Bad politics does not make a superior nation! निकृष्ट सियासत से श्रेष्ठ राष्ट्र नहीं बनता!

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महान विचारक स्वामी विवेकानंद और मुंशी फैज अली का संवाद इस वक्त बेहद समीचीन है। फैज अली ने स्वामीजी से पूछा कि जब ईश्वर ने ही सारी दुनिया और इंसान बनाये तो एक जैसे ही क्यों नहीं बनाये? कोई हिंदू तो कोई मुसलमान, ईसाई आदि क्यों? सभी एक जैसे होते तो कोई फसाद ही न होता। स्वामीजी मुस्कुराते हुए बोले, मुंशीजी वह दुनिया ही कैसी जिसमें सभी फूल एक जैसे हों। सिर्फ गुलाब ही चारों ओर दिखाई दें तो नीरसता आएगी, इसलिए दूसरे रंग-बिरंगे, तेज गंध और भीनी खुशबू वाले जब होंगे तो मस्ती ही अलग होगी। यही कारण है कि ईश्वर ने भांति-भांति के जीव जंतु और इंसान बनाये हैं ताकि हम पिंजरे का भेद भूलकर जीव की एकता को पहचानें। मुंशीजी ने फिर पूछा इतने मजहब क्यूं बनाये? स्वामीजी बोले मजहब तो इंसान ने बनाये हैं, प्रभु ने तो सिर्फ रिश्ते और कर्तव्य बनाये हैं। मुंशीजी ने पूछा कि कोई गाय खाता है तो कोई मुर्गा और कोई शाकाहारी है, सही क्या है? स्वामीजी बोले मित्र, किसी देश या प्रदेश की जलवायु से वहां के लोगों का भोजन तय होता है। जहां कृषि होती है, वहां गाय और अन्य पशु धन के रूप में होते हैं। ऐसे क्षेत्रों में गाय, भूमि और जल बेहद उपयोगी होता है, जिससे धरती, गाय और नदियों को माता का दर्जा मिलता है, क्योंकि सभी मां की तरह पोषण करते हैं। जहां मरुभूमि है, वहां गाय-बैल निर्थक होते हैं, तो वहां वो भोजन बन जाते हैं। जीवन चर्चा और मजहबी तरीके असल में प्रकृति और भूभाग के मुताबिक बने हैं। हिंदुस्तान में शव जलाते हैं क्योंकि यहां वृक्षों की कमी नहीं है। अरब में उन्हें दफनाते हैं क्योंकि वहां पेड़ आसानी से सुलभ नहीं। धीरे-धीरे मजहबी कट्टरता बढ़ी और लोगों ने इसे उससे जोड़ लिया। असल में प्रभु प्रेम के सागर हैं। वह किसी से कभी रुष्ट नहीं होते। जो प्रकृति के नियम हैं, वही प्रभु का आदेश है। हमें सभी से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि सभी उसी का रूप हैं। आप सोचेंगे कि हम भी कौन सी कहानी लेकर बैठ गये? यह कहानी मौजूं है क्योंकि स्वामी विवेकानंद को आदर्श बताने वाले ही उनके विचारों का कत्ल करने लगे हैं।

हम विश्वगुरु होने का दम भरते हैं मगर पिछले कुछ वक्त में हमारे देश में जो घट रहा है, वह बेहद चिंताजनक है। एक पखवाड़े में दिल्ली में ज्ञानहीन लोगों ने ईश्वर की कृतियों की हत्या कर दी। दिग्भ्रमित लोगों ने किसी के घर जलाये तो किसी के कारोबार को नष्ट कर दिया। इन घटनाओं से जितना मानवता और देश को नुकसान हुआ है, उससे कहीं अधिक भारत की छवि को। हम भी जाहिल गंवारों की संस्कृति वाले देश बनने की दिशा में भागते नजर आ रहे हैं। वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति पर आधारित हमारा धर्म अब कुछ निकृष्ट विचारधारा की सोच वालों द्वारा तय किया जाने लगा है। यही कारण है कि हम अनेकता में एकता और प्रेम के पाठ को भूल रहे हैं। यह घटनाएं निश्चित रूप से पीड़ादायक हैं मगर इनसे अधिक पीड़ादायक वह सियासत है, जो इन पर हो रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन सांप्रदायिक दंगों पर सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों और प्रधानमंत्री की ओर से निंदा का प्रस्ताव तक नहीं आया। इसके साथ ही इन घटनाओं में हुई क्षति की पूर्ति के लिए एक सर्वधर्म संभाव वाली कार्ययोजना आनी चाहिए थी मगर ऐसा भी नहीं हुआ। संसद के सत्र में भी इस पर विधिवत चर्चा और जवाब के लिए सरकार तैयार नहीं है। तीन दिनों तक राजधानी में हुए कत्लेआम पर हमारे देश की संसद भले ही चर्चा न कर रही हो मगर विश्व के तमाम देशों की संसद में इस पर निंदा प्रस्ताव पास हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन घटनाओं पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। जांच कराने और कार्रवाई कराने के लिए नागरिकों को अदालतों का सहारा लेना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट के सजग सेवानिवृत्त जस्टिस की एक टीम ने मौका मुआइना करके घटना की गंभीरता पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। लोकतांत्रिक राष्ट्र में जन प्रतिनिधियों का समस्याओं से आंख बंद कर लेना निश्चित रूप से निकृष्ट सियासत का नमूना है। दूसरी तरफ यूपी में सीएए के विरोध में आवाज बुलंद करने वाले पत्रकारों, सिविल सोसाइटी के लोगों और जागरुक सामाजिक कार्यकतार्ओं को पहले फर्जी मुकदमें दर्ज कर जेल भेजा गया और अब बगैर अपराध साबित हुए उनकी तस्वीरें चौराहों पर लगा उनका जीवन खतरे में डाल दिया गया। इससे तो यही समझ आता है कि सरकार अपने ही नागरिकों से नफरत करती है।

