छोड़ दें और देखें कि कितनी शीघ्रता से पानी अपने वास्तविकता स्वभाव में आ जाता है।
इसे करके देखें। साथ ही साथ यह विचार करें कि मन का स्वभाव शान्त एवं स्थिर रहना है। राग की शीतलता में तथा द्वेष की उष्णता में इस पर अस्थिरता का अध्यारोप हो जाता है। इस अध्यारोप को आपने स्वयं अपनी नता से इस पर लाद लिया है। उतारिये इसे और फिर देखिये-क्या मन अपनी सहज, याभाविक एवं शान्त स्थिति में आता नहीं? या सांसारिक कामनाओं में स्थायी सुख नहीं! यह पूर्णतया वैज्ञानिक, युक्तियुक्त एवं तर्क संगत बात है जिसे कोई भी, कभी भी तथा कहीं भी व्यावहारिक रूप देकर देख सकता है।
मन एकाग्र होगा और अवश्य होगा, वह भी सदा-सर्वदा के लिए-सतत, सर्वत्र एवं सर्वथा! संसार सम्बन्धी कामनाओं की पूर्ति करके अर्थात अपनी मनोवांछित वस्तु को प्राप्त करके आप स्थायी रूप से शान्त होना चाहते हैं। लेकिन आपने यह कभी नहीं सोचा होगा कि क्या ऐसा सम्भव भी है? जो बात सम्भव है, उसे तो आप अपनी विपरीत विचारधारा के अनुसार असम्भव समझकर उससे परांगत हो चुके हैं और प्रयत्न कर रहे हैं असम्भव को सम्भव बनाने का। मन को एकाग्र रखना पूर्णत: सम्भव है, जिसे आपने असम्भव मान लिया है जबकि ‘सांसारिक कामनाओं से स्थायी सुख नितान्त असम्भव है, जिसे सम्भव करने के लिये आप खूब उत्साह से प्रयासरत हैं। कहिए, कहां संगति बैठेगी आपकी इस भ्रामक विचार स्थिति की? कब और कैसे सफल हो पायेंगे आप इसमें? कदाचित कदापि नहीं। कहीं कोई अंत ही नहीं इस मिथ्या या कुछ बहते जाएंगे इसी निराधार विचार प्रवाह में, कहीं कोई किनारा नहीं मिलेगा त: उसी में गोते खाते डूबकर रह जायेंगे।
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