वर्षों पहले मैं हिसार रेंज में आईजी था। रोज की तरह सवेरे दफ्तर में लोगों से मिल रहा था। उनकी तरह-तरह की शिकायतें थी। कई तो डरे-सहमे थे। अपनी बात कह भी नहीं पा रहे थे। कई पहले से फोन करवा के पूरी टोल के साथ पधारे थे। हर किसी की एक कहानी होती थी। उसमें वे अपने को शिकार और बाकी को शिकारी बताते थे। अधीनस्थ पुलिस कर्मियों पर उनकी पूरी कृपा होती थी।
उनके बारे में कुछ ऐसा बखान करते कि मुझे शर्म आती कि मैं उनका अफसर क्यों हुं। कई तो थानेदार से फोन पर हुए बातचीत का रिकॉर्डेड ब्योरा भी सुनाने लगते। मुझे अचंभा होता कि आखिर फटेहाल से दिखने वाले इस शख्स ने फोन-काल टेप करना सीखा कहां से? कई तो वीडियो भी दिखा देते। कुछ साल पहले तक अंदाजा लगाना मुश्किल था कि हमारे हर तरफ टेप रिकॉर्डर और कैमरा होगा और उसे मिनटों में सारी दुनिया में फैलाने के लिए लगभग मुफ्त का इंटरनेट भी होगा। उसी क्रम में एक दुबली-पतली सी लड़की मिली। सोचा वही शादी का रोना रोएगी। हमारे यहां शादी का टूटना जिंदगी बर्बाद होना माना जाता है। लड़के और उसके परिजनों के खिलाफ कानून की सारी धाराएं लगा दी जाती है।
समझदार किस्म के पुलिसकर्मी इसके विश्वव्यापी एवं त्वरित कार्रवाई में विशेष रुचि लेते हैं। अगर लुटेरे और दहेज के आरोपी में से एक को पकड़ने का विकल्प हो तो वे दहेज के भेड़िए की तरफ ही लपकेंगे। महिला आरोपियों को खास तवज्जो देते हैं। हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा। इस कानून ने सबके के लिए जेल के दरवाजे खोल दिए हैं। अगर मियां-बीवी में खटपट हो गई तो बीस साल से अमेरिका में रह रही बुआ और नब्बे साल की दादी भी दायरे में आ जाती है। खैर, इस लड़की का नाम अनु था और उसके साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। उसने बताया कि वो ‘भीख नहीं किताब दो’ नाम की सहयोगी संस्था चलाती है। झोपड़-पट्टी में फंसे गरीब बच्चों को पढ़ाती है। बाद में उसके कहने पर मैं उसके इलाके में भी गया। उसके बच्चों से भी मिला।
इस बात से अनभिज्ञ कि प्रबुद्ध लोग उनकी फटेहाली का झूठा रोना रोकर शोहरत और पैसा बटोर रहे हैं, वे अपनी दुनियां में मस्त मिले। एक-एक परिवार में 10-10 बच्चे थे। एक बूढ़े से पूछा कि इनका ख्याल कैसे करते हो। जवाब मिला कि सब हो जाता है। अगर एक-दो मर भी गए तो और पैदा कर लेंगे। दो सबक मिला। एक, कुछ अच्छा करने के लिए कुछ विशेष होने की जरूरत नहीं है। बस हौसला होना चाहिए। दो, लोग परिस्थितियों के हिसाब से सोच बना लेते हैं। खाते-पीते लोग गरीबों को साधनहीन, दयनीय समझते हैं। बदले में गरीब भी उनको कंजूस, बीमार और झगड़े में उलझा हुआ ही समझते हैं।
उसी दौरान मेरा हिसार के डीसी दफ्तर में भी जाना हुआ। अक्सर अफसर जहां बैठते हैं उसके पीछे एक बोर्ड लगा होता है। इसमें उनके पूर्ववर्तियों और उनके सेवा-अवधि के बारे में लिखा होता है। वहां एक वेड्डेरबर्न नाम के महाशय भी तख्ती-नशीं थे। विशेष बात ब्रैकेट् में थी कि वे 1857 में बागियों के हाथ मारे गए। भाव कुछ शहादत वाला था। वैसे तो ये छोटी बात है लेकिन एक तरह से देखें तो इसके मायने बड़े हैं। भारत में सिविल सेवा अभी भी अपने को अंग्रेजों से जोड़कर ही देखती है। भले ही वे आक्रामक थे और एक खाते-पीते देश का बेड़ा गरक कर गए। पिछले 8-10 दिनों में दो-तीन अपेक्षाकृत युवा सरकारी अधिकारियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी। पहले कश्मीरियों के अभिव्यक्ति के अधिकार के हनन से क्षुब्ध थे।
