वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही की रिपोर्ट सामने आई तो देश को आर्थिक मोर्चे पर जोरदार झटका लगा। देश का सकल घरेलू उत्पाद 5 फीसदी पर सिमट गई जबकि पिछले साल इस तिमाही में जीडीपी 8.2 फीसदी थी। यह जीडीपी तब है जबकि उसके तरीके को बदल दिया गया है जबकि पुराने आधार पर गणना करने पर यह डेढ़ फीसदी और भी कम हो जाती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक सुधार के कदम उठाने का एलान करते हुए 10 सार्वजनिक बैंकों का विलय करके चार बैंक बना दिए।
एनडीए सरकार आने के वक्त में 27 सार्वजनिक बैंक थे, जो अब 12 रह गए। आरबीआई की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि वित्त वर्ष 2018-19 में बैंकिंग क्षेत्र में 71,542.93 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी के 6,801 मामले दर्ज हुए जो पिछले वित्त वर्ष 2017-18 में 5,916 मामले दर्ज हुए थे जिसमें 41,167.04 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई। इस रिपोर्ट ने यह भी साबित कर दिया कि नोटबंदी में बड़ी गड़बड़ हुई है क्योंकि नोटबंदी से पहले 15.44 लाख करोड़ रुपए के नोट चलन में थे। साल बाद 99 फीसदी यानी 15.28 लाख करोड़ के नोट वापस आ गए थे। अब कहा गया है कि देश में चलन में मौजूद मुद्रा पिछले साल से 17 फीसदी बढ़कर 21.10 लाख करोड़ रुपए हो गई है, जबकि अभी भी कई देशों और न्यायिक हिरासत में जो नोट हैं, उनको बदलना है। जीडीपी का गिरना और बैंकों का विलय बेरोजगारों के लिए और भी संकट साबित होने वाला है। इसका असर निश्चित रूप से सभी क्षेत्रों पर बुरा प्रभाव डालेगा। इन रिपोर्ट्स से साफ हो गया कि विपक्ष की आशंकाएं और आरोप सही साबित हो रहे हैं।
न्यूज रूम में था, तभी खबर आई कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के 2012 बैच के अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने पद से इस्तीफा दे दिया। वह केंद्र शासित दादर नगर हवेली में उर्जा विभाग के सचिव के पद पर तैनात थे। केरल के मूल निवासी कन्नन ने बीआईटी से इंजीनियरिंग की थी। बतौर कलेक्टर उन्होंने आदिवासी गांवों में रातों में भी जनसेवक की तरह लोगों की समस्याओं को जुनूनी तौर पर हल किया था, जिससे वहां के लोग उन्हें प्यार करते हैं। उन्होंने इस्तीफा देने का कारण देशवासियों (कश्मीर में रहने वाले) के मौलिक अधिकारों का हनन होना बताया। पिछले साल यूपीएससी के टॉपर जम्मू-कश्मीर काडर के आईएएस अफसर शाह फैसल ने भी इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने भी मानवाधिकारों के उल्लंघन को आवाज बनाया था।
इन युवा अफसरों ने तब आवाज बुलंद की है, जब सच बोलने पर सजा मिलती है। इन अफसरों को देखकर सांत्वना मिलती है कि अब भी ईमानदार और संवेदनशील अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं में हैं, जो पद और उसके लाभ से ऊपर जन संवाद को मानते हैं। हाल ही में बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने एक वीडियो संदेश में कहा कि वह और राज्य की पुलिस जनता के नौकर हैं न कि मालिक। उन्होंने हिदायत दी, कि अफसर यही सोचकर निष्पक्ष काम करें और जनता का सम्मान भी। इसी सप्ताह मुंबई हाईकोर्ट के जज सारंग कोतवाल की अदालत में चली बहस के तथ्य सुनकर हम हैरान रह गए। यहां भड़काऊ भाषण देने के आरोपी वर्नोन गोन्जाल्विस की जमानत अर्जी पर सुनवाई करते हुए सवाल किया गया कि उनके घर पर लियो टॉल्सटाय की किताब ‘वार एंड पीस’ जैसी ‘आपत्तिजनक सामग्री’ क्यों रखी थी? हालांकि बाद में कहा गया कि यह सवाल टॉल्सटाय की किताब पर नहीं किया गया था बल्कि उससे मिलते जुलते नाम की किताब पर किया गया था।
