साल 2015 में बड़े गाजे-बाजे के साथ भारत ने ब्रसिलिया डिक्लरेशन पर दस्तखत किया। कह दिया कि 2020 आते-आते सड़क दुर्घटना और इसमें मरने वालों की संख्या आधी कर देंगे। वो साल आ गया है। आँकड़ों को देखें तो हालात बद से बदतर हुए हैं। बदमिज़ाज ड्राइवर को ठीक करने के लिए क़ानून में की गई सख़्ती राजनीति के हत्थे चढ़ गई है। मरने वालों का कोई वोट नहीं है। जो ज़िंदा हैं उन्हें पक्का यक़ीन है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। सो जिन्हें वे वोट देते हैं, वे भी इसकी परवाह नहीं करते। बाक़ियों ने कब किसकी परवाह की है?
पिछले पाँच साल के ही आँकड़े देखें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। देश में हर साल क़रीब पाँच लाख दुर्घटनाएँ होती है। इनमें डेढ़ लाख लोग मरते हैं। पाँच लाख लुल्हे-लंगड़े हो जाते हैं। हर मिनट कहीं ना कहीं भिड़ंत हो रहा होता है। हर चौथे मिनट कोई ना कोई निबट लेता है। प्रति घंटे का हिसाब करें तो तक़रीबन पचपन दुर्घटनाओं में सत्रह-अट्ठारह की जान जाती है। प्रतिदिन का औसत गिने तो तेरह सौ से ऊपर दुर्घटनाओं में लगभग चार सौ लोग मरते हैं। मतलब एक जंबो-जेट रोज़ क्रैश होता है।
बेलगाम ड्राइवर के हाथ तेज-रफ़्तार गाड़ियाँ और टोल-भरवाती सपाट सड़कें दुर्घटनाओं को और भी जानलेवा बना रही है। इनमें मरने वालों में बूढ़े कम ही होते हैं। दस में से पाँच 18-35 साल और सात 18-45 आयु वर्ग के होते हैं। 15-49 साल के आयु वर्ग में सड़क-दुर्घटना असमय मृत्यु के चार प्रमुख कारणों में एक है। यही वो समय होता है जब आदमी अपने परवान पर होता है। परिवार, देश-दुनियाँ के काम का होता है। उनके इस तरह मर जाने ने से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भारी क्षति होती है। परिवार छिन्न-भिन्न हो जाता है।
दस में से चार टक्कर ट्रैफ़िक चौराहे पर होती है। टू-वीलर को ऐक्सिडेंट का ख़ास शौक़ है। सौ में तैंतीस में वे ही भिड़े मिलते हैं, प्रति-वर्ष पचास हज़ार से ज़्यादा मरते हैं। दस हज़ार से ऊपर बिना हेल्मेट के होते हैं। नैशनल हाइवे की तो पूछिए ही मत। ऊपर जाने और अपनी ऐसी-तैसी कराने के लिए ये सबसे माकूल जगह है। रोड नेट्वर्क का ये मात्र दो प्रतिशत है लेकिन सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले दस में से चार इधर ही दुर्गति को प्राप्त होते हैं।
चौरासी प्रतिशत दुर्घटनाएँ ड्राइवर की गलती की वजह से होती है। इनमें दस में से छह ओवर-स्पीडिंग के दोषी होते हैं। नशे की स्थिति में गाड़ी चलाने से हर साल पंद्रह हज़ार से भी ज़्यादा दुर्घटनायें होती है। हाल में गाड़ी चलाते समय मोबाइल पर बात करना भी एक बड़ा कारण बनकर उभरा है। ओवर-लोडिंग की वजह से प्रति वर्ष साठ हजार से ऊपर दुर्घटनाएँ होती है। छप्पन हज़ार मामले ‘हिट एंड रन’ के होते हैं। मतलब ठोका और चलते बने। रुक जाते और मदद करते तो शायद बच जाता। इसमें लगभग बाइस हज़ार लोग मरते हैं।तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में सर्वाधिक दुर्घटनाओं होती हैं। उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मरते हैं। शहरों में चेन्नई और दिल्ली ऊपर हैं। मई और मार्च महीने में सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाएँ होती है। सड़कों पर दोपहर तीन बजे से शाम नौ बजे का समय सबसे ख़तरनाक होता है।
