Chandigarh News: चंडीगढ- जीवन के रूप में हम जिसे भी जानते हैं, उसमें गति निहित है। सौभाग्य से हमसे पहले जो इस दुनिया में आए वह चले गए और जो लोग हमारे बाद आने वाले हैं, वे हमारे जाने का इंतजार कर रहे हैं – इस बारे में अपने मन में कोई शक मत रखिए। यह पृथ्वी भी गतिशील है, इसी गतिशीलता का नतीजा है कि इससे जीवन उपजा है। अगर यह स्थिर होती तो इस पर जीवन होना संभव ही नहीं था। इसलिए इस सृष्टि में गतिशीतला नामक कोई चीज है, जिसमें हर प्राणी शामिल है, लेकिन अगर सृष्टि में गति है तो उस गति का विराम भी होना चाहिए।
दरअसल, निश्चतला या स्थिरता की कोख से ही गति का जन्म होता है। जिसने अपने जीवन की निश्चलता का अहसास न किया हो, जिसने अपने अस्तित्व की स्थिरता को महसूस न किया हो, जिसने अपने भीतर और बाहर की निश्चलता को जाना या महसूसा न किया हो वह गति के चक्करों में पूरी तरह से खो जाएगा। ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमार जी आलोक ने सैक्टर-29 से विहार कर सैक्टर 24सी अणुव्रत भवन तुलसीसभागार मे कहे।
मनीषीसंत ने कहा निश्चित रूप से गतिशील होने में तकलीफ तो होगी। लेकिन मैं समझता हूँ कि गतिशील न रहने में शायद उससे भी अधिक तकलीफ हो जाती है। इसके बावजूद ज्यादातर विद्यार्थी गतिहीनता को ही पसंद करते हैं। वे अपने स्थान से हिलना नहीं चाहते। वे अपने स्थान से दूसरी जगह जानानहीं चाहते। वे अपने आसपास के वातावरण के अपनी चल रही जीवन पद्धति के चाहे वह कितनी ही बेकार क्यों न हो, इतने अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं कि उससे निकलने में उन्हें बहुत तकलीफ होने लगती है। और बस यही जीवन के सारे अवसर और सारा समय उन्हें छोडक़र किसी और के पास चला जाता है।
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