नेपोलियन अगर अपना लक्ष्य असंभव का संधान न बनाता तो शायद वह अपने शब्दकोष से असंभव शब्द को बाहर नहीं कर पाता। कोई बड़ा लक्ष्य पाने के लिए अपने लक्ष्य पर चिड़िया की आंख की तरह निगाह रखनी होती है। अपने लक्ष्य को इस अनुशासन के दायरे में तब ही ला सकते हैं जब खुद आपका जीवन अनुशासित हो। अक्सर आप सबने सुना होगा कि लोग हर नए साल को अपने अगले वर्ष का रिजल्यूशन तय करते हैं पर उनमें से कुछ ही अपने इस निर्धारित मापदंड पर खरे उतरते हैं और वे वही होते हैं जिनका जीवन अनुशासन के दायरे में बंधा होता है। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए अनुशासन सबसे बड़ा कारक होता है। अनुशासित व्यक्ति ही अपने उस लक्ष्य के प्रति गंभीर होता है। यानी एक तरह से कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि सफलता के रास्ते की सबसे अहम सीढ़ी अनुशासन है। यह अनुशासन ही व्यक्ति के अंदर धैर्य प्रदान करता है। धैर्य है तो आदमी अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर अभ्यास करेगा और उसकी कोशिशों को मरने नहीं देगा। जीवन में असफलता भी मिलती है और अगर मनुष्य यह मान ले कि हर असफलता उसके इंतहान की एक कड़ी है और सफलता की प्राप्ति की तरफ बढ़ा कदम तो यकीनन वह कभी हार नहीं मानेगा। यह हार नहीं मानने की जिद ही उसे एक न एक दिन सफलता अवश्य प्रदान करेगी।
जीवन में अनुशासन आदमी को एक संयमित जीवन जीने की राह स्पष्ट करता है। उसे हर अच्छे-बुरे की पहचान कराता है और अराजक होने से बचाता है। यह अनुशासन चाहे लोभ संवरण का हो अथवा गुस्से पर काबू पाने का या उपभोक्तावाद से बचने का उसे कहीं न कहीं लाभ ही प्रदान करता है इसके विपरीत अराजकता उसे असंयमी और लोभी बनाती है तथा शीघ्र ही ज्यादा पा लेने का। कभी उन लोगों की कहानी पढ़िए अथवा डिस्कवरी चैनल पर देखिए जो लोभ संवरण न कर पाने के चलते नशीली चीजों का व्यापार करने लगे अथवा खुद नशे के आदी होकर नशे की आवाजाही में पड़ गए। नतीजा क्या हुआ, कम समय में ज्यादा पा लेने के चक्कर में वे उस सब से भी हाथ धो बैठे जो वे सामान्य जिंदगी गुजर-बसर कर हासिल कर सकते थे। अपराध की दुनिया में अधिकांश लोग किसी मजबूरी के चलते अपराध से नहीं जुड़े बल्कि वे जुड़े जो अपने आप पर संयम नहीं कर पाए और बिना सोच विचारे उस दुनिया में चले गए जो उन्हें बांकी का जीवन जेल की कोठरियों में रहने को विवश करता है। अनुशासन जीवन का एक प्रेरक तत्व भी है। अकेले अनुशासन ही वह तत्व है जिसके चलते आदमी अपने लक्ष्य ही नहीं प्राप्त करता बल्कि वह जिंदगी जीता है जो औरों के लिए प्रेरणास्रोत बनता है। हमारे मिथकों में राम सर्वाधिक अनुशासित और संयमशील जातक नजर आते हैं पर कृष्ण भी अपने समय में सबसे अधिक अनुशासित नजर आते हैं। उन्होंने नए मिथक गढ़े जो उस समय के अनुसार अधिक व्यावहारिक और समयानुकूल थे। कृष्ण जब शिशुपाल का वध करते हैं तो कहते हैं कि मैने अपनी बुआ यानी शिशुपाल की मां को इसके सौ अपराध माफ कर देने का वचन दिया था और शिशुपाल ने वे सौ अपराध पार कर लिए तो उसका वध भी आवश्यक हो जाता है वर्ना वह समाज के लिए हानिकारक बन जाएगा। यह कोई अनुशासित जातक