दूसरे का कहना था कि प्रजातंत्र के ढांचे से खिलवाड़ हो रहा है और ऐसे में सरकार का हिस्सा बने रहना अनैतिक है। चूंकि खानदानी आदमी थे और अपने त्याग को उन्होंने एक ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे से जोड़ दिया था, टीवी-अखबार वाले दौड़ पड़े। कुछ आशिकाना अंदाज में उन्होंने गले न उतरने वाली अपनी कुर्बानी की दास्तां चैनल दर चैनल दोहराई। जैसे कि ये कोई नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे हैं। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक तरफ जहां रोजगार को लेकर हल्ला मचा हुआ है, ये कौन लोग है जो पैंतीस साल की जागीर को ठोकर मार रहे हैं। वो भी उस कश्मीर के लिए जिसके बारे में उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास के जनरल नॉलेज पेपर के लिए ही पढ़ा होगा। शायद ही कभी उधर कदम भी रखा हो। वैसे तो इस तरह की आला नौकरी एक समय में सुभाष चंद्र बोस ने भी छोड़ दी थी। लेकिन इनकी तो मुझे जबरदस्ती की शहादत ही लगती है।
खाते-पीते घरों, रियायती दरों पर महंगी शिक्षा प्राप्त कर कोचिंग के रास्ते सरकार की पहली कतार में घुस आए ये अपनी मर्जी की तैनाती चाहते हैं। काम के बारे में किसी सवाल-जवाब से इन्हें सख्त परहेज है। नौकरी तो हम शौक के लिए करते हैं का भाव लिए घूमते हैं। जिद करते हैं कि सामंती हुकूमत बनी रहे। जैसा अंग्रेज कह गए वैसा ही होता रहे। देखने वाली बात ये है कि इनका अगला कदम क्या होगा। आईएसआईएस का रूख करेंगे या अपने रसूख और सरोकार का इस्तेमाल कर किसी देशी-विदेशी कंपनी में एडजस्ट हो जाएंगे? नौकरी जब मर्जी छोड़ें लेकिन एक संवेदनशील मुद्दे पर ऐसे ही हांक देना बारूद को तीली दिखाने जैसा है। इन्हें पता भी है कि सीरिया और अफगानिस्तान से फारिंग होते ही पेशेवर जेहादी उनकी तरह कोई कंपनी या पार्टी में भर्ती नहीं होंगे? वे कश्मीर पर ही हल्ला बोलेंगे।
भारत में सिविल सेवा की परीक्षा, इसकी संरचना एवं प्रशिक्षण में व्यापक परिवर्तन की जरूरत है। कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि इसमें लोगों की समस्या का समाधान का हौसला रखने वाले ही घुस पाएं, टिक पाएं।(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
समझदार किस्म के पुलिसकर्मी इसके विश्वव्यापी एवं त्वरित कार्रवाई में विशेष रुचि लेते हैं। अगर लुटेरे और दहेज के आरोपी में से एक को पकड़ने का विकल्प हो तो वे दहेज के भेड़िए की तरफ ही लपकेंगे। महिला आरोपियों को खास तवज्जो देते हैं। हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा। इस कानून ने सबके के लिए जेल के दरवाजे खोल दिए हैं। अगर मियां-बीवी में खटपट हो गई तो बीस साल से अमेरिका में रह रही बुआ और नब्बे साल की दादी भी दायरे में आ जाती है। खैर, इस लड़की का नाम अनु था और उसके साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। उसने बताया कि वो ‘भीख नहीं किताब दो’ नाम की सहयोगी संस्था चलाती है। झोपड़-पट्टी में फंसे गरीब बच्चों को पढ़ाती है। बाद में उसके कहने पर मैं उसके इलाके में भी गया। उसके बच्चों से भी मिला।