हमारे देश की हालत यह है कि अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। देश की बैंक लगातार कंगाल हो रहे हैं। अब यस बैंक की हालत खराब हो गई है। सरकार इस बैंक को जल्द ही एसबीआई के कब्जे में देने जा रही है। अब इस बैंक सारा नुकसान सरकारी बैंक उठाएगा। बैंक के प्रमोटर्स ने जो चाहा वह कर लिया। सीमित जवाबदेही के तहत वह भविष्य में बच निकलेंगे। इस वक्त देश बेरोजगारी के मामले में बेहद बुरे दौर से गुजर रहा है। रोजाना हर उद्योग व्यवसाय से हजारों लोगों को नौकरियों से निकाला जा रहा है। सरकार ने 90 लाख पद पिछले पांच साल में खत्म कर दिये हैं। खराब आर्थिक और सामाजिक ढांचे के बीच युवाओं और महिलाओं में मानसिक रोग पनप रहे हैं। संकट के इस दौर में न तो सियासी और न कोई सामाजिक संगठन सामने आया, जिसने कत्लेआम प्रभावित क्षेत्र में पीड़ितों की मदद के लिए कोई कैंप लगाया हो। इन संगठनों ने युवाओं में बेरोजगारी के कारण बढ़ी मानसिक अवसाद की समस्या से निपटने के लिए भी कुछ नहीं किया। हमारे लिए यह शर्मनाक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में आगे आकर अदालत का दरवाजा खटखटाया। सरकार की नीतियों ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के बजाय उसे बिगाड़ने का काम किया है। संसद में इसको लेकर आवाज उठाने वाले सात सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया। आखिर यह कौन से लोकतंत्र का मंदिर है?

दिल्ली में वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी से पता चला कि सरकार ने एक योजना बनाई है कि वह उद्योगों के बकाया करीब साढ़े 10 लाख करोड़ के बैड लोन माफ करेगी। सार्वजनिक क्षेत्र की तीन दर्जन कंपनियों को सरकार ने बेचकर खर्चे कम करने की रणनीति बनाई है। बैंकों की गलत नीतियों के कारण एनपीए हुए तमाम उद्योग समूहों को बैक डोर लाभ देने की भूमिका तैयार की गई है। पेट्रोलियम कंपनियां हों या इंडिन एयरलाइंस, सभी में सरकार ने अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचकर धन जुटाने का फैसला किया है। हमें याद आता है कि हमारे गांव में एक कहावत थी ह्लपूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचयह्व। यानी कपूत होगा तो बनी पूंजी भी बरबाद कर देगा और काबिल होगा तो वह संपत्ति खुद बना लेगा, उनके लिए संचय की जरूरत ही क्या? पिछले 70 सालों में देश की सरकारों ने जो संपत्ति और कंपनियां बनाई थीं, मौजूदा सरकार उन्हें बेचकर सरकार चलाने की कोशिश कर रही है। बैंकों से लोन लेकर कुछ कंपनियों को फायदा दिलाने का भी खेल किया जा रहा है। आलोक इंडस्ट्रीज इसका एक उदाहरण है जिसमें कंपनी ने 22.75 हजार करोड़ का लोन एसबीआई से लिया था, जिसको वसूलने के नाम पर एसबीआई की तत्कालीन अध्यक्ष अरूंधति भट्टाचार्य ने बेजा दबाव बनाया तो कंपनी ने उसे चलाने से मना कर दिया। अब मैडम रिलायंस समूह की निदेशक हैं और उनकी देखरेख में कंपनी ला ट्रिब्युनल से रिलायंस ने आलोक डंडस्ट्री का बड़ा शेयर खरीद लिया। आप इस केस से बड़ी सियासी कारपोरेट साजिशों को समझ सकते हैं।

इस वक्त देश में जो घट रहा है, उसकी पूरे विश्व में निंदा हो रही है। हमारे देश की पहचान दंगाई और सांप्रदायिक भेदभाव वाले देश की तरह होने लगी है। हमारे पूर्वजों ने बड़े हृदय का परिचय देकर सभी को अपनाने वाला बनाया था, जिससे हमें विश्व में सम्मान की नजर से देखा जाता था मगर अब हमें हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। आर्थिक रूप से हमारी तस्वीर बिगड़ने का असर यह हुआ है कि हमें बीमारू राज्य की तरह वैश्विक मंच पर देखा जाने लगा है। जिम्मेदार लोगों को इसे गंभीरता से देखना और समझना चाहिए।

जयहिंद

ajay.shukla@itvnetwork.com

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)