हमारी विडंबना यह है कि हम तमाम आदर्श लोगों को देवी देवता बनाकर उनके मंदिर तो सजा देते हैं, मगर उनके आदर्श नहीं अपनाते। धर्म के नाम पर जो धंधा और राजनीति होती है, वह दुखद है। उच्च शिक्षित और संस्कारित सांसद महुआ मोइत्रा ने टीवी चैनल की डिबेट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गली का लफंगा कहकर मर्यादा तोड़ी। महुआ सम्मानीय और सुयोग्य हैं, मगर उनसे प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिए ऐसे शब्दों की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यह भी सच है कि मोदी ने ममता और उनकी पार्टी के लिए अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल किया था मगर देश के प्रधानमंत्री को फुकरा बता देना, उससे भी अधिक दुखद है। चुनाव जीतने या जवाब देने के लिए सभ्य भाषा और व्याकरण हमारे देश की भाषाओं में मौजूद है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी के लिए चोर शब्द का प्रयोग किया था। यह निश्चित रूप से दुखद है क्योंकि प्रधानमंत्री देश का होता है न कि किसी एक दल मात्र का। हालांकि दुखद यह भी था कि मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनकी धर्मपत्नी सोनिया गांधी के लिए अमर्यादित शब्दों का प्रयोग किया था। कमोबेश इसी तरह यूपी के सीएम अजय सिंह विष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ ने लाइव रिकार्डिंग कराते वक्त कैमरामैन से चूतियापा कह दिया। हम कानपुर के निवासी हैं, वहां यह शब्द मूर्खता के लिए प्रयोग किया जाता है। शाब्दिक रूप से भी यह संस्कृत के च्युत शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ नीचे गिरना होता है, मगर यह भी सत्य है कि पूर्वी यूपी और पश्चिमी यूपी से पंजाब तक यह शब्द गाली माना जाता है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कई बार अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करते हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने तो पीएम मोदी के लिए नीच शब्द का प्रयोग किया था। कम से कम उच्च शासकीय, राजनीतिक और धार्मिक पद पर बैठे व्यक्तियों से तो संस्कारित भाषा के प्रयोग की उम्मीद की जाती है।
विवादित कृषि कानूनों और सीएए एनआरसी के खिलाफ आंदोलन करने वालों पर उच्च पदों पर बैठे तमाम सांसदों, मंत्रियों और नेताओं ने मर्यादाएं तोड़ी और अभद्र शब्दों का प्रयोग किया। गीता के उपदेश में कृष्ण ने स्पष्ट किया है, कि जो भी हम करते हैं, वह पलटकर आता है। हमें ही भोगना पड़ता है। आपके शब्द आपके संस्कार, परिवार और वातावरण को प्रदर्शित करते हैं। हमारी भाषा और व्यवहार सदैव उच्च मानदंडों को पूरा करने वाले होने चाहिए। कोई व्यक्ति सिर्फ पद से बड़ा नहीं होता बल्कि अपने कार्य-व्यवहार से बड़ा बनता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण रामायण में मिलता है, जब राम स्वयं रावण को प्रणाम कर उससे ज्ञान मांगते हैं। राम कभी भी रावण के लिए कोई अशोभनीय शब्द प्रयोग नहीं करते हैं। यही तो मर्यादा है। ऐसा नहीं है कि मर्यादाएं सिर्फ भाषा और शब्दावली में ही टूट रही हैं। यह कार्य व्यवहार में भी लगातार टूटती दिखती हैं। आपको टीएन शेषन का चुनाव आयोग भी याद होगा और आज का सुनील अरोड़ा का चुनाव आयोग भी स्पष्ट