इस बात से अनभिज्ञ कि प्रबुद्ध लोग उनकी फटेहाली का झूठा रोना रोकर शोहरत और पैसा बटोर रहे हैं, वे अपनी दुनियां में मस्त मिले। एक-एक परिवार में 10-10 बच्चे थे। एक बूढ़े से पूछा कि इनका ख्याल कैसे करते हो। जवाब मिला कि सब हो जाता है। अगर एक-दो मर भी गए तो और पैदा कर लेंगे। दो सबक मिला। एक, कुछ अच्छा करने के लिए कुछ विशेष होने की जरूरत नहीं है। बस हौसला होना चाहिए। दो, लोग परिस्थितियों के हिसाब से सोच बना लेते हैं। खाते-पीते लोग गरीबों को साधनहीन, दयनीय समझते हैं। बदले में गरीब भी उनको कंजूस, बीमार और झगड़े में उलझा हुआ ही समझते हैं।
उसी दौरान मेरा हिसार के डीसी दफ्तर में भी जाना हुआ। अक्सर अफसर जहां बैठते हैं उसके पीछे एक बोर्ड लगा होता है। इसमें उनके पूर्ववर्तियों और उनके सेवा-अवधि के बारे में लिखा होता है। वहां एक वेड्डेरबर्न नाम के महाशय भी तख्ती-नशीं थे। विशेष बात ब्रैकेट् में थी कि वे 1857 में बागियों के हाथ मारे गए। भाव कुछ शहादत वाला था। वैसे तो ये छोटी बात है लेकिन एक तरह से देखें तो इसके मायने बड़े हैं। भारत में सिविल सेवा अभी भी अपने को अंग्रेजों से जोड़कर ही देखती है। भले ही वे आक्रामक थे और एक खाते-पीते देश का बेड़ा गरक कर गए। पिछले 8-10 दिनों में दो-तीन अपेक्षाकृत युवा सरकारी अधिकारियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी। पहले कश्मीरियों के अभिव्यक्ति के अधिकार के हनन से क्षुब्ध थे।
दूसरे का कहना था कि प्रजातंत्र के ढांचे से खिलवाड़ हो रहा है और ऐसे में सरकार का हिस्सा बने रहना अनैतिक है। चूंकि खानदानी आदमी थे और अपने त्याग को उन्होंने एक ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे से जोड़ दिया था, टीवी-अखबार वाले दौड़ पड़े। कुछ आशिकाना अंदाज में उन्होंने गले न उतरने वाली अपनी कुर्बानी की दास्तां चैनल दर चैनल दोहराई। जैसे कि ये कोई नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे हैं। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक तरफ जहां रोजगार को लेकर हल्ला मचा हुआ है, ये कौन लोग है जो पैंतीस साल की जागीर को ठोकर मार रहे हैं। वो भी उस कश्मीर के लिए जिसके बारे में उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास के जनरल नॉलेज पेपर के लिए ही पढ़ा होगा। शायद ही कभी उधर कदम भी रखा हो। वैसे तो इस तरह की आला नौकरी एक समय में सुभाष चंद्र बोस ने भी छोड़ दी थी। लेकिन इनकी तो मुझे जबरदस्ती की शहादत ही लगती है।
खाते-पीते घरों, रियायती दरों पर महंगी शिक्षा प्राप्त कर कोचिंग के रास्ते सरकार की पहली कतार में घुस आए ये अपनी मर्जी की तैनाती चाहते हैं। काम के बारे में किसी सवाल-जवाब से इन्हें सख्त परहेज है। नौकरी तो हम शौक के लिए करते हैं का भाव लिए घूमते हैं। जिद करते हैं कि सामंती हुकूमत बनी रहे। जैसा अंग्रेज कह गए वैसा ही होता रहे। देखने वाली बात ये है कि इनका अगला कदम क्या होगा। आईएसआईएस का रूख करेंगे या अपने रसूख और सरोकार का इस्तेमाल कर किसी देशी-विदेशी कंपनी में एडजस्ट हो जाएंगे? नौकरी जब मर्जी छोड़ें लेकिन एक संवेदनशील मुद्दे पर ऐसे ही हांक देना बारूद को तीली दिखाने जैसा है। इन्हें पता भी है कि सीरिया और अफगानिस्तान से फारिंग होते ही पेशेवर जेहादी उनकी तरह कोई कंपनी या पार्टी में भर्ती नहीं होंगे? वे कश्मीर पर ही हल्ला बोलेंगे।
भारत में सिविल सेवा की परीक्षा, इसकी संरचना एवं प्रशिक्षण में व्यापक परिवर्तन की जरूरत है। कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि इसमें लोगों की समस्या का समाधान का हौसला रखने वाले ही घुस पाएं, टिक पाएं।(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)