जाति कई मामलों में इतनी ताकतवर है कि यह कई मुद्दों को प्रभावित कर देती है। गाँव और कस्बों में, काम के वक्त या आराम के समय में ज्यादातर भारतीय इसी बात से जाने पहचाने जाते हैं कि वे किस जाति से हैं। यह सच बात है कि आजादी के बाद हुए आर्थिक और सामाजिक बदलाव से जाति प्रथा पर असर पड़ा है। एक जमाना ऐसा भी था जब जाति के बाहर खाना पीना वर्जित था, लेकिन अब शहरों में ये आम बात है। पेशेवर तबकों में बहुत सारी शादियां जाति से बाहर होने लगी हैं। जाति और पेशे के बीच, एक ज़माने में जो मजबूत संबंध था, वो भी अब कमजोर हो गया है। इन सब बातों के बावजूद जाति और जातीय पहचान आधुनिक चुनावी राजनीति में अपनी अहमियत बना चुकी है।
वे जातियां जो सामाजिक पायदान पर अनुसूचित जातियों से ऊपर लेकिन ब्राहमण-राजपूतों से नीचे थीं, वो अब अहम हो गई हैं। यू.पी. और बिहार में यादव, पंजाब हरयाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, कर्नाटका में वोक्कालिंगा और तमिलनाडु में गौंडर ऐसी ही जातियां हैं। ये जातियां अपने-अपने इलाके में प्रभावशाली जातियां हैं, जो संख्या में विशाल, सुसंगठित और समाजिक-आर्थिक हैसियत से लैस हैं, जो चुनाव में अपनी जाति के नेता के पीछे चट्टान की तरह खड़ी रहती हैं और वोटबैंक का काम करती हैं। भारतीय कानूनों में इन्हें अनुसूचित जाति और जनजाति से अलग अन्य पिछड़ी जातियों में रखा गया है।
भूमि सुधार और हरित क्रांति होने से पिछड़ी जातियों के पास आर्थिक ताकत आ गई थी लेकिन उनमें राजनीतिक ताकत मतपेटियों के द्वारा ही आ पाई। इसने उच्च जातियों के वर्चस्व के बीच पिछड़ी जातियों की राजनीतिक हैसियत को और उनके पिछड़े पन को कम करने में सकारात्मक भूमिका निभाई। अब पिछड़ी जातियां मतदान देने लगी हैं, अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने लगी हैं और उनके समाज के लोग संसद और विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। अब उनके नेता काफी प्रभावशाली और बड़ी तादात में सामने निकल कर आ रहे हैं। 1956 में डॉ अंबेडकर की मृत्यु के बाद इन जातियों के सबसे महत्वपूर्ण नेता बाबू जगजीवन राम थे।दशकों तक बाबू जी दबी-कुचली जातियों का झंडा बुलंद करते रहे थे और उनके हित में आवाज़ उठाते रहे थे। लेकिन 1986 में उनकी मृत्यु के बाद दलित राजनीति में एक खालीपनआ गया था। यह खालीपन ज्यादा समय तक नहीं चला क्योंकि इस वक्त तक कांशीराम की राजनीतिक सक्रियता एक दशक पार कर चुकी थी और वे बड़ी तेजी से उन जातियों के बड़े नेता बनते चले गए। इस समय तक भारत में कई ऐसे नेता अपनी जगह बना चुके थे जो पिछड़ी जाति से आते थे, इनमे पिछड़ी जाति से आने वाली महिला नेता मायावती का नाम भी शुमार है।
वर्तमान में भारत के ज्यादातर हिस्से में पिछड़ी जातियों को अपना सही प्रतिनिधि मिल गया है, जो उन्ही के समाज से आता है। एक अरसे तक ये जातियां कांग्रेस का वोटबैंक रही थीं, शायद इसकी वजह जगजीवन राम ही थे जो एक समय तक कांग्रेस में ही थे। लेकिन छेत्रिय पार्टियों के ताकतवर हो जाने के बाद से वे इन जातियों के वोट पर अपना हक़ जताने लगे। इसका एक नतीजा यह हुआ कि अब ये जातियां अपने आपको, अनुसूचित जाति या हरिजन शब्द की जगह दलित कहने लगीं। दलित का मतलब होता है वो व्यक्ति या समूह जिसका उत्पीड़न किया गया हो।हम यह कह सकते हैं कि इन सब बातों की वजह से जाति व्यवस्था ने भारतीय राजनीति में बहुत मजबूती से अपने पैर जमा लिए हैं और कभी न भर पाने वाली एक खाई पैदा कर दी है। संतोषजनक बात यह है की अब सभी जातियों को अपना सही प्रतिनिधित्व मिल रहा है। खासकर पिछड़ी जातियों को जो अब सामाजिक रूप से मजबूती पा रही हैं। अब वे समाज के उच्च औदे पर बैठने लगे हैं और ये जातियां समाज की मुख्य धारा से जुड़ती जा रही हैं जो एक सकारत्मक बात है।
राजनीति में ताकत पाने के साथ ही साथ ये जातियां प्रशासनिक ताकत भी पा गई हैं और वे प्रशासनिक स्तर पर भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और वे अब समाज की हर चीज पर अपनी राय रखने लगे हैं।ये लोग अपने समाज के लोगों को उच्च पदों पर देखकर गौरवान्वित महसूस करते है और इनका विश्वास लोकतंत्र में और बढ़ता जा रहा है।