Chandigarh News: अन्न, धन, धान्य, वैभव, सुख, शांति, ऐश्वर्य आदि की कमी को पूरा करने के लिए बनाए जाने वाले “मांडना’ की झलक कलाग्राम की दीवारों पर 14वें चंडीगढ़ राष्ट्रीय शिल्प मेले में देखने को मिलेगी। शहर व बाहर से आने वाले कलाप्रेमी इसे 8 दिसंबर तक देख पाएंगे।
राजस्थान से आए 3 कलाकार “मांडना’ आर्ट को बनाने के लिए यहां सेक्टर-13 स्थित कलाग्राम आए हैं। इसकी अगुवाई जयपुर से आए 64 साल की उम्र के आसाराम कर रहे हैं, जो 2001 में वे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए और 2019 में उन्हें शिल्प गुरु की उपाधि मिली। आसाराम के साथ जोधपुर के अनुभवी कलाकार 65 साल की उम्र के ओम और 22 साल के हर्ष भी उनका साथ दे रहा है। शिल्प गुरू आसाराम बताते हैं कि ये फोक आर्ट है, जिसे खासतौर पर उत्तर भारत में बनाया जाता था। ये कला आदिकाल की है, जिसे आदिवासी बनाया करते थे।
उन्होंने कहा कि पहले के समय में हर शुभ काम पर घरों में मांडना बनाए जाते थे और यही शुभ अवसर की पहचान बनते। दीवाली और होली पर अलग मांडना बनाया जाता, जबकि बच्चे के पैदा होने पर व शादी के मौके पर अलग।अगर मांडना पूरी शिद्दत से बनाया गया हो तो, उसे देखकर ही बताया जा सकता है कि इसे किस शुभ अवसर पर बनाया गया है। महाराष्ट्र, हरियाणा के साथ-साथ ब्रज, मालवा, निमाड़ आदि क्षेत्र की ये पहचान रहे हैं।
अन्न, धन, धान्य, वैभव, सुख, शांति, ऐश्वर्य आदि के लिए इन मांडना को सिर्फ घर की बाहरी दीवारों पर ही नहीं, घर के अंदर, चाैखाटों, फर्श, कमरों, मंदिरों आदि में भी बनाया जाता है। राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में कच्चे घरों के आंगन में गोबर से लेपकर भी मांडने बनाए जाते हैं, लेकिन मॉडर्न आर्ट में इन्हें रंगों से बनाया जा रहा है। इसकी भी उतनी ही महानता है।
मांडना को घर की रक्षा करने, अपने घर में देवी-देवताओं का स्वागत करने या त्यौहारों को मनाने के उद्देश्य से बनाया जाता है। यहां भी ऐसा ही है। आसाराम ने कहा कि शिल्प मेला हमारे लिए बड़े त्यौहार की तरह ही है, यहां पर जो मांडना बने हैं, उन्हें खुशहाली का प्रतीक माना जा सकता है। सुख शांति के लिए भी ये मांडना कलाग्राम में बनाए गए हैं।
शिल्प गुरू ने कहा कि हम दीवारों पर रंगों से इन्हें गोदते हैं, जो हमारे इतिहास का हिस्सा रहे हैं। पहले हम शरीर पर भगवान का नाम या माता पिता का नाम गुदवाते थे। इसकी जगह अब टैटू ने ले ली है। अभी भी लोग शरीर को गुदवा रहे हैं, सिर्फ तरीका बदला है। मांडना इतिहास का हिस्सा है, लेकिन अब इससे पहचानने वाले कम हैं तो बनाने वाले भी कम हो रहे हैं। मैं ट्राइबल हूं और मैंने इस कला को वहीं से सीखा, आज भी सीखना जारी है।
युवाओं को लेकर उन्होंने कहा कि आज युवाओं को इसमें रुचि कम है। मैं कई बार स्कूल-कॉलेजों में सिखाने गया हूं, लेकिन वे कलाकार से ज्यादा ऑनलाइन सीखते हैं या यू-ट्यूब से डिजाइन देखकर बनाते हैं। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए, इससे वह न तो इस संस्कृति के बारे में जान पाएंगे और न ही इसे गहराई से सीख सकेंगे।
उन्होंने कहा कि यह कला वास्तु की तरह भी काम करती है। पहले समय में ग्रहों के हिसाब से भी मांडना बनाया जाता था, दीवार पर देवों की तस्वीरें देखने को मिलती थीं। गुजरात में एक राठवा जाति है। उनके घर पर जब भी कोई शुभ काम होता है, तो वे अपने देवी और देवताओं की तस्वीर बनाते हैं। इसके लिए कलाकार को हर वो चीज दी जाती है, जिसकी वो मांग करे। उनके लिए दीवारों पर देव को गुदवाना ही सत्संग की तरह होता है। मुझे उम्मीद है कि यहां पर ज्यादा से ज्यादा लोग आएं, और मांडना का अनुभव कर उसके बारे में जानें।