अब नोटबंदी को तीन साल हो गए और उसके बाद से यह तीसरी दीवाली सूनी गई। हालांकि असली मार 2017 की दीवाली को देखने को मिली थी। सच तो यह है कि नोटबंदी से न तो कला धन रुका न करप्शन उलटे बाजार बैठ गया। सब ने अपने-अपने पुराने नोट ठिकाने भी लगा लिए. और नोटबंदी का लाभ भी भाजपा सरकार ने उठा लिया। उत्तर प्रदेश जैसे बहुरंगी स्टेट में उसने बहुमत से सवा सौ सीटें अधिक हासिल कर लीं। उस सूबे में इसके पहले तीन दशक में कोई भी पार्टी इतनी अधिक सीटें नहीं प्राप्त कर सकी थी। नोटबंदी से यकीनन गरीब आदमी खुश हुआ था। उसे लगा था कि अब सब आए उसकी जैसी स्थिति में। क्योंकि हजार और पांच सौ के नोटों की बंदी की मार मध्य वर्ग पर, इन बड़े नोटों से रिश्वत लेने वाले अफसरों, डाक्टरों और इंजीनियरों तथा पुलिसवालों के ऊपर सबसे ज्यादा पड़ी थी। इसके अलावा शिक्षा माफिया और निजी अस्पताल माफिया प्रभावित हुआ था। चूंकि इन लोगों से जनता सदैव त्रस्त रहती है इसलिए वह खुश हुई थी कि नोटबंदी का फैसला बेहतर है। मगर इन सब लोगों ने अपनी यह कमाई हजार से दो हजार कर ली। क्योंकि कुछ नोट बंद हुए तो कुछ उससे भी बड़े नोट बाजार में आ गए। कुछ दिन तो सबको परेशानी हुई लेकिन जल्द ही वे इससे निजात पा गए। अंतर यह आया की रिश्वत की मांग हजार की बजाय दो हजार में हो गई। यानी अब जो भी पैसा आएगा वह दो हजार के नोटों में आएगा।
लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि ब्लैक मनी खत्म करने का जो मकसद सरकार ने घोषित किया था, वह कहां चला गया। अब अचानक मुद्दा कैशलेस का कैसे हो गया। जबकि अधिकांश लोगों को न तो यह पता था कि नेट क्या होता है अथवा एटीएम कार्ड से पैसे कैसे निकाले जाते हैं। कुछ सुदूर गांव तो आज भी ऐसे हैं जहां मीलों तक कोई एटीएम नहीं है और न बिजली और नेट की सुविधा। एक ऐसे मुल्क में जहां साक्षरता दर 60 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो वहां के लोगों से कैशलेस की अपेक्षा एक किस्म की बदगुमानी ही है। यहां के समाज में कैशलेस का मतलब बार्टर सिस्टम है। अर्थात किसी सामान के बदले अनाज का अदन-प्रदान अथवा किसी अन्य सामान को देना। इसके अलावा लाखों परिवारों के पास तो अपना बैंक एकाउंट ही नहीं है, तब भला कैसे कैशलेस अर्थ व्यवस्था की कल्पना भारत जैसे देश में की जा सकती है। सच तो यह है कि आज भी यहां प्रति दस लाख की आबादी पर 108 बैंक शाखाएं और 149 एटीएम मशीनें ही हैं. आज भी अपने देश में 98 प्रतिशत लेन-देन नगदी में होता है. देश की एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसे पता ही नहीं है कि डिजिटल दुनिया होती क्या है. ट्राई के अनुसार फिलहाल अपने देश में कुल बीस करोड़ लोगों के पास ही स्मार्टफोन हैं. और न नेट है. इस मामले में पूरी दुनिया में भारत 114वें नंबर पर हैं। हैकर भी एक समस्या हैं। साइबर सुरक्षा को लेकर कानून लचर हैं। इसलिए डिजिटल पेमेंट असुरक्षित है।
जहां तक ब्लैक मनी की बात है तो भारत में यह समस्या वर्षों पुरानी है। साल 2012 में यूपीए सरकार भी कालेधन पर श्वेतपत्र जारी कर चुकी है। जिसमें बताया गया था कि कालेधन के मामले में विश्व में भारत 15वें स्थान पर है। खुद नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपने चुनावी अभियान में ब्लैकमनी की वापसी को ही मुद्दा बनाया था। दरअसल 2011 में अन्ना आन्दोलन ब्लैक मनी को लेकर ही शुरू हुआ था।
कामनवेल्थ से लेकर टू जी और फोर जी घोटाले में मनमोहन सरकार इतना बदनाम हो चुकी थी कि लगता था यह सरकार घोटालेबाजों की ही सरकार है। मोदी सरकार के आने के बाद लोगों को उम्मीदें जगी थीं कि शायद मोदी सरकार काले धन को खत्म कर देगी। इसीलिए शुरू में नोटबंदी की सराहना हुई थी. पर मोदी सरकार कालेधन को खत्म करने के मामले में चुप साध गई। उलटे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी चुनाव के पहले कह दिया कि चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने कालाधन वापस लाकर जो 15-15 लाख रुपये हर परिवार के खाते में जमा करने की बात कही थी, उस पर सीरियस न हुआ जाय क्योंकि वह तो बस ‘चुनावी जुमला’ था। इससे भी लगा कि यह सरकार भी मनमोहन सरकार का ही भगवा संस्करण है। जब नोटबंदी की घोषणा हुई थी उस समय देश में हजार और पांच सौ के जो नोट चलन में थे उनका मूल्य 15.4 लाख करोड़ रुपये था। और अब तक करीब-करीब 14लाख करोड़ की कीमत के नोट बैंकों में जमा किया जा चुके हैं।
इससे संकेत साफ है कि कलाधन हजार या पांच सौ के नोटों की शक्ल में नहीं अपितु किसी और रूप में है। जानकारों की मानें तो लगता है कि देश में कला धन कैश की बजाय सोना, रियल एस्टेट, बेनामी वित्तीय निवेश, जमीनों के पट्टे, कारोबारी परिसंपत्तियों और विदेशी बैंकों में जमा खातों में मौजूद है। इसका सीधा जुड़ाव टैक्स चोरी से भी है। पिछले साल अप्रैल में ‘पनामा पेपर्स लीक’ से टैक्स चोरी का बड़ा खुलासा हुआ था, जिसमें भारत ही नहीं दुनिया भर के नामचीन और प्रभावशाली लोगों के नामों का खुलासा हुआ था। इसके अलावा राजनैतिक दल चुनाव में अपार ब्लैक मनी खर्च करते हैं। उन्हें जो चंदा मिलता है वह कलाधन ही है। लेकिन मोदी सरकार भी इस धन को रोक पाने में लाचार ही साबित हुई है।जाहिर है नोटबंदी एक निरर्थक कवायद ही साबित हुई है। छोटे, मंझोले लोग तो परेशान हुए ही उद्योग जगत भी परेशान है. इसका असर खरीददारी, उत्पादन और नौकरी तीनों पर पड़ा है. सरार्फा कारोबार, आॅटोमोबाइल, रिटेल कारोबार, इलेक्ट्रॉनिक्स के बड़े उद्योगों, प्रॉपर्टी रजिस्ट्रेशन आदि पर खासा असर देखने को मिल रहा है। कई कंपनियों द्वारा घटती मांग के चलते उत्पादन में कटौती और कुछ दिनों के लिए प्लांट बंद किए जाने की भी खबरें आई हैं। नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र में देखने को मिल रहा है,जिसका देश की अर्थव्यवस्था में 45 प्रतिशत योगदान है।