देर रात तक काम करते सो गया, सुबह एक मित्र की काल से नींद खुली। उसने बताया कि मीडिया उद्योग में खर्च कम करने की होड़ लग गई है। कई संस्थानों ने अपने कई उत्पाद बंद कर दिये हैं। इस कटौती का सबसे बड़ा नुकसान प्रिंट मीडिया को हुआ है। निश्चित रूप से जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा प्रिंट के साथ जिया है, तो चिंता हुई, भले ही हम मल्टीमीडिया में बदल चुके होने से खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। प्रिंट आज भी भारत के एक बड़े वर्ग और क्षेत्र में विश्वसनीयता रखता है मगर प्रसार की दिक्कतें बहुत हैं। न्यू मीडिया उसके लिए चुनौती है मगर जो समझदार हैं, वो इसे संभावनाओं की तरह लेते हैं। बस, जरूरत उसके मुताबिक खुद को उन्नत करने की है। न्यू मीडिया भी सोशल मीडिया से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। यही, बात हम सभी को समझनी चाहिए, कि यह चुनौती भरे दिन हैं। हमारी कुछ पीढ़ियों ने निजी स्वार्थ पूरे करने के लिए प्रकृति से लेकर उद्योगों तक से खिलवाड़ किया है। उन्होंने नैतिकता और मूल्यों को भी तितांजलि दे दी। नतीजा यह हुआ कि आज जब संकट की घड़ी आई तो हम उनके आगे पीछे मंडरा रहे हैं, जो कभी हमारे आगे-पीछे मंडराते थे। शायद हमने इसका कारण भी खोजना जरूरी नहीं समझा। वजह सिर्फ यह है कि उन्होंने चंद फायदे देकर हमारी विश्वसनीयता से अपनी साख बनाई और अब हम अविश्वसनीय होने का ठप्पा लगाये भटक रहे हैं। लोग विश्वसनीयता की खोज में परेशान हैं।
पिछले कुछ साल पहले हम अपने गांव गये थे। वहां जाकर देखा कि तमाम युवा हाथ में सेलफोन लिए कुछ कर रहे हैं मगर क्या समझ नहीं आया। उनके दिमाग में एक सियासी तस्वीर और मन में एक कट्टर विचारधारा जगह बना चुकी थी। कुछ हमसे उम्र में बड़े थे तो कुछ छोटे। कुशलक्षेम पूछने पर बोले, “भइय्या कऊनव काम होए तो बताओ, हम खाली बैठे हन”। गांव के कुछ बड़े पिताजी से बोले, “दद्दा तुम्हीं कुछ करौ, पुलिस मा बड़े अफसर रहे हौ, कोहू से कहि देव तो लड़कवा कहूं काम पर लगि जाये”। पिताजी ने अपने तीनों बेटों और अपने भतीजों की तरफ देखा। सभी ने किसी न किसी काम का प्रस्ताव दे दिया। किसी ने मुंबई में तो किसी ने दिल्ली एनसीआर और किसी ने पंजाब-हरियाणा में। आज उस दिन की याद इसलिए आई क्योंकि अब हमारा भविष्य भी डगमगाता दिख रहा है। एक बात जो आत्मबल बढ़ाती है, कि आप संस्थान के लिए इतने उपयोगी बन जायें, कि उसे आपकी जरूरत बनी रहे। इसके लिए हमें खुद को समय के मुताबिक अपग्रेड करने के साथ ही बगैर किसी शर्म के कठिन परिश्रम भी करना होगा। हम जब आपको राह बता रहे हैं, तब उनके प्रति कृतघ्नता प्रकट करना भी जरूरी है, जिन्होंने हमें यह सिखाया, हमारे संपादक रहे गिरीश मिश्र, रवीन ठुकराल और शशिशेखर। इन्होंने ही हमें ईमानदारी, विश्वसनीयता के साथ कठिन परिश्रम और योग्यता को उन्नत करते रहना सिखाया। जो ऐसे वक्त में भी निर्भय बनाती है।
कोविड-19 के कारण देशव्यापी बंदी पर अर्थशास्त्रियों से चर्चा की तो पता चला कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह पूर्व की किसी भी वैश्विक मंदी से भी बुरे हालात जैसी हैं। आशंका है कि 1930 की आर्थिक मंदी में हालत जितने खस्ताहाल थे, उससे भी अधिक होंगे। ऐसा कोई उद्योग नहीं जो इससे प्रभावित न हो। तमाम उद्योग ठप्प होने से निवेशकों में खौफ का माहौल है। देश में सबसे अधिक रोजगार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग में हैं। भारत में करीब आठ करोड़ ऐसे उद्योगों में 20 करोड़ लोग रोजगार पाते हैं। कोरोना के कारण हुई इस बंदी और उसके पूर्व ही बिगड़े आर्थिक हालात ने अब हालत बदतर कर दी है। देशव्यापी बंदी से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के सामने रोजगार के साथ ही भूख मिटाने का संकट है। उद्योग जगत की गंभीर चिंताएं हैं मगर उनके लिए कोई राहत का पैकेज केंद्र सरकार ने नहीं दिया है। न ही इन उद्योगों को किसी भी तरह के कर्ज, ब्याज, खर्च और अन्य करों से राहत दी गई है। प्रधानमंत्री ने भी इन्हें मुलाजिमों को पूरा वेतन देने का पाठ पढ़ाया मगर मदद के नाम पर उनकी झोली खाली है। स्वाभाविक है कि उद्योग इस ज्ञान को चाहकर भी ग्रहण नहीं कर सकते। यही कारण है कि प्रवासी मजदूर अपने घरों को जाना चाहते हैं, जहां उन्हें मनरेगा या कुछ अन्य योजनाओं का लाभ मिल सके, जबकि उद्योगों में अभी संभावनायें नहीं दिख रही हैं। जो निराशा को बढ़ाने वाली हैं। ऐसे हालातों से तंग कुछ मजदूरों ने आत्महत्या कर ली तो कुछ छोटे व्यापारियों ने परिवार सहित खुदकुशी।