ही कह सकता है। बुद्घ और महाबीर के जीवन में भी यह अनुशासन नजर आता है। अपरिग्रह का व्रत लेकर निकले महाबीर अपने जीवन में इतने अपरिग्रही और कड़े व्रतधारी हो सकते हैं कि आज के समय में कल्पना भी मुश्किल है। इसी तरह यह अकल्पनीय लगता है कि सिद्घार्थ गौतम ने तपस्वी जीवन जीते हुए कितने कष्ट उठाए थे। और इन सबके पीछे उनका अनुशासन का ही व्रत था। अनुशासन का व्रत चूंकि उन्होंने लिया हुआ था इसलिए कष्ट उठाने में उन्हें वह परेशानी नहीं हुई जो एक सामान्य व्यक्ति को हो सकती है। अनुशासन जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करता है इसीलिए वह प्रेरक बन जाता है और यह प्रेरणा ही आदमी को अपने लक्ष्य की प्राप्ति को निरंतर प्रेरित करती है। इसलिए जीवन में अनुशासन सबसे महत्वपूर्ण कारक है। बिना अनुशासन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। अब बगैर अनुशासित व्यक्ति का जीवन देखिए। वह अपना लोभ संवरण तो नहीं ही कर पाता और उस अराजकता के भंवर में अपने को डुबो लेता है जिसका अंत विनाश में होता है। एक अराजक व्यक्ति का जीवन निराशाजनक तो होता ही है कोई लक्ष्य भी उसके जीवन में नहीं होता। आज का काम कल पर डालकर वह व्यक्ति अपने जीवन को अनिश्चय की डोर से बांध लेता है जहां न तो लक्ष्य है न एक निश्चत दायरा और न ही अपने लक्ष्य को पूरा करने की कोई प्रेरणा जिसका हश्र होता है कि वह व्यक्ति अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार लेता है।
जब भारत में अंग्रेज आए तो भारत का हर राजवंश विलासिता में डूबा हुआ था और अपनी वीरता और अपने नायकों को भुला बैठा था। देश का सबसे ताकतवर राजवंश मुगल बादशाह अपनी विलासिता के रंग में इस कदर डूबा था कि दिल्ली तक की रक्षा नहीं कर पा रहा था और गाहे-बेगाहे अहमदशाह अब्दाली आता और जनता से सबकुछ छीनकर ले जाता। पंजाब में तो कहावत चल निकली थी। खांदा-पींदा लाहे दा, बाकी अहमदशाहे दा। अर्थात जो खा-पी लिया वही अपना बाकी तो अहमद शाह आकर ले ही जाएगा। पर मुगल बादशाह को अपनी रंगीनियत से ही फुरसत नहीं थी। ऐसे में चतुर क्लाइव ने मीर जाफर की मदद से बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला से बंगाल की दीवानी ले ली। 1757 की इस घटना के महज सात साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजों ने बक्सर की लड़ाई में बंगाल, अवध और दिल्ली के बादशाह की संयुक्त सेना को हराकर मुगल बादशाह से 40 हजार वर्गमील का इलाका ले लिया इसके अलावा अवध का भी बहुत सा इलाका दबा लिया गया। मगर राजवंशों के वारिसों में कोई अनुशासन नहीं होने तथा उनके अराजक हो जाने का यही नतीजा होना था और धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी के हौसले इतने बढ़ गए कि वह तय करने लगी कि किस राजा की कौन-सी संतान राजा बनेगी अथवा निसंतान राजा के राज्य को वह खुद ले लेते। इसकी वजह उनका अनुशासन से हीन होना और अराजक हो जाना रहा। वैसे यह जानना भी दिलचस्प होगा कि भला कैसे कोई राजा ही अराजक हो सकता है? यहां अराजक कहने का मेरा आशय उन मानदंडों की कद्र करना और उनकी पालना से है जो राजवंश की नींव डालते समय तय किए गए