सरकारें सड़क-सुरक्षा नियमों के बारे में जागरूकता बढ़ाने, सड़क और वाहन इंजिनीयरिंग को दुरुस्त करने, क़ानून को सख़्ती से लागू करने एवं घायलों को आपात सेवा पहुँचाने की बात तो करती है लेकिन लगता नहीं कि वे इसे गम्भीरता से लेती है। सुप्रीम कोर्ट में रोड सेफ़्टी काउन्सिल बना रखा है। राज्य और ज़िले स्तर पर भी लम्बी-चौड़ी समिति बनी है। लेकिन लगता है उन्होंने चाय-पकौड़े वाली मीटिंग को ही ज़मीनी कार्रवाई मान लिया है। कागजों में उलझें हैं। बाहर सड़कों पर खून का दरिया बह रहा है। पुलिस पोस्ट-मोर्टेम कराने में व्यस्त है, पीड़ित परिवार भाग्य को कोसने में।
बचपन में कहानी की किताबों में पढ़ते थे कि पहले जंगलों में फ़ैंसी नामों वाले तरह-तरह के राक्षस होते थे जो लोगों को कच्चा चबा जाते थे। मुनि-महात्मा तपस्या करते थे, भगवान को गुहार लगाते थे। वही आकर इन असुरों का संहार करते थे। आज कल के समय में लगता है ये राक्षस बसासुर, ट्रकासुर बन सड़कों पर स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। घड़ी-घड़ी लोगों को अपना ग्रास बना रहे हैं। सड़कें मानो फ़ायरिंग रेंज हो गई है। जब आप इनपर यात्रा कर रहे होते हैं तो जान गँवाने का ख़तरा जम्मू-कश्मीर के लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर पाकिस्तान की गोलियों से भी ज़्यादा होता है।
भारत सरकार ने 11-17 जनवरी 2020 को इक्तिसवाँ ‘सड़क सुरक्षा सप्ताह’ मनाया। मक़सद था कि लोगों को भयावह स्थिति और सड़क सुरक्षा नियमों के प्रति जागरूक किया जाय। थीम था ‘ब्रिंग़ चेंज थ्रू यूथ’। नुक्कड़ नाटक, वॉक एंड रन, सड़क सुरक्षा शपथ, वेबिनार, रोड सेफ़्टी ऑडिट, फ़र्स्ट रेसपोंडेर्स ट्रेनिंग, हेल्मेट रैली, पेरेंट्स रिपोर्ट कार्ड, ट्रैफ़िक साइन स्टडी, पोटहोल स्टडी, सेफ़ इंडिया आयडीयाथान, मुन्नाभाई प्रोटेस्ट इत्यादि किए जाने थे। कड़ाके की ठंड थी। स्कूल-कालेज बंद थे। ट्रैफ़िक पुलिस और ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट बेख़बर थी। पब्लिक रिलेशन वाले कही और व्यस्त थे। यूथ परिवर्तन-वाहक बनाए जाने का इंतज़ार करते रहे। जागरूकता अभियान कब शुरू हुआ और कब ख़त्म, पता ही नहीं चला।
इससे एक बात तो पक्की है। हमें लोगों के जान की ज़रा भी चिंता नहीं है। उस हालात में तो बिल्कुल नहीं जब ऐसा सड़कों पर हो रहा है। हम मरने वाले को बेवक़ूफ़ और भाग्यहीन और मारने वाले को अबोध समझ गाड़ी आगे बढ़ा देते हैं। अब तो भगवान का ही सहारा है।