हमने पहले भी कहा था और फिर दोहरा रहे हैं कि देश की आजादी के बाद हमारे यहां एक सुविधाभोगी मध्यमवर्ग पनप उठा है, जो परजीवी अधिक है मगर खुद को ही मालिक समझता है। यह वर्ग सदैव समस्याओं के लिए सरकार से सवाल के बजाय आम लोगों को ही दोषी बताने लगता है, जिसका हिस्सा वह खुद भी है। सरकार से सवाल पूछने वालों को वह गाली देता है। यह वर्ग करोड़ों ग़रीबों के न दर्द को समझता है और न उनके लिए संवेदना रखता है। यही वजह रही कि यह वर्ग दिल्ली या मुंबई में जमा हुई भीड़ की लानत-मलामत कर रहा है। सुविधाभोगी मध्यम वर्ग को भले ही यह पूर्णबंदी तकलीफदेय न लगे मगर लंबे समय तक काम-धंधे बंद रखे गए, तो न सिर्फ गरीब मजदूरों का हाल बुरा होगा, बल्कि इसकी तपिश मध्य और फिर उच्च वर्ग तक भी पहुंचेगी। जब उद्योग व्यवसाय ही नहीं चलेंगे तो वेतन कहां से दिया जाएगा? इन हालात में वेतन में भी कटौती होगी और नौकरियों में भी। तभी प्रवासी मजदूर अपने घर-गांव की दिशा में पलायन करने को मजबूर हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने ऐसे वक्त में एक बार फिर सकारात्मक बात की, जो सार्थक और परिपक्य राजनीति का परिचायक है। उन्होंने पीड़ित गरीब-मजदूरों के हित को संवेदनशीलता से देखने की सलाह दी। उन्होंने अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालातों पर चर्चा और उसे मजबूत करने की दिशा में काम करने के लिए पार्टी या नेता की सोच से ऊपर उठने की बात भी की। उन्होंने कहा कि यह वक्त मोदी से नहीं कोरोना से लड़ने का है, इसलिए केंद्र को तमाम राहत कार्यों के लिए राज्यों, जिलों और ग्राम स्तर तक वित्तीय अधिकार और धन देना चाहिए। लड़ाई राज्यों को लड़नी है तो शक्ति का विकेंद्रीकरण किया जाना चाहिए। अधिक कोरोना टेस्ट और आपातकाल राशन कार्ड पर भी काम होना चाहिए। हमें नहीं लगता कि सरकार राहुल की सुनेगी।
दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि ऐसे कठिन वक्त में भी कुछ सियासी और संकुचित मानसिकता के लोग हिंदू-मुस्लिम का खेल खेल रहे हैं। मौजूदा संकट के साथ ही भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों से जूझने के लिए तैयारी करने का वक्त है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अगले कुछ माह में करीब 40 करोड़ रोजगार छिनने वाले हैं। ऐसे में हमें कोरोना संकट के वक्त में सीखने का मौका मिला है कि हम प्रकृति को नष्ट न करें। जाति-धर्म से बड़ी मानवता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति में बसता है। राहुल गांधी की बात सही है, कि कोरोना से जीत तभी होगी जब हम रचनात्मक रुख रखेंगे और मदद को आगे आएंगे। जरूरी है कि योग्य जन के रोजगार न छिनें बल्कि उन्हें उचित अवसर उपलब्ध करा संकट को भी संभावनाओं में बदला जा सके। मीडिया पुनः अपनी विश्वसनीयता बनाने पर काम करे, जिससे उसको राजनीतिज्ञों के आगे पीछे न घूमना पड़े बल्कि वो मीडिया के आगे पीछे घूमें, जैसे पहले होता था। यह तभी होगा जब मीडिया सिर्फ आमजन के मुद्दों पर संजीदगी से सवाल और बहस करेगी, न कि हिंदू-मुस्लिम या भारत-पाकिस्तान का ड्रामा। प्रकृति, मूल्यों, और नैतिकता की संरक्षा करते हुए हमारे संसाधनों का जनहित में तार्किक और सार्थक प्रयोग करना होगा। यदि ऐसा हुआ तो किसी भी योग्य व्यक्ति का न रोजगार छिनेगा और न व्यापार। देश पुनः सशक्त होकर खड़ा होगा और हम जीतेंगे।
जयहिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)