थे। उन्हें चाणक्य सूत्र कहा जाए अथवा स्मृतियों का निर्धारण या संविधान। कोई भी व्यक्ति या नेता इन निर्धारण और मानदंडों या संविधान के इतर आचरण करता है तो उसका विनाश निश्चित है। इसलिए किसी भी समाज के लिए यह जरूर हो जाता है कि वह अनुशासन में आबद्घ रहे। अनुशासन ही किसी सभ्य समाज का मेरुदंड है। अनुशासन नहीं तो समाज में वह चेतना नहीं पनप सकती जिसकी बिना पर राजनीति बेखटके अपना काम करती है। अनुशासन हर एक के लिए आवश्यक है व्यक्ति के लिए, नेता के लिए भी और नौकरशाही के प्रति भी। अनुशासन ही राजनीति की समाज की दिशा व दशा तय करता है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
जीवन में अनुशासन आदमी को एक संयमित जीवन जीने की राह स्पष्ट करता है। उसे हर अच्छे-बुरे की पहचान कराता है और अराजक होने से बचाता है। यह अनुशासन चाहे लोभ संवरण का हो अथवा गुस्से पर काबू पाने का या उपभोक्तावाद से बचने का उसे कहीं न कहीं लाभ ही प्रदान करता है इसके विपरीत अराजकता उसे असंयमी और लोभी बनाती है तथा शीघ्र ही ज्यादा पा लेने का। कभी उन लोगों की कहानी पढ़िए अथवा डिस्कवरी चैनल पर देखिए जो लोभ संवरण न कर पाने के चलते नशीली चीजों का व्यापार करने लगे अथवा खुद नशे के आदी होकर नशे की आवाजाही में पड़ गए। नतीजा क्या हुआ, कम समय में ज्यादा पा लेने के चक्कर में वे उस सब से भी हाथ धो बैठे जो वे सामान्य जिंदगी गुजर-बसर कर हासिल कर सकते थे। अपराध की दुनिया में अधिकांश लोग किसी मजबूरी के चलते अपराध से नहीं जुड़े बल्कि वे जुड़े जो अपने आप पर संयम नहीं कर पाए और बिना सोच विचारे उस दुनिया में चले गए जो उन्हें बांकी का जीवन जेल की कोठरियों में रहने को विवश करता है। अनुशासन जीवन का एक प्रेरक तत्व भी है। अकेले अनुशासन ही वह तत्व है जिसके चलते आदमी अपने लक्ष्य ही नहीं प्राप्त करता बल्कि वह जिंदगी जीता है जो औरों के लिए प्रेरणास्रोत बनता है। हमारे मिथकों में राम सर्वाधिक अनुशासित और संयमशील जातक नजर आते हैं पर कृष्ण भी अपने समय में सबसे अधिक अनुशासित नजर आते हैं। उन्होंने नए मिथक गढ़े जो उस समय के अनुसार अधिक व्यावहारिक और समयानुकूल थे। कृष्ण जब शिशुपाल का वध करते हैं तो कहते हैं कि मैने अपनी बुआ यानी शिशुपाल की मां को इसके सौ अपराध माफ कर देने का वचन दिया था और शिशुपाल ने वे सौ अपराध पार कर लिए तो उसका वध भी आवश्यक हो जाता है वर्ना वह समाज के लिए हानिकारक बन जाएगा। यह कोई अनुशासित जातक ही कह सकता है। बुद्घ और महाबीर के जीवन में भी यह अनुशासन नजर आता है। अपरिग्रह का व्रत लेकर निकले महाबीर अपने जीवन में इतने अपरिग्रही और कड़े व्रतधारी हो सकते हैं कि आज के समय में कल्पना भी मुश्किल है। इसी तरह यह अकल्पनीय लगता है कि सिद्घार्थ गौतम ने तपस्वी जीवन जीते हुए कितने कष्ट उठाए थे। और इन सबके पीछे उनका अनुशासन का ही व्रत था। अनुशासन का व्रत चूंकि उन्होंने लिया हुआ था इसलिए कष्ट उठाने में उन्हें वह परेशानी नहीं हुई जो एक सामान्य व्यक्ति को हो सकती है। अनुशासन जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करता है इसीलिए वह प्रेरक बन जाता है और यह प्रेरणा ही