दिखता है। शेषन के वक्त चुनाव आयोग का सम्मान शीर्ष पर था और अब फर्श पर है। मर्यादाएं सार्वजनिक धन के खर्च में भी टूट रही है। शासकीय धन जनहित के लिए खर्च किया जाना चाहिए मगर पहली बार यह निजी प्रचार-प्रसार और यात्राओं पर खर्च किया जा रहा है। एक तरफ देश के करोड़ों नागरिक आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, तो दूसरी तरफ उनसे मिले टैक्स के धन से सत्ता सिंहासन में बैठे लोग ऐश ओ आराम फरमा रहे हैं। इसे कदाचार की श्रेणी में क्यों न रखा जाये? सत्ता का डर दिखाकर विरोधियों के समर्थकों और नेताओं को तोड़ा जा रहा है।
मुंबई के पुलिस आयुक्त ने सीएम को चिट्ठी लिखी कि गृह मंत्री ने हर माह 100 करोड़ रुपये की वसूली करने का टॉरगेट दिया था। यहां भी मर्यादाएं टूटीं। जब मंत्री ने यह टॉरगेट दिया, तभी आयुक्त ने विरोध करते हुए अपने वरिष्ठतम अधिकारी को रिपोर्ट क्यों नहीं भेजी? जब एक गंभीर आरोप के चलते उनका तबादला हो गया, तो शोर मचा रहे हैं। वहीं, अदालतें सत्ता के चारण में फैसले सुनाकर पीड़ितों के साथ अन्याय कर मर्यादाएं तोड़ रही हैं। जांच एजेंसियों की मर्यादाएं तार तार हो चुकी हैं। ये एजेंसियां कुछ लोगों और दलों के सदस्यों को ही टॉरगेट बनाती दिखती हैं। यही कारण है कि अधिकतर मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं। यूपी में पुलिस ने 120 लोगों पर एनएसए लगाया मगर हाईकोर्ट ने सबूतों का परीक्षण किया तो पाया कि 94 लोग निर्दोष फंसा दिये गये। इसी तरह गैंगेस्टर सहित तमाम कानूनों का दुरुपयोग करके विरोधी स्वरों को कुचला जा रहा है। अपनी जनता के सुख दुख को महसूस करके उनका समाधान करने के बजाय मर्यादाओं को ताक पर रख उन्हें आत्महत्या की राह में धकेला जा रहा है। हमारा धर्म सिखाता है, कि गरीब-असहाय लोगों की सहायता करो, मगर हो उलट रहा है। जो कमजोर और असहाय है, उसका ही शोषण हो रहा है। यूपी और एमपी में मर्यादाओं को ताक पर रखकर व्यापारी और रिक्शा चालक को पीटा गया। दुख तब होता है, जब सरकार ऐसे लोगों पर कार्रवाई करने के बजाय आरोपियों के बचाव में उतर पड़ती है।
मर्यादाओं के टूटने का ही नतीजा है कि देश की अर्थव्यवस्था गंभीर बीमारी का शिकार हो चुकी है, जो दिन प्रतिदिन मरणासन्न हो रही है। बावजूद, इसके सियासी नेताओं और सत्ताधीशों के खर्च कई गुना बढ़ चुके हैं। उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों का भी खर्च भी कई गुना बढ़ा है। हथियार की तरह प्रयोग होने वाली जांच एजेंसियों का बाजट कई सौ गुना बढ़ा दिया गया, जबकि आमजन का बजट और खर्च दोनों आधा हो चुका है। देश के नागरिक कुपोषण, लैंगिक असमानता, हिंसा और बेरोजगारी का शिकार हो रहे हैं। यह सब इसलिए है, क्योंकि कार्यपालिका ही नहीं, न्यापालिका, विधायिका, संस्थायें और जांच एजेंसियां सभी अपनी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं। उनकी निगरानी करने वाला मीडिया मर्यादाओं को भूल चुका है। राजनीतिज्ञों का चरित्र हनन हो चुका है। ऐसे में हम कौन सा रामराज्य स्थापित करेंग? राम का मंदिर बनने से रामराज्य नहीं आएगा। राम के आदर्श और मर्यादाओं को अपनाने से रामराज्य स्थापित होगा। जब ऐसा होगा तभी राममंदिर वास्तविक रूप से निर्मित होगा।
जय हिंद!
(लेखक प्रधान संपादक हैं।)