विद्वान विचारक अपने देश के विचारकों के साथ ही विपक्षी विचारकों को भी पढ़ते हैं क्योंकि विपक्षी देश या विचारों को जाने बिना, सही समीक्षा नहीं की जा सकती। ज्ञान की सार्थकता तभी होती है, जब वह सभी पक्षों को समझता हो। लियो टॉल्सटाय को रूस का गांधी कहते हैं। टॉलस्टाय को दुनिया के महान लेखकों विचारकों में सुमार किया जाता है, जो प्रेम, करुणा और मजबूत सामाजिक रिश्तों के हमराह थे। वह एक बड़े जमींदार थे मगर उन्होंने अपनी आय किसानों का जीवन-स्तर उठाने में लगा दी। उन्होंने कई पुस्तकें लिखकर दबे कुचलों की आवाज बुलंद की और उनसे मिलने वाली रॉयल्टी भी उन पर ही खर्च कर दी। हमारा मानना है कि बहस मूल्यों पर होनी चाहिए, न कि बेजा बातों पर, मगर जांच एजेंसियों की हालत यह है कि वो सत्ताधीशों का मुंह देखकर कहानियां गढ़ती हैं, जो हमें पुलिस स्टेट की ओर ले जाती है। ऐसा करके सवाल करने वालों को डराया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक मंच पर स्पष्ट किया कि पाकिस्तान का कश्मीर और अनुच्छेद 370 विधवा विलाप कर रहा है, जो बेजा है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी साफ किया कि कश्मीर भारत का अंग है। पाकिस्तान को उस पर बोलने का कोई औचित्य नहीं।
वहीं जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने विपक्षी नेताओं पर जो टिप्पणी की, वह न केवल संवैधानिक मर्यादाओं के विपरीत थी बल्कि उनके संस्कारों को भी परिलक्षित करता है। हमारे नेताओं के तमाम दावों के बावजूद एक बात सत्य है कि जिस कश्मीर को हम अपना अभिन्न अंग कहते हैं, वहां के वासियों को नजरबंदी जैसे हालात में रखना सही कैसे ठहराया जा सकता है? इसके खिलाफ आवाज उठाना देशद्रोह नहीं बल्कि अपनी सरकार से अपना दर्द कहने जैसा है। अगर सरकार नहीं सुनती तो शांतिपूर्ण प्रतिरोध दर्ज कराने का अधिकार भी नागरिकों को होता है। ऐसे वक्त में अगर जिम्मेदार लोग चुप्पी साध लें, या लोकलुभावन लाभ के लिए सच न बोलें तो तय है कि वो कायर हैं। कोई भी देश वहां के नागरिकों से बनता है, न कि सिर्फ सीमाओं से। हमें जितनी चिंता सीमाओं की करनी चाहिए, उससे अधिक वहां के वासियों की। नागरिकों के बिना कैसा राज्य? इन तथ्यों पर गौर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। सवाल नहीं होंगे तो जवाब कौन देगा?
हमारा देश इस वक्त कई मोर्चों पर जूझ रहा है। कुछ लोगों की सोच देश को विकसित और सुनियोजित राज्य बनाने की है, तो बहुत से लोग धार्मिक बनाने की बात कर रहे हैं। राम मंदिर के नाम पर उपजे विवाद ने अब तक हजारों लोगों की जान ले ली है। सुप्रीम कोर्ट में इस पर रोजाना सुनवाई हो रही है। सभी अपनी बात कह रहे हैं। यह हम सब की जिम्मेदारी है कि वास्तविक और प्रमाणित तथ्यों को हम सामने लाने के लिए बोलें। दूसरी तरफ आर्थिक मोर्चे पर देश गंभीर संकट से गुजर रहा है।
यह संकट हमारी आंतरिक अर्थव्यवस्था के अव्यवस्थित होने के कारण है। हमारी सरकार इससे निपटने की बात करती है मगर उसके सुधार नाकाफी हैं। सुधार जब तक प्रभावी होंगे, न जाने कितने लोग आत्महत्या कर लेंगे और बेरोजगार हो जाएंगे। एक नीतिगत गलती, लंबे वक्त तक देश को संकट में डालती है। न्यायिक हालात भी बदतर हो रहे हैं। दिल्ली से लेकर पटना तक जजों के जो आचरण सामने आ रहे हैं, वो न्यायिक नहीं हैं। ऐसे आचरण न्यायपालिका की विश्वसनीयता और सम्मान खतरे में डालता है। आपको याद होगा कि पीछे सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जस्टिस ने मीडिया के सामने बोला था कि अगर वो सबकुछ देखते हुए भी चुप रहे तो अंतरात्मा को क्या जवाब देंगे, उसी तरह पटना हाईकोर्ट के जस्टिस राकेश कुमार ने भी कड़वी सच्चाई एक आदेश में कही।
ईश्वर के नाम पर सुव्यवस्थाओं की बात करने वाले बेटियों को भी सुरक्षा का माहौल न दे पाएं तो क्या आवाज नहीं उठनी चाहिए? इंसाफ मांगती महिला मौत को गले लगा लेती है, तब भी सत्ता को शर्म नहीं आती। देवी को पूजने की बात करने वाले, अगर इस पर भी नहीं बोलते तो निश्चित रूप से वो कायर हैं। आवश्यकता सार्थक बहस की है। हमें सच की आवाज बनना चाहिए, न कि रीढ़विहीन समाज का हिस्सा।
जय हिंद
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)
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