आदमी को अपने लक्ष्य की प्राप्ति को निरंतर प्रेरित करती है। इसलिए जीवन में अनुशासन सबसे महत्वपूर्ण कारक है। बिना अनुशासन व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। अब बगैर अनुशासित व्यक्ति का जीवन देखिए। वह अपना लोभ संवरण तो नहीं ही कर पाता और उस अराजकता के भंवर में अपने को डुबो लेता है जिसका अंत विनाश में होता है। एक अराजक व्यक्ति का जीवन निराशाजनक तो होता ही है कोई लक्ष्य भी उसके जीवन में नहीं होता। आज का काम कल पर डालकर वह व्यक्ति अपने जीवन को अनिश्चय की डोर से बांध लेता है जहां न तो लक्ष्य है न एक निश्चत दायरा और न ही अपने लक्ष्य को पूरा करने की कोई प्रेरणा जिसका हश्र होता है कि वह व्यक्ति अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार लेता है।
जब भारत में अंग्रेज आए तो भारत का हर राजवंश विलासिता में डूबा हुआ था और अपनी वीरता और अपने नायकों को भुला बैठा था। देश का सबसे ताकतवर राजवंश मुगल बादशाह अपनी विलासिता के रंग में इस कदर डूबा था कि दिल्ली तक की रक्षा नहीं कर पा रहा था और गाहे-बेगाहे अहमदशाह अब्दाली आता और जनता से सबकुछ छीनकर ले जाता। पंजाब में तो कहावत चल निकली थी। खांदा-पींदा लाहे दा, बाकी अहमदशाहे दा। अर्थात जो खा-पी लिया वही अपना बाकी तो अहमद शाह आकर ले ही जाएगा। पर मुगल बादशाह को अपनी रंगीनियत से ही फुरसत नहीं थी। ऐसे में चतुर क्लाइव ने मीर जाफर की मदद से बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला से बंगाल की दीवानी ले ली। 1757 की इस घटना के महज सात साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजों ने बक्सर की लड़ाई में बंगाल, अवध और दिल्ली के बादशाह की संयुक्त सेना को हराकर मुगल बादशाह से 40 हजार वर्गमील का इलाका ले लिया इसके अलावा अवध का भी बहुत सा इलाका दबा लिया गया। मगर राजवंशों के वारिसों में कोई अनुशासन नहीं होने तथा उनके अराजक हो जाने का यही नतीजा होना था और धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी के हौसले इतने बढ़ गए कि वह तय करने लगी कि किस राजा की कौन-सी संतान राजा बनेगी अथवा निसंतान राजा के राज्य को वह खुद ले लेते। इसकी वजह उनका अनुशासन से हीन होना और अराजक हो जाना रहा। वैसे यह जानना भी दिलचस्प होगा कि भला कैसे कोई राजा ही अराजक हो सकता है? यहां अराजक कहने का मेरा आशय उन मानदंडों की कद्र करना और उनकी पालना से है जो राजवंश की नींव डालते समय तय किए गए थे। उन्हें चाणक्य सूत्र कहा जाए अथवा स्मृतियों का निर्धारण या संविधान। कोई भी व्यक्ति या नेता इन निर्धारण और मानदंडों या संविधान के इतर आचरण करता है तो उसका विनाश निश्चित है। इसलिए किसी भी समाज के लिए यह जरूर हो जाता है कि वह अनुशासन में आबद्घ रहे। अनुशासन ही किसी सभ्य समाज का मेरुदंड है। अनुशासन नहीं तो समाज में वह चेतना नहीं पनप सकती जिसकी बिना पर राजनीति बेखटके अपना काम करती है। अनुशासन हर एक के लिए आवश्यक है व्यक्ति के लिए, नेता के लिए भी और नौकरशाही के प्रति भी। अनुशासन ही राजनीति की समाज की दिशा व दशा तय करता है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)