2019 का आखिरी महीना धीरे धीरे कड़कड़ाती हो जाने वाली सर्दी के कारण कैलेन्डर की सतरों पर सिकुड़कर छुट्टियां मनाने जा रहा था। उसे नहीं मालूम था अचानक जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की कोख से निकलकर एक जद्दोजहद देश का गर्म सियासी पारा ऊपर चढ़ा देगी। लोकसभा में बहुमत और सहयोगी तथा समर्थक दलों की कुव्वत के साथ संसद में दो तिहाई ताकत के बल पर कुछ अरसा पहले जम्मू कश्मीर की संवैधानिक हैसियत के बारे में केन्द्र सरकार ने जोखिम भरे फैसले लिए ही थे। नागरिक अधिकारों को अब तक वहां बहाल नहीं किया जा सका है। अलबत्ता राज्य का ओहदा ही घटाकर उसे केन्द्रशासित प्रदेश कर दिया गया है। हालिया वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के नर्म तेवरों के कारण जनमत का इंसाफ के लिए शाही दरवाजों पर दस्तक देने का हौसला जे़हन और चैपाल में ढीला हो रहा है। गृह मंत्री अमित शाह ने जोशखरोश में नागरिकता अधिनियम 1955 में मासूम दिखाया जाता लेकिन दूरगामी परिणामों की कुटिलता का आरोप झेलता संशोधन पास करा ही लिया। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिमबहुल देशों से 31 दिसंबर 2004 तक भारत आ चुके सभी गैरमुस्लिमों को नागरिकता पाने का अधिकार पांच साल बाद अर्थात 2020 से मिल जाएगा। संशोधन बर्र का छत्ता हो गया। अल्पसंख्यक वर्ग को अदृश्य चोट लगने से देश में लोगों को विधायन में खोट नज़र आया। उम्मीद नहीं थी कि स्वतःस्फूर्त जनप्रतिरोध सघन और व्यापक हो जाएगा।
संशोधन की वैधता पर जिरह किए बिना कहा जा सकता है कि आजादी के बाद पहली बार देश के छात्रों ने किसी सियासी मसले को लेकर अपने दमखम पर सिविल नाफरमानी की। विद्यार्थी सड़कों पर आए। जुलूस और रैलियां निकलीं। प्रदर्शन हुए। मीडिया और सोशल मीडिया के आयामों का इस्तेमाल करते सूचना तकनीकी का देश के बाहर तक जाल बुना गया। टेलीविजन, इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे माध्यमों में दुनिया ने भारत के छात्रों को पुलिसिया लाठियों से पिटते हुए देखा। लगा तो कि समाज करवट ले रहा है। भीड़ में अनुशासन नहीं होता। पिटने पर तितरबितर हो जाती है। अभी अनोखा हुआ कि छात्र छात्राओं ने मानव श्रृंखला बनाकर पुलिसिया पिटाई सहते सरकारी खौफ को चुनौती दी। अतिशयोक्ति भले लगे लेकिन युवजन सियासी दलों की मदद या उनके पिछलग्गू बने बिना खुद प्रतिरोध का मौलिक चेहरा बनकर लोकतंत्र को इक्कीसवीं सदी में नए आयाम देने की वाग्धर्मिता का स्फुरण करें। तो इसकी अनदेखी नहीं हो सकती।
आज़ादी के आंदोलन में गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल जैसे अजान देते सैकड़ों सेनापतियों का हाथ जनता के सिर पर था। सुभाष बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अग्निमय नायक युवा होने की सार्थकता इतिहास में अपने लावा जैसे खून से लिख रहे थे। आज़ादी के बाद नेताओं के चाल चरित्र और चेहरे में असाधारण पतन होता जनता देखती रही है। लोकतंत्र की बुनियाद में दीमकें घुस गई लगती हैं। नापसंद अनिवार्यताएं चुनाव के माध्यम से लोकतंत्र की धमिनयों में घुस जाएं, तो उन्हें विटामिन नहीं वायरस समझा जाता है। ऐसा भी नहीं है कि इस हताशा में अपवाद नहीं हैं। आज भी सियासत में चरित्रवान प्रतिनिधि मुट्ठी भर भले हों, नागरिक धड़कनों में जीवंत तो हैं।
चाहे जो हो मौजूदा युवा पीढ़ी को विसंगतियों, विभ्रम और विनम्र स्थितियां बनाकर हिकारत में हंकाला नहीं जा सकता। कलम को लाठी से कुचलना फासीवाद और नाज़ीवाद में संभव हो सकता होगा, ज़म्हूरियत में कतई नहीं। विवाह अधिनियम के अनुसार 18 वर्ष की युवती और 21 वर्ष का युवक अपना जीवन तय करने आज़ाद हैं। राजीव गांधी की हुकूमत ने देश के हर चुनाव के लिए 18 वर्ष की उम्र को वोटर बना दिया। कूढ़मगज निज़ाम ने काॅलेजों में छात्र यूनियनों के चुनाव रद्द कर दिए। वहां 18 वर्ष से अधिक उम्र के युवजन चुनाव और विवाह के लिए ‘खुल जा सिमसिम‘ और विश्वविद्यालयीन राजनीति में नुमाइंदगी के लिए ‘बंद हो जा सिमसिम‘ कहने पर मजबूर हैं। आज की प्रबुद्ध छात्र पीढ़ी पिछली पीढ़ियों का काॅपी पेस्ट किया हुआ अगला संस्करण नहीं है। वह मजहब, प्रांतीयता, क्षेत्रीयता, बोलियों, खानपान, स्त्री-पुरुष संबंध, वैज्ञानिक वृत्ति, अंतर्राष्ट्रीयता, नई भाषायी इबारतों, साहसिक अभियानों, नवाचार और नवोन्मेष को लेकर ज़म्हूरियत को फकत किताबों में ही पढ़ती नहीं बूझती भी है।
गौहाटी से लेकर कोचीन, फिर श्रीनगर से लेकर दिल्ली तक स्वतःस्फूर्त आंदोलन छात्र कर ही तो रहे हैं। राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव जैसे कई नेता मोदी-विरोध की राजनीति पर नब्ज रखते हुए भी छात्रों की जद्दोजहद में प्रेरक या कारक अनिवार्य घटक नहीं बने। अन्ना हज़ारे की अगुआई वाला भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सियासतदां लोगों के इशारों, सहायता और प्रचार के संरजाम के सहारे था। ‘छात्र भारत का भविष्य हैं‘ का ठंडा, उबाऊ और लिजलिजा फिकरा स्कूलों से रटाया जाना शुरू हो जाता है। इस बार ‘चित मैं जीता, पट तू हारा‘ कहते छात्रों ने उलटकर कहा ‘हम भविष्य का भारत हैं। ज़िम्मेदारी वर्तमान से तत्काल ले रहे हैं।‘ यह भी है कि इस कथित सड़क इंकलाब में खूब पत्थरबाजी हुई। उन्हें बहकाने, भड़काने वाले भी कैमरे में कैद हुए। सियासी इलाके और सरकार समर्थक तत्व मुंह में कपड़ा बांधकर उम्र छिपाते सींग कटाकर भीड़ में घुसे भी। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने असंवैधानिक दंभोक्ति की पत्थरबाजों से बदला लिया जाएगा। संवाद की राजनीति में असभ्य भाषा का ककहरा विधायिका के गर्भगृह से भी पैदा होता है। संख्या में आधे विधि निर्माता अपराधी या आरोपी हैं। स्वरचित कानूनों के दम पर मासूमियत का नकाब लगाए लोकतंत्र की गाड़ी खाई की ओर हंकाल रहे हैं। सरकार की हिंसक ताकत के लिए जनप्रतिरोध की दीवार ढहाना बहुत मुश्किल नहीं होता।
अब तो बुरका पहनने वाली मुस्लिम महिलाएं हजारों में शाहीन बाग के धरना स्थल को जनप्रतिरोध का मुकाम बना रही हैं। ‘तीन तलाक‘ से मुक्ति का सरकारी गिफ्ट अपने बच्चों के भविष्य की कीमत पर क्षतिपूर्ति के बतौर मंजूर नहीं करतीं। पस्तहिम्मत, भयग्रस्त, प्रतिरोधरहित अवाम की सदियां पुरानी सामंती गुलामी में पिसती आई हैं। संविधान जनता का समावेशी ज़िंदगीनामा है। जितना अतीत अवांछित हो वह इतिहास की यादों का पलस्तर बनकर झड़ जाता है। सरकारों का फर्ज़ है कि जनसंवाद की प्रक्रिया को भोथरा नहीं किया जाए। नागरिकता कानून के विरोध की रैलियों का जवाब सरकार- प्रायोजित रैलियां नहीं हैं। जनता से उगाहे धन से जनमत का चेहरा नोचने के नाखून नहीं बढ़ाए जाते। यह तो है कि हेतु चाहे जो हो संविधान ने संसद को नागरिकता कानून बनाने के असीमित अधिकार दिए हैं। प्रक्रियात्मक प्रावधानों को मूल नागरिक अधिकारों की उपेक्षा करते देश के भविष्य पर चस्पा नहीं किया जाना है। कैसा निज़ाम है कि कहर उच्च शिक्षा के हौसलों पर ही बरपा हो रहा है। उच्च शिक्षा की दुनिया में अपने बढ़ते महंगाई सूचकांक और डाॅलर तथा पौंड की गिरती विनिमय दरों की तरह भारत ढलान पर है। भारत ‘सोने की चिड़िया‘ और विश्व गुरु रहा होगा। ‘वसुधैव कुटूंबकम्‘ का उसका नारा भी था। इक्कीसवीं सदी में देश की युवा शक्ति को लोकतंत्र की पपड़ियाती जा रही दीवार पर पलस्तर समझकर चरित्र प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता।
कनक तिवारी