यह सिलसिला कहीं रुकता नहीं नजर आ रहा। निर्भया मामले ने देश भर को हिला दिया था, लोग सड़कों पर उतर आये थे, लेकिन मामला अभी तक सर्वोच्च न्यायालय में लटक रहा है। सात साल हो गये, तब से निर्भया का परिवार या गुजारिशें कर रहा है या न्यायालयों के चक्कर काट रहा है। ऐसे और भी कई मामले हैं। अपनी अस्मत गंवाने के बाद पीड़िता या घर की बच्ची ही गंवा देने के बाद पीड़ित परिवार न्याय की बाट जोहते रह जाते हैं और समय बीतता चलता है। कुछ नहीं होता, कुछ नहीं हो पाता। एक समाज के रूप में हम अगली दुर्घटना, या यूं कहिए अगले आक्रमण के इंतजार में सोये रहते हैं। बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या जैसे मामलों में सिर्फ एक बार सड़कों पर उतर आना और उसके बाद उसे सिरे से भुला देना हमारा स्वभाव बन गया है और पीड़ित परिवारों की नियति। हम उस नपुंसक समाज में जी रहे हैं जहां पुरुष किशोरावस्था से लेकर कब्र में जाने तक महिलाओं के वक्षस्थल की कल्पना में डूबा रहता है, और सिर्फ तभी चिंतित होता है जब वह किसी कन्या का बाप, नाना या दादा बनता है, वरना हमारा समाज बलात्कार और हत्या जैसी इस पैशाचिक क्रूरता के बारे में चुप ही रहता है।
समस्या यह है कि यह बीमारी सिर्फ पुरुषों तक ही सीमित नहीं है। एक समाज के रूप में हम लड़कों को जो छूट देते हैं यह विष उसी छूट का परिणाम है। पुरुष या लड़का, सड़क के किनारे कहीं भी पेशाब कर सकता है लेकिन छोटी-सी, फूल-सी नासमझ बच्ची की मां भी इस बात का ध्यान रखती है कि जब बच्ची को निवृत्त होना हो तो उसे सही आड़ अवश्य मिले। वही मां अपने लड़के को लेकर एकदम लापरवाह रहती है।
हमारी फिल्में हमारे समाज का चरित्र उजागर करती हैं। हर हीरो किसी हीरोइन का पीछा करता है, उसे बार- बार छेड़ता है, हीरोइन नाराज होती है, लेकिन फिल्म का अंत हीरोइन द्वारा हीरो को स्वीकार करने पर होता है। हीरोइन को छेड़ना हीरो का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे हमने एक समाज के रूप में स्वीकृति दे रखी है, और इस समाज में सिर्फ पुरुष ही नहीं हैं, स्त्रियां भी बराबर शामिल हैं। फिल्मों में ऐसे-ऐसे दृश्य होते हैं जिन्हें आप परिवार के साथ अक्सर नहीं देख पाते। चुंबन, गले मिलना, कुछ संवेदनशील हिस्सों का दिखावा, लटक-झटक आदि फिल्मों का आवश्यक हिस्सा है। बच्चे भी यही फिल्में देखते हैं, यही फिल्में देखते हुए बड़े होते हैं और यह मान कर चलते हैं कि किसी लड़की को छेड़ना ही उनके मर्द होने की निशानी है। लड़कियां भी मानकर चलती हैं कि ‘लड़के तो होते ही ऐसे है’ और लड़कों से बच कर चलना उनकी जिम्मेदारी है, या फिर किसी भी उम्र में कैसे भी संबंध बना लेना आधुनिकता की निशानी है। पब, डिस्को, रात भर चलने वाली पार्टियां, नशाीले पदार्थों का सेवन इतना आम है कि इनके विरुद्ध बोलना संभव नहीं लगता। जैसे ही आप कुछ बोलेंगे समाज का एक बड़ा वर्ग नारी स्वतंत्रता की दुहाई देने लगेगा और व्यापारी वर्ग पब और डिस्कोथेक को व्यापार का हिस्सा बताने लगेगा। तब हममें से कोई पुरुष किसी बच्ची का बाप, दादा या नाना नहीं होता, सिर्फ व्यापारी होता है। ऐसे मामलों की कमी नहीं है जब किसी लड़के ने किसी लड़की की इज़्जत पर हाथ डाला और लड़के के विरुद्ध कार्यवाही शुरू हुई तो लड़के की मां ने उससे नाराज नहीं हुई, बल्कि उसने अपने पति को यही दुहाई दी कि उसके ‘मुन्नू’ को कुछ नहीं होना चाहिए। हम अश्लील फिल्मों का विरोध नहीं करते। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हमारा बालीवुड पूरे समाज को जहर परोस रहे है और हम उसका खामियाजा भी भुगत रहे हैं लेकिन हम इस जहर को रोकने का कोई उपाय नहीं करना चाहते। एक समाज के रूप में इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है? किसी अपराध के लिए नेताओं को कोसना या पुलिस की निंदा करना आम बात है, लेकिन हम अपने गिरेबान में झांकने को तैयार नहीं हैं। हैदराबाद में हालिया बलात्कार और हत्या के बाद चारों आरोपियों का एनकांउटर हुआ पुलिस अधिकारियों के गले में हार डाले गये, राखियां बांधी गईं और खुशी का ऐसा माहौल बना कि असहमति के शेष हर स्वर की अहमियत खत्म हो गई। पुलिस का स्वागत करते समय, उन्हें राखी बांधते समय और खुशियां जाहिर करते समय हमने एक बार भी नहीं सोचा कि हम अपनी व्यवस्था से इस हद तक निराश हैं कि हम भीड़तंत्र के लिए रास्ता खोल रहे हैं। यहां कई बातें विचारणीय हैं। हममें से कोई भी बलात्कारियों का हिमायती नहीं है। हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे वीभत्स कार्य करने वाले अपराधियों को उचित दंड मिले और जल्दी से जल्दी मिले तथा हम समाज के रूप में पीड़ित परिवार के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए हर संभव प्रयत्न करें। लेकिन हुआ यह है कि पुलिस ने न्याय व्यवस्था की परवाह किये बिना खुद ही फैसला कर डाला, अर्थात?् हमारे देश में ‘कानून के रक्षकों’ का ही कानून पर से विश्वास उठ गया है। महिलाओं ने, महिला संस्थाओं ने पुलिसकर्मियों को सम्मानित किया यानी एक समाज के रूप में कानून पर से हमारा भी विश्वास उठ गया है। यही नहीं, खुद विधायकों, सांसदों और पूर्व मुख्यमंत्रियों तक ने इसकी प्रशंसा की है या दूसरे प्रदेशों की पुलिस को तेलंगाना पुलिस की इस कार्यवाही से सीख लेने की सलाह दी है तो इससे ज्यादा निराशाजनक कुछ और हो ही नहीं सकता कि खुद कानून बनाने वाले ही कानून का मजाक बनने का जश्न मनाने वालों में शामिल हैं। यह व्यवस्था की घोर असफलता है और हम व्यवस्था की असफलता का जश्न मना रहे हैं। यह समय आत्मावलोकन का समय है। आज हम पुलिस को यह छूट देने को तैयार हैं कि वह एनकाउंटर के रूप में किसी की भी हत्या कर दे, तो यह मत भूलिये कि इसी पुलिस ने बहुत से निर्दोष लोगों का भी एनकाउंटर किया है और अगर ऐसे एनकाउंटर को समाज और कानून की स्वीकृति मिल गई तो यह समाज में भस्मासुर पैदा करने जैसा ही होगा। होना तो यह चाहिए कि हम अपने विधायकों और सांसदों को नये कानून बनाने के लिए विवश करें और व्यवस्था की असफलता का जश्न मनाने के बजाए न्याय व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए कदम उठाने की बात करें, सामाजिक आचरण को सुधारने का आंदोलन चलाएं, बालीवुड की उन जहरीली फिल्मों का बायकाट करें जिनमें नारी को भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और अपनी बच्चियों को जागरूक करें, लेकिन हम व्यवस्था की असफलता का जश्न मनाते हुए सारी दुनिया को बता रहे हैं कि हम भारतीय कोई सभ्य-उन्नत समाज नहीं हैं बल्कि हम आदिम व्यवस्था के ही काबिल हैं। समाज का इससे ज्यादा दुखद क्षरण और क्या हो सकता है ?
पी. के